समय की पुनर्रचना - गंगा सहाय मीणा

अपने अपने अज्ञेय (दो खंडों में) *ओम थानवी *वाणी प्रकाशन, *नई दिल्ली *कीमतः 1,500 रु. *vaniprakashan@gmail वर्ष 2011 कई बड़े रचनाकारों का जन्म शताब्दी वर्ष था-फैज, नागार्जुन, शमशेर, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल आदि. अकादमिक गलियारों में जन्म शताब्दी वर्ष की धूम रही. पत्र-पत्रिकाओं ने विशेषांक निकालकर अपना धर्म निभाया. इस पूरी प्रक्रिया में आशानुरूप सबसे विवादास्पद सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन का 'अज्ञेय' व्यक्तित्व रहा, और सार्थक भी. यह तथ्य इस बात का परिचायक है कि अज्ञेय के व्यक्तित्व और साहित्य में ऐसा कुछ है जो पाठकों से संवाद करता है. अज्ञेय पर लिखे संस्मरणों की, दो भागों वाली इस किताब अपने अपने अज्ञेय को ओम थानवी ने संपादित किया है. इस संकलन में अज्ञेय के समकालीन और अज्ञेय से किसी-न-किसी रूप में संबंधित रहे सौ प्रमुख लोगों के संस्मरण शामिल किए गए हैं. यह पुस्तक संस्मरणों की रस्मअदायगी वाली कोई सामान्य पुस्तक न होकर एक संदर्भ ग्रंथ की तरह है. इसके 'संस्मरणों' में अज्ञेय के व्यक्तित्व से लेकर साहित्यिक जीवन की स्मृतियां तो हैं ही, साथ ही उनका तिथिवार जीवन-वृत्त, प्रकाशन वर्ष के साथ उनकी कृतियों की सूची और अज्ञेय से संबंधित पुस्तकों की सूची के अलावा एक अच्छी अनुक्रमाणिका भी है. संस्मरणों की भी दो दिलचस्प विशेषताएं हैं-ये संस्मरण एक दिवंगत लेखक के प्रति श्रद्धांजलि मात्र न होकर उसके व्यक्तित्व और लेखन की विविध छवियों को आलोचनात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हैं; दूसरे, इसमें उनके विरोधियों के संस्मरण भी शामिल किए गए हैं, यहां तक कि कुछ विरोधियों से भी लिखवाया गया है. सभी पक्षों को सामने रखकर पाठकों को राय बनाने की छूट देना एक ईमानदार संपादक की पहचान होती है और ओम थानवी ने जनसत्ता से लेकर इस पुस्तक तक में अपने संपादक धर्म को बखूबी निभाया है. थानवी ने एक अच्छी भूमिका के 'चार शब्द?' लिखकर किताब को पढ़कर अज्ञेय को समझने के लिए उतरने वालों का रास्ता आसान कर दिया है-उन्हें रास्ते की जटिलताओं से परिचित कराके. पिछले ही वर्ष मुअनजोदड़ो जैसा यात्रा वृत्तांत लिखकर थानवी साहित्य की दुनिया में एक जरूरी हस्तक्षेप कर चुके हैं. सामग्री के चयन और संपादन में सजगता इस पुस्तक में भी देखी जा सकती है. थानवी ने एक अच्छे संस्मरण-संकलन की विशेषता स्पष्ट करते हुए लिखा है, ''अच्छा संस्मरण रचना का सुख देता है. उसमें तथ्य होते हैं, घटनाएं (या दुर्घटनाएं) होती हैं, लेखक के बारे में है तो उसकी कृतियों के ब्यौरे होते हैं, कुछ विवेचन भी होता है, पर अंततः संस्मरण स्मृति के सहारे समय की सरस पुनर्रचना है.'' वास्तव में अपने अपने अज्ञेय उस समय की पुनर्रचना है, जिसमें अज्ञेय रच रहे थे. इन संस्मरणों में अज्ञेय के विविध रूप सामने आए हैं. एक साहित्यकार के रूप में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, व्यंग्य, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, डायरी, स्तंभ, अनुवाद, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में अज्ञेय ने सशक्त हस्तक्षेप किया, वहीं जीवन में छापामारी, यायावरी, अध्यापन, पत्रकारिता, चित्रकला, मूर्तिकला, छायाकारी, पाककला, बढ़ईगीरी, दर्जीगीरी, केशकर्तन, बागवानी आदि में हाथ डाला और कुछ सार्थक करने का प्रयास किया. सौ महत्वपूर्ण लेखकों, आलोचकों द्वारा अपने समय के एक जरूरी लेखक के बारे में लिखना निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण है. और इस उद्यम को सार्थक बनाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में पूर्व प्रकाशित संस्मरणों को संकलित करने के अलावा कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, विजयमोहन सिंह, गंगा प्रसाद विमल, राजेश जोशी आदि दर्जनों लेखकों ने इस किताब के लिए विशेष रूप से लिखा है, जिससे संकलन में ताजगी आ गई है. थानवी ने प्रतिपक्षियों के आलोचनात्मक संस्मरण छापकर पाठक को 'अज्ञेय छवि' को अपनी कल्पना में सृजित करने के लिए पर्याप्त अवसर दिया है. ऐसे में लंबी भूमिका के बहाने संपादक का अज्ञेय पर लगे आरोपों का जवाब तैयार करना थोड़ा खटकता है. संस्मरणों के शीर्षक पुस्तक में संकलित सामग्री के