अन्‍वेषण

जब से
लगा में कुछ जानने
चीजों को पहचानने,
तब से ही
यह प्रश्‍न
मुझे
लगातार झकझोरता रहता है
कि कौन हूं मैं
और
क्‍या है मेरे जन्‍म का उद्देश्‍य !
क्‍यूं आया हूं मैं
इस अलौकिक से संसार में !


कभी लगता है
कि मैं
एक अदृश्‍य शक्तिपुंज का अंश हूं
कभी लगता है
नहीं
मैं तो प्रकृति की कुछ क्रियाओं का परिणाम हूं.

अगले ही पल
सोचता हूं
क्‍यों पडा हूं मैं इस चक्‍कर में !
मैं तो अपने मां-बाप की संतान हूं
जिस प्रश्‍न का आज तक
कोई भी
नहीं खोज पाया
एक पूर्ण सा उत्‍तर
मैं क्‍या खोज पाऊंगा
उस अनुत्‍तरित प्रश्‍न का उत्‍तर !

यहीं आकर
बाधित हो जाता है
अन्‍वेषण.


(2001-02 में लिखी हुई मेरी एक कविता)
 
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