साहित्यिक स्तर और महत्व की पूर्वपीठिका तैयार करते नजर आते हैं, जैसे 'सड़क जहां समाप्त होती है' (विष्णु प्रभाकर), 'जिसका वह आखेट करता है' (कृष्णा सोबती), 'सन्नाटे में छंद' (प्रभाष जोशी), 'मानव की तीसरी आंख' (विश्वनाथ प्रसाद तिवारी), 'डेढ़ शब्द और जलेबी' (पंकज बिष्ट) आदि. इस तरह अज्ञेय जन्म शताब्दी के अवसर पर तैयार यह संकलन अज्ञेय के जीवन और साहित्य को सहमतियों-असहमतियों के साथ विमर्श के केंद्र में लाने में मदद करेगा और अज्ञेय के अध्येताओं के लिए संदर्भ ग्रंथ की तरह काम आएगा, यही इसकी सार्थकता है. और भी... http://aajtak.intoday.in/story.php/content/view/700953/66/0/Books-review-time-restructuring.html

देवनागरी अंकों के स्‍थान पर अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों व आसान भाषा का प्रयोग व पूर्णविराम का सवाल

विकिपीडिया ज्ञान का एक सुलभ और सहज स्रोत है. हिन्‍दी के संदर्भ में विकिपीडिया में इस्‍तेमाल होने वाले देवनागरी अंक और क्लिष्‍ट या मुश्किल भाषा इसे जटिल बनाते हैं. भारतीय संविधान में भी अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों और (राजभाषा विभाग के एक ताजा सर्कुलर के अनुसार) आसान भाषा के प्रयोग की ही बात कही गई है. हिंदी के सभी बडे पत्र-पत्रिकाएं भी इसका पालन कर रहे हैं. सभी बडे प्रकाशक अपने प्रकाशनों में अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों का प्रयोग करते हैं. इसकी सबसे बडी वजह यह है कि देवनागरी अंकों को बहुत ही कम पाठक समझते हैं. मेरी राय है कि विकिपीडिया को सहज-सुलभ बनाने के लिए यहां भी अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों व आसान भाषा का प्रयोग उचित होगा. इस संदर्भ में आप वरिष्‍ठ सदस्‍यों की राय का इंतजार है. धन्‍यवाद. गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 20:57, 10 जून 2012 (UTC) मीणा जी, आप बिल्कुल सही कह रहें हैं। मेरा भी यही मानना है कि जब आम जनता को देवनागरी अंक समझ ही नहीं आते तो इनका प्रयोग करके हिन्दी विकिपीडिया को और जटिल बनाने से क्या फायदा। अब मुख्यतः सभी जगह अंतर्राष्‍ट्रीय अंको का प्रयोग होता है, तो यहाँ क्यों नहीं। परन्तु मीणा जी इस विषय पे कई बार चर्चा हों चुकी हैं, आप चौपाल के पुरालेख देख सकते हैं। और यह विषय काफी जटिल है, भूतकाल में हुई चर्चाओं का कोई निष्कर्ष सामने नहीं आया। परन्तु मैं अन्य सदस्यों से अनुरोध करूँगा कि इस विषय पे अपनी राय दें जिससे कि आने वाले समय में इस विषय पर प्रस्ताव रखा जा सके।<>< Bill william comptonTalk 12:02, 11 जून 2012 (UTC) शुक्रिया भाई बिल विलियम जी, मेरी यही समझ है कि हम अपनी भाषा के साथ उदारता से पेश आयेंगे तो इससे उसके बोलने/पढने वालों के साथ उस भाषा का ही भला होगा. जब संविधान और पूरा विद्वत समाज इसके पक्ष में है तो मुझे लगता नहीं कोई समस्‍या है. आइए, हिन्‍दी को आसान और सुलभ बनाएं. गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 12:29, 11 जून 2012 (UTC) नये सदस्यों से आग्रह है कि इस विषय पर पिछली चर्चा को गंभीरता पूर्वक देखें। २00३ से २0१२ तक इस विषय पर कई बार चर्चा हो चुकी है और अभी तक अंतर्राष्ट्रीय अंक के नाम पर देवनागरी अंक को समाप्त करने की कोशिश सफल नहीं हुई है। और पुर्णिमा जी, आशीष जी, हेमंत जी, अनुनाद जी सुरुची जी आदि की राय उपेक्षणीय नहीं हो सकती। भले ही इनमें से अधिकांश विभिन्न वजहों से विकिया से दूर हों। अनिरुद्ध वार्ता 16:19, 13 जून 2012 (UTC) भाई अनिरुद्ध जी, आप अपनी बात तर्कपूर्ण ढंग से कहेंगे तो ज्‍यादा असर पडेगा. मैंने कुछ पुरानी बहसें देखी हैं इस मसले पर, लेकिन उनसे सहमत नहीं हुआ जा सकता क्‍योंकि वहां पर स्‍वयं किसी एक राय पर आम सहमति नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि किसी ने एक बार जो बात कह दी, वह पत्‍थर की लकीर बन गई. हमें व्‍यावहारिक धरातल पर सोचना चाहिए. जहां तक 'देवनागरी अंकों को समाप्‍त करने की कोशिश' का सवाल है तो ऐसी कोशिश कोई नहीं कर रहा. मेरी चिंता केवल यह है कि देवनागरी अंक कितने लोग समझते हैं? हमें यह भी सोचना चाहिए कि विकिपीडिया के लक्ष्‍य पाठक कौन हैं? वे जो भी हैं, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उनमें से अधिकांश देवनागरी अंक नहीं समझते और इसी वजह से वे विकिपीडिया की तुलना में किसी दूसरे स्रोत को देखना ज्‍यादा पसंद करते हैं. हमें विकिपीडिया पर सूचनाओं को आसान बनाना चाहिए. अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों व आसान भाषा द्वारा हम यह कर सकते हैं. दूसरी बात यह कि भारत के संविधान में अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का निर्देश है, इस दृष्टि से भी इनका प्रयोग अनुचित नहीं है. भाषा कोई व्‍यक्तिगत जिद नहीं, अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम है. भाषा के जिस रूप को अधिकांश लोग समझते हों, उसी का अनुसरण करना लोकतांत्रिक होगा. आशा है आप इसे अन्‍यथा नहीं लेंगे. धन्‍यवाद. गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 16:50, 13 जून 2012 (UTC) मैंने ऊपर दो सवाल उठाए हैं, इसी क्रम में यह तीसरा मुद्दा भी है. मेरे वार्ता पृष्‍ठ पर भाई आनंद विवेक जी ने पूर्णविराम के सही प्रयोग का सवाल उठाया है. मैं उपर्युक्‍त दोनों मुद्दों के अलावा यहां पूर्णविराम -खडी पाई (।) बनाम फुल स्‍टॉप (.)- के प्रयोग के बारे में विकिपीडिया नीतियों के हिसाब से आप सभी सुधीजनों से आपकी राय जानना चाहता हूं ताकि हम सब उसका अनुसरण कर सकें. इस संदर्भ में यह दिचलस्‍प बहस देखी जा सकती है. मुझे ‎तीनों ही मुद्दों पर Bill william compton जी, Dr.jagdish जी, पूर्णिमा वर्मन जी आदि वरिष्‍ठ सदस्‍यों की राय का बेसब्री से इंतजार रहेगा. धन्‍यवाद. गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 06:52, 11 जून 2012 (UTC) मैरे अनुसार (।) का ही उपयोग करना सही होगा चुँकि अधिकाँश हिन्दी समाचार पत्रो में (।) का ही उपयोग किया जाता है। जो दैनिक भास्कर जैसे समाचार पत्र पर देख सकते है। [6] यहा देख सकते है। साथ ही विद्यालय एव परीक्षाओ में भी इसका उपयोग होता है। विद्यालय के किताबो मे भी इसी का उपयोग किया जाता है। निर्वाचित लेखो में भी इसी का उपयोग किया गया है। अत: सभी लेखो में भी (।) का उपयोग किया जाना चहिए। आनन्द विवेक सतपथी वार्ता 07:43, 11 जून 2012 (UTC) मीणा जी, हिन्दी भाषा में पूर्ण विराम का प्रयोग फुल-स्टॉप से अधिक होता है। मैं मानता हूँ कि कुछ पत्रिकाएँ व कुछ समाचरपत्र फुल-स्टॉप का प्रयोग करने लगे हैं, परन्तु अभी भी इनकी संख्या पूर्ण विराम का प्रयोग करने वालो से कम ही है। एक भाषा को लिखने के कई तरीके हों सकते हैं जैसे अंग्रेज़ी की अलग-अलग राष्ट्रों में कई प्राकृत भाषा हैं: अमेरिकी अंग्रेज़ी, ब्रिटिश अंग्रेज़ी, ऑस्ट्रेलियाई अंग्रेज़ी, दक्षिण अफ्रीकी अंग्रेज़ी, आदि। इन सभी रूपों में अंग्रेज़ी के कुछ एक शब्द को अलग-अलग वर्तनियों के साथ लिखा जा सकता है व एक ही शब्द का अलग-अलग राष्ट्र में मतलब भी अलग हो सकता है। परन्तु फिर भी इन सभी में विराम चिन्हों का एक ही मानक है। इसी प्रकार हिन्दी की भी कई प्राकृत भाषा हैं, इनमें से एक इंटरनेट पर प्रयोग होने वाला रूप भी है जो प्रमुख रूप से सबसे अस्थिर रूप है। हिन्दी की कई वेबसाइट गूगल ट्रांसलेट का प्रयोग करती हैं। और गूगल ट्रांसलेट का किया अनुवाद बेकार होता है, इसलिए दिन-प्रतिदिन इन्टरनेट पर हिन्दी वर्तनियाँ खराब होती जा रही है। इसी प्रकार, इंटरनेट पे से पूर्ण विराम का प्रयोग कई वेबसाइट ने बंद कर दिया है। परन्तु अभी भी शिक्षा, सरकारी कामकाज, और मुख्य समाचारपत्रों की वेबसाइट पूर्ण विराम का ही प्रयोग करती हैं। यहाँ तक की अमेरिका, कनाडा, आदि में भी हिन्दी सिखने वाले छात्रों को पूर्ण विराम का ही प्रयोग बताया जाता है (जैसे यह वेबसाइट, वैंकूवर पब्लिक लाइब्रेरी की वेबसाइट का हिन्दी रूप है)। तो मेरे विचार से जब मुख्यतः हिन्दी स्रोत अभी भी पूर्ण विराम का प्रयोग कर रहें हैं तो इसका प्रयोग विकिपीडिया पे भी होना चाहिए। वैसे जब आप नारायम सक्षम कर लेते हैं तो फुल-स्टॉप तो स्वयं ही पूर्ण विराम बन जाता है, इसलिए पूर्ण विराम का प्रयोग तो फुल-स्टॉप से भी आसान है।<>< Bill william comptonTalk 11:51, 11 जून 2012 (UTC) भाई बिल विलियम जी, आपकी राय निश्चिततौर पर महत्‍वपूर्ण है. इस संदर्भ में मैं यहां निम्‍न बिंदु रखना चाहता हूं- हिन्‍दी में पूर्ण विराम का कोई बाध्‍य नियम नहीं है, इसलिए ही कई पत्रिकओं ने फुल स्‍टॉप को अपना लिया है, हिन्‍दी की प्रतिष्ठित व लोकप्रिय पत्रिका हंस इसका सबसे बडा उदाहरण है. आप इसका कोई भी अंक खोलकर देख सकते हैं. आनंद विवेक जी और बिल जी, आप दोनों ने समाचार पत्रों का हवाला दिया है. आप जानते हैं कि भाषा के संदर्भ में समाचारपत्र कभी आदर्श नहीं माने जा सकते- साहित्यिक पत्रिकाओं और पुस्‍तकों के तुलना में. हिन्‍दी के प्रमुख पत्र नवभारत टाइम्‍स की भाषा इसका एक उदाहरण है. इसलिए मेरी समझ से पूर्ण विराम के दोनों ही प्रयोग सही हैं. बस इतना ध्‍यान रखा जाना पर्याप्‍त है कि एक लेख में पूर्णविराम के प्रयोग में एकरूपता हो. मैं खडी पाई (।) के प्रयोग पर सवाल खडे नहीं कर रहा, बस इतना कहना चाह रहा हूं कि फुल स्‍टॉप (.) का प्रयोग भी गलत नहीं है. मैं Indic IME का Hindi Typewriter कीबोर्ड इस्‍तेमाल करता हूं जो मैंने राजभाषा विभाग की वेबसाइट से लिया है, और दुर्भाग्‍य से इसमें खडी पाई (।) का बटन ही नहीं है. इसलिए मुझे खडी पाई का इस्‍तेमाल करने के लिए कॉपी-पेस्‍ट का सहारा लेना पडता है. मुझे लगता है मेरी जैसी स्थिति में कुछ और लोग भी होंगे. गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 12:45, 11 जून 2012 (UTC) दोनों का प्रयोग लोग कर रहे हैं (जान-बुझकर या अज्ञानतावश) पर हिंदी भाषा विज्ञान क्या कहता है? हिंदी व्याकरण के नियम क्या कहते हैं? भारत शिक्षा बोर्डों के पाठ्य-पुस्तकों में क्या है? सभी को देखते हुए हिन्दी पूर्ण विराम चिन्ह (।) ही सही है जो हिंदी विकिपीडिया ने आजतक अपनाया है। फुल स्टॉप का प्रयोग गूगल अनुवाद से होता है। फुल स्टॉप का प्रयोग हिंदी में अशुद्ध माना जाता है भले ही पत्र-पत्रिकाएँ प्रयोग करे। राष्ट्रीय हिंदी संस्थान हिंदी की सबसे बडी संस्था है, उसके बताए गए निर्देशों पे चलें तो अच्छा होगा।भवानी गौतम (वार्ता) 13:07, 11 जून 2012 (UTC) मीणा जी, क्या आपने नारायम को सक्षम करके देखा है? असल में आप किसी भी बहारी टूल का प्रयोग करें, अगर नारायम सक्षम है तो वह फुल-स्टॉप को पूर्ण विराम में बना देगा। इसके लिए आपके Hindi Typewriter में खडी पाई के बटन होने कि कोई आवश्यकता नहीं है। मैं भी बहारी टूल का ही प्रयोग करता हूँ और मेरे टूल में भी यह विकल्प नहीं है परन्तु जब मैं कुछ भी लिखता हूँ तो नारायम को सक्षम कर लेता हूँ इससे जैसे ही मैं अपने कम्प्यूटर के किबोर्ड पे से फुल-स्टॉप वाली कुंजी दबाता हूँ वो पूर्ण विराम में बदल जाती है। नारायम सक्षम करने के लिए आप अपनी स्क्रीन के सबसे ऊपर इनपुट विधि को सक्षम करलें। अगर अभी भी आपको कोई समस्या आए तो पूछें, प्रबंधक होते हुए मेरा कर्तव्य सदस्यों की सहायता करना ही है।<>< Bill william comptonTalk 13:13, 11 जून 2012 (UTC) हिन्दी देवनागरी लिपि में पूर्ण विराम का प्रयोग ही अधिक उपयुक्त है, कुछ पत्रिकाएँ कादम्बिनी, हंस आदि पूर्ण विराम के लिये ( । ) की जगह ( . ) का प्रयोग कर रही हैं परन्तु ( । ) प्रयोग उचित है। एन. सी. ई. आर. टी. की पुस्तकों में भी ( । ) प्रयोग किया जा रहा है, इसलिये मेरे विचार से पूर्ण विराम के लिये ( । ) प्रयोग ही ठीक है।--डा० जगदीश व्योम (वार्ता) 14:26, 11 जून 2012 (UTC) आप सभी की राय मेरे लिए बहुत महत्‍वपूर्ण हैं. मैं फिर दुहराऊं, खडी पाई के प्रयोग से मेरी कोई असहमति नहीं है. मेरी व्‍यक्तिगत समस्‍या तो यह है कि मेरे टाइपिंग टूल में खडी पाई का बटन ही नहीं है. आपके कहने पर नारायम भी चालू करके देख लिया, तब भी खडी पाई ( । ) नहीं आई. 10 साल से जो टाइपिंग टूल इस्‍तेमाल कर रहा हूं, उन्‍होंने बदलना भी मुश्किल लग रहा है. धन्‍यवाद. गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 17:56, 11 जून 2012 (UTC) अपनी सुविधा के लिए तर्क का सहारा लेकर देवनागरी के बुनियादी स्वरूप को बदलने की कोशिश करने की अपेक्षा देवनागरी अंक या पूर्णविराम टंकित करना या पढ़ना सीखने में बहुत ही कम कोशिश की जरूरत है। प्रचलन के तर्क के आधार पर टंकित को टाइप कहने या लिखने का मैं समर्थन नहीं कर सकता हूँ। और पुरानी बहसें इतना समझने के लिए पर्याप्त हैं कि तर्क के आधार पर हम कम-से-कम इस मसले पर किसी एक सर्वमान्य निर्णय तक नहीं पहुँच पाए हैं। इसलिए मानकीकरण के नाम पर अपनी सुविधा आरोपित करने के बजाय हिंदी की मूल प्रकृति को सीखने की कोशिश कीजिए। पिछली बहस के दौरान मैने खुद नागरी अंक टंकित करना सीखा था और 123456789 की तुलना में १२३४५६७८९ को पढ़ना या टंकित करना सीखना मुश्किल नहीं है। और यकीन जानिए अपके द्वारा दिए गए हर तर्क का प्रत्युत्तर पहले दिया जा चुका है। उन्हें दुहराने में समय लगाने के बजाय मैं कुछ और करना ज्यादा पसंद करूँगा। अनिरुद्ध वार्ता 23:06, 14 जून 2012 (UTC) भाई अनिरुद्ध जी, हम जानते हैं कि भाषाएं बहता नीर होती हैं, हमारे चाहने से न तो वे रुकती हैं और न ही अपनी दिशा तय करती हैं. अपना रास्‍ता खुद बना लेती हैं. जो हिंदी (गद्य) हम लिख रहे हैं, उसका इतिहास डेढ सौ साल से पुराना नहीं है. इसी तरह भाषाओं का भविष्‍य भी निर्धारित नहीं होता. जो भाषाएं कृत्रिम हो जाती हैं, वे ठहरे हुए पानी की तरह सड जाती हैं, मर जाती हैं. संस्‍कृत इसका बडा उदाहरण है. हिंदी से प्रेम मुझे भी है, लेकिन अंध-प्रेम नहीं. आपने खुद कहा कि पिछली बहस के दौरान आपने खुद नागरी अंक सीखें. अब सोचिए कि पढे-लिखे लोगों को जो चीज प्रयास करके सीखनी पडे, उसे सहज कैसे कहा जा सकता है! मेरी समझ से विकिपीडिया सिर्फ उच्‍च अध्‍ययन किये हुए लोगों के लिए नहीं, ज्ञान और सूचनाओं का एक जनमाध्‍यम है, इसलिए इसका लोकतांत्रीकरण जरूरी है. और भाई, सुविधा का तर्क भी महत्‍वपूर्ण होता है. भाषाविज्ञान की एक शाखा ऐतिहासिक भाषा विज्ञान में इस बात के प्रमाण मिल जायेंगे कि भाषाओं के बदलने में सुविधा के तर्क की कितनी भूमिका रही है. कुछ लोगों ने कंप्‍यूटर को संगणक कहने की खूब कोशिश की, लेकिन चल नहीं पाया. जब कंप्‍यूटर सभी लोग समझते हैं, टाइप सभी लोग समझते हैं तो ऐसे आमफहम शब्‍दों से हम परहेज क्‍यों करें? मेरा निवेदन यही है कि हम चाहे भाषा को जितना बांधने की कोशिश कर लें, वह अपना रास्‍ता खुद बना लेगी. गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 04:42, 15 जून 2012 (UTC) गंगा सहाय जी, संस्कृत अकेले नहीं मरी, हजारों भाषाएँ मर चुकी हैं और रोज-रोज मर रही हैं। आपके सिद्धान्त से पालि 'बहता हुआ नीर' रहा होगा, वह क्यों मरी? लैटिन क्यों मरी? यह सरासर 'सरलीकरण' है कि संस्कृत की मृत्यु 'कृत्रिम' होने के कारण हुई। इसके विपरीत यह निश्चित है कि किसी चीज का 'अप्रयोग' या उपेक्षा उसकी मृत्यु का कारण बनती है। चीनी आदि लिपियाँ जो इतनी कठिन होने के बावजूद जीवित हैं तो इसका कारण है कि वे लोग इसको मजबूती के साथ थामे हुए हैं। जबकि भारत की प्राचीन लिपियाँ और अभी हाल तक प्रयुक्त कैथी, मोदी आदि लिपियाँ मर गयीं। देवनागरी अंक भी मर जाएंगे। और यदि 'बहता नीर' का तर्क सही है तो आपका प्रश्न ही गलत है। तब तो किसी को भाषा और लिपि के बारे में विचारने या उसके किसी प्रकार के मानकीकरन की जरूरत ही नहीं है। 'भाषा बहता नीर' है इसलिये 'पूर्ण विराम' लिखा जाय, 'फुल स्टॉप' लिखा जाय या स्लैश लिखा जाय - इस पर विचार करना - सब इस पर बाँध बांधने जैसे ही हैं।-- अनुनाद सिंहवार्ता 05:17, 15 जून 2012 (UTC) गंगा सहाय जी, आप माईक्रोसोफ्ट के द्वारा हिन्दी टंकन कर सकते है। यह गुगल आई एम ई कि तरह कार्य करता है। परन्तु (.) के स्थान पर (।) पुर्ण विराम आ जाता है। इसके अलावा मैंने हंस पत्रिका का मुख्य पृष्ठ खोला परन्तु उसमें भी (।) का ही उपयोग किया गया है। मैने किसी भी हिन्दी पुस्तक में (.) का उपयोग नही देखा है। -- आनन्द विवेक सतपथी वार्ता 09:29, 15 जून 2012 (UTC) भाई आनंद विवेक जी, पूर्ण विराम की बात से कुछ देर के लिए सहमत हुआ जा सकता है लेकिन अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों के स्‍थान पर देवनागरी अंकों को थोपने से सहमत होना मुश्किल है। अगर आप सोचते हैं कि आपने अभी जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय पृष्‍ठ में अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों को देवनागरी अंकों में बदलकर हिंदी के हित में काम किया है, तो मैं कहूंगा कि यह काफी भ्रामक समझ है। आप खुद सोचिए कि विकिपीडिया किसके लिए है? इंटरनेट पर सूचनाएं देखने वालों में वे तमाम लोग भी शामिल हैं जिन्‍होंने हिन्‍दी या संस्‍कृत में उच्‍च शिक्षा नहीं प्राप्‍त की है। ये लोग देवनागरी अंक नहीं समझते। उन तमाम लोगों के लिए अंतर्राष्‍ट्रीय अंक और आसान भाषा सहायक होते हैं। जब भारत के संविधान और इस देश के लोगों को अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों से कोई समस्‍या नहीं है तो फिर आप चुनींदा लोगों का अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों के प्रति दुराग्रह का कारण समझ में नहीं आता। अगर आप लोग किताबों को अपना आदर्श मानते हैं तो फिर हिंदी के सबसे बडे प्रकाशक राजकमल, वाणी, प्रकाशन संस्‍थान, ग्रंथशिल्‍पी आदि चलिए और उनकी किताबें देखिए। अब कोई भी प्रकाशन देवनागरी अंकों का प्रयोग नहीं करता। अगर इसके बावजूद आप अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों का बहिष्‍कार करते हैं तो मैं इसे आप लोगों का व्‍यक्तिगत दुराग्रह कहूंगा जिसे आप विकिपीडिया पर थोप रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इससे विकिपीडिया और ज्ञान परंपरा का नुकसान ही होगा. गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 12:33, 15 जून 2012 (UTC) आनन्द जी इस बात का ध्यान रखें कि जब तक इस समस्या का कोई हल नहीं निकलता तब तक ऐसे बदलाव न करें। विकिपीडिया पर सर्वसम्मति बनाने के पश्चात ही ऐसे बदलाव किए जा सकते हैं। अगर लेख में पहले से अन्तराष्ट्रीय अंको का प्रयोग हुआ है तो उसे देवनागरी अंको में न बदलें। मीणा जी, बस कुछ समय का इन्तजार करें, इस समस्या का हल जल्द ही निकाला जाएगा और मापदंड निर्धारित किया जाएगा कि किन अंको का प्रयोग किया जाएय और किन का नहीं।<>< Bill william comptonTalk 13:19, 15 जून 2012 (UTC) विकिपीडिया पर यह बहस पहले भी हो चुकी है, देवनागरी लिपि में अनेक बार संशोधन किये गए हैं, लेकिन केवल इसलिए संशोधन करना कि अमुक लोगों को यह समझना कठिन होगा, यह गलत धारणा है, जो देवनागरी लिपि पढ़ना चाहेगा वह इसके नियम और व्याकरण को भी समझना चाहेगा, हम यदि इसे बार बार सरल करते रहे तो फिर एक दिन देवनागरी रह ही नहीं जायेगी, अनिरुद्ध जी तथा अनुनाद जी की बात से मैं सहमत हूँ, पूर्ण विराम के लिए फुल स्टाफ लगाना ठीक नहीं है भले ही कोई प्रकाशक या कोई पत्रिका ऐसा कर रही हो, या किसी व्यक्ति को टाइप करने में समस्या आ रही है तो उस नियम को ही सरल कर दो..... यह अनुचित है..... हाँ अन्तर्राष्ट्रीय अंकों के प्रयोग की बात पर सहमति बनाना आवश्यक है ताकि विकि पर एक जैसे अंक ही लिखे जायँ।--डा० जगदीश व्योम (वार्ता) 14:50, 15 जून 2012 (UTC) जिस तरह यह चर्चा चल रही है, उस तरह इसका अन्त होना मुश्किल है। कृपया सभी सदस्य अपना सुझाव व्यक्त करें। देवनागरी या अन्तर्राष्ट्रीय अँक में मैरे अनुसार जब तक चर्चा समाप्त नही होती इसका उपयोग सही रहेगां क्योकि इसे अन्तर्राष्ट्रीय अंक मे परिवर्तित करना (खोजें और बदलें) टुल के साथ आसान हो जाता है। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय अंक से देवनागरी अंक में परिवर्तन करने से जालपृष्ठ के पते व कुछ कोड (उदा. 200px) आदि काम नही करते है। में दोनो अंको के उपयोग से सहमत हुँ। अन्तर्राष्ट्रीय अंक का उपयोग विद्यालय के पुस्तको में भी होता है। परन्तु इसका उपयोग सभी लेखो में यदि किया जाए तो देवनागरी अंक तो विकिपीडिया से विलुप्त हो जाएगा। -- आनन्द विवेक सतपथी वार्ता 02:35, 16 जून 2012 (UTC) कई दिन से यह चर्चा देख रहा हूँ, देवनागरी लिपि की जो पहचान है यदि हम उसे धीरे धीरे सरल करने के नाम पर बदलते जायेंगे तो फिर यह भी हो सकता है कि कोई यह कहे कि देवनागरी लिपि में टाइप करने में बहुत दिक्कत आती है इसे रोमन में टाइप किया जाना चाहिये आदि आदि सबसे अधिक परेशान गंगा सहाय मीणा जी दिख रहे हैं एक मीणा जी के प्रस्ताव पर विकि से विराम और अंक बदल दीजिये और फिर दो चार प्रस्ताव और आ जायें फिर क्या होगा एक समस्या और इस पर विशेष गञ्भीरता से ध्यान देने की जरूरत है यह कि जब विकि पर देवनागरी में टाइप करते हैं तो अंक देवनागरी लिपि के अनुसार ही बनते हैअ यदि इन्हे अंग्रेजी के अंक बनाये जायें तो और ज्यादा दिक्कत आयेगी, इसलिये विकि पर देवनागरी के अंक ही रखे जायें, अनुनाद की बात देवनागरी और विकि के हित में है यहाँ वही आता है जो हिन्दी से प्रेम रखता है अन्यथा अग्रेजी विकि पर जाता है इसलिये मीणा जी विकि की चिन्ता आप न करें और इसे चलने दें वैसे भी यहाँ काम करने वालों पर आरोप लगाना एक शौक सा हो गया है--Froklin (वार्ता) 07:42, 16 जून 2012 (UTC) सम्‍मानित साथियों, पूर्णविराम के मसले पर मैं आपकी बात से सहमत हूं यानी कुछ पत्रिकाओं के प्रयोग के बावजूद खडी पाई ( । ) का प्रयोग ही ठीक है । लेकिन जहां तक अंकों का सवाल है, इस पर हम सभी को पुनर्विचार करना चाहिए। जिन्‍हें हम बाहरी अंक कहकर खारिज कर रहे हैं, वे भारतीय संविधान के अनुसार (और कुछ लोगों के अनुसार जवाहरलाल नेहरू की पुस्‍तक 'डिस्‍कवरी ऑफ इंडिया' के अनुसार) भारतीय अंकों का अंतर्राष्‍ट्रीय रूप है। यानी ये अंक विदेशी नहीं, हमारे ही हैं। इनके प्रयोग के संदर्भ में सबसे प्रामाणिक स्रोत भारतीय संविधान, हिंदी पुस्‍तकें, हिंदी माध्‍यम की शिक्षा प्रणाली और पाठ्य-पुस्‍तकें, हिंदी समाचार-पत्र, हिंदी संदर्भ-ग्रंथ आदि ही होने चाहिए, न कि विकिपीडिया के चुनींदा सदस्‍य और उनकी राय। अंकों के किसी रूप के प्रयोग से मुझे कोई व्‍यक्तिगत फायदा या नुकसान नहीं होगा, मेरी चिंता विकि पाठकों को लेकर है। विकि ने आप पाठकों को भी योगदान और संपादन का अधिकार अपने लोकतांत्रिक स्‍वरूप के कारण दिया है, आशा है अंकों के मामले में भी इसका पालन किया जाएगा. गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 07:55, 16 जून 2012 (UTC) गंगा सहाय जी, आप जिस संविधान की बात कर रहे हैं उसी ने कहा था कि १५ वर्ष बाद हिन्दी भारत की राजभाषा होगी और अंग्रेजी को यहाँ से पूर्णतः बिदा कर दिया जायेगा। उसका क्या हुआ? आप जिन हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की बात कर रहे हैं वे 'हिन्दी पत्र' हैं जो एक पृष्ट अंग्रेजी में निकालने लगे हैं। भारत का हिन्दी सिनेमा और उसके 'कलाकार' हिन्दी नहीं बोलते। क्या हम उनकी नकल करेंगे। क्या वे हमारे आदर्श होंगे? भारत के हर गली में हर विद्यालय 'इंग्लिश मिडियम' हो गया है। हम 'हिन्दी विकि' ही क्यों बनाएँ? क्या हमे अंग्रेजी विकि को ही और अधिक समृद्ध नहीं बनना चाहिये? सब अंग्रेजी मे पढ़ रहे हैं। ये हिन्दी कौन पढ़ेगा? भैया, हर चीज की योजनापूर्वक रक्षा करनी पड़ती है। उसके लिये लड़ना पड़ता है नहीं तो पलक झपकाते ही लोग उसे मार डालेंगे। भारतीय बच्चों को 'देवनागरी अंक' नहीं सिखाये जाते। रोमन अंक और उसका 'गणित' पाठ्यक्रम में है। यूरोप ने इस अवैज्ञानिक अंक प्रणाली को अभी तक विदा नहीं किया। यह तो रोमन अंक प्रणाली की पंगुता है कि उसकी सहायता से जोड़-घटाना और कोई गणित नहीं हो सकता जिसके कारण वे 'सहर्ष' दाशमिक अंक प्रयोग करते हैं। यह सही है कि भारतीय अंकों से ही अंतरराष्ट्रीय अंक व्युत्पन्न हुए हैं। इससे तो हमारे मूल अंकों की रक्षा करना और जरूरी हो जाता है। हिन्दी विकि तनकर खड़ा हो और घोषणा करे कि हम देवनागरी अंकों का ही प्रयोग करेंगे। हम किसी की अंधी नकल नहीं करेंगे। हमारी नकल करना शुरू करो।-- अनुनाद सिंहवार्ता 15:03, 16 जून 2012 (UTC) अतिशय किसी भी रूप में निषिद्ध है। वह नकारात्मक अभिवृत्ति को दर्शाता है, चाहे समर्थकों का हो चाहे आलोचकों का। जो हिंदी ज्ञानकोष की वास्तव में बेहतरी चाहता है उसके लिए पहली प्राथमिकता किसी भी रूप में सामग्री सहेजने और उसके गुणात्मक स्तर में यथाज्ञान वृद्धि की होनी चाहिए। देवनागरी के अंकों को अंतरराष्ट्रीय अंको से परिवर्तित करने के लिए संबद्ध समर्थकों द्वारा जिस क्रांतिकारी आकुलता और पैगंबरी आत्मविश्वास का प्रदर्शन किया जा रहा है, उस प्रक्रिया में वे जितने तर्क जुटा सकते हैं उससे कई गुणा बेहतर तर्क समर्थन में पहले से मौजूद हैं। देवनागरी पढ़ने, लिखने या समझने में जिनको समस्या है उनकी कई अन्य वर्तनीगत समस्यायें भी हैं। यह उनके चौपाल पर किये गये संवादों की भाषा और वर्तनी से ही जाना जा सकता है। किंतु यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना उनका संपादन योगदान। अतः इस पर बहस करने से बेहतर है कि लेख निर्माण और संपादन की रचनात्मक प्रक्रिया को जारी रखा जाय। और संविधान की बात क्या कीजै! संशोधन की संभावना तो वहाँ भी है और यहाँ भी। निर्माण नहीं तो संशोधन ही करें। यथासंभव सकारात्मक करें क्योंकि नकारात्मक संशोधन से संविधान का ही मूल स्वरूप खण्डित होता है। ज्ञान पर किसी की मिल्कियत नहीं होती इसलिए न कोई आगे चलेगा न पीछे। इच्छा हो तो साथ दें आवश्यकता हो तो साथ लें। साथी भाव से ही बेहतरी संभव है। न पैगंबर बनें न ही अनुयायियों का आह्वान करें। -- अजीत कुमार तिवारी वार्ता 15:48, 16 जून 2012 (UTC) [संपादित करें]१ साथियों, मैंने विकिपीडिया के हित में एक जरूर सवाल उठाया था, लेकिन यहां निराशा ही हाथ लगी। काफी सदस्‍यों के पूर्वाग्रह सामने आ चुके हैं, मुमकिन है कुछ और लोगों के भी आएं। अंकों के मुद्दे पर मैं अंतिम रूप से निम्‍न बिंदुओं के माध्‍यम से अपना पक्ष रखना चाहता हूं. हिंदी विकिपीडिया मुख्‍य रूप से हिंदी समझने वाले तमाम पाठकों के लिए है, न कि मात्र हिंदी में उच्‍च शिक्षित लोगों के लिए, इसलिए भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग किया जाना चाहिए। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हिंदी में साक्षर लोगों में भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप को लगभग 100 प्रतिशत लोग समझते होंगे, जबकि देवनागरी रूप को 5 प्रतिशत से अधिक लोग नहीं समझते। आपका दावा निराधार और कल्पित है। भारत के हिंदी भाषी अधिकांश क्षेत्रों में गाँव की पाठशाला में आज भी बच्चों के शिक्षा की शुरुआत नागरी अंक के साथ होती है। अनिरुद्ध वार्ता 23:21, 16 जून 2012 (UTC) अनिरुद्ध जी, आप शायद भूल रहें हैं कि विकिपीडिया गाँव की पाठशालाओं में पढ़ रहें बच्चों से ज्यादा शहर में रहने वाली, अन्तराष्ट्रीय अंको को समझने वाली, जनता द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। विकिपीडिया का लगभग सारा का सारा ट्रेफिक शहरों से ही आता है।<>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) अंकों के जिस रूप के प्रयोग की मैं बात कर रहा हूं, वे रोमन नहीं, (भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 343 के अनुसार) भारतीय अंकों का अंतर्राष्‍ट्रीय रूप है, इसलिए उनका प्रयोग किया जाना चाहिए। (अनुनाद जी और तिवारी जी, भारतीय संविधान में अभी इस मामले में कोई संशोधन नहीं हुआ है) आपने यह भी तो पढ़ा होगा कि भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने संविधान के लागू होने के ५ वर्ष बाद ही नागरी अंक के प्रयोग का अध्यादेश जारी किया था। हिंदी भाषा के इतिहास को थोड़ा स्वतंत्रोत्तर भाषायी राजनीति वाला अध्याय भी पढ़िए। अनिरुद्ध वार्ता 23:26, 16 जून 2012 (UTC) आप शायद भूल रहें हैं कि किसी राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश ज़ारी करने से सविधान नहीं बदलता। संसदीय लोकतंत्र की कार्यप्रणाली से तो आप परिचित होंगे ही।<>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) भारत में हिंदी माध्‍यम के विद्यालयों में (अंग्रेजी माध्‍यम के स्‍कूलों की बात नहीं कर रहा, इसलिए कृपया अनुनाद जी गुमराह न हों और न दूसरों को करें) यही अंक प्रयोग में लाये जाते हैं। यानी ये हिंदीभाषी समुदाय के सहज विवेक का हिस्‍सा हैं, इसलिए विकिपीडिया पर भी इनका प्रयोग होना चाहिए। यह भी अधूरा सत्य है। तमाम कोशिश के बावजूद केवल हिंदी जानने वाले गाँवों के बच्चे और बड़े नागरी अंक समझते और प्रयोग करते हैं। हाँ नागरी अंक से परिचित होने के बावजूद शहरों के बुद्धिजीवियों को इसके प्रयोग करने में जरूर अनेक बाधाएं नजर आती है। और अपने ही रूप को युगल दर्पण में देखकर वे स्वयं को इतना विराट समझ लेते हैं कि देहातों का सच या तो देख नहीं पाते या मामूली मान लेते हैं। अनिरुद्ध वार्ता 23:32, 16 जून 2012 (UTC) हिंदी माध्‍यम की शिक्षा में पहली कक्षा से पीएच.डी. तक की पाठ्य पुस्‍तकों में इन्‍हीं अंकों का प्रयोग होता है, अतः विकिपीडिया पर भी इनका प्रयोग उचित होगा। इन पाठ्यपुस्तक के भाषिक स्वरूप पर अंतिम निर्णय थोपने वाले वकीलों और राजनितिज्ञों के हिंदी और ज्ञान के प्रति स्नेह से मैं परिचित हूँ। ऐसे निर्णयों के दर्ज न हुए प्रतिरोध को भी जानता हूँ और नागरी अंकों के संरक्षण के लिए उठाए गए कदमों को भी। फिर कह रहा हूँ। चौपाल के पुराने पृष्ठ देखिए। हाल में भाषा संबंधी जारी हुए फतबे पर भी हम चर्चा कर चुके हैं और उसे खारिज कर चुके हैं। आप यह दावा भी कर दें कि परास्नातक बल्कि परास्नातक तक आपने नागरि अंक की हिंदी की किताब पाठ्यपुस्तक के रूप में नहीं पढ़ी तो इसे कोइ भी हिंदी से स्नातक करने वाला विद्यार्थी आपकी सीमा ही मानेगा। हाँ विज्ञान के छात्रों के लिए यह बात ठीक है। किंतु तब जो ठीक है उसे मानना हिंदी विकिया के अस्तित्व के लिए ही ठीक नहीं है। अनिरुद्ध वार्ता 23:50, 16 जून 2012 (UTC) यह तर्क तो बिल्कुल ही निराधार है। परास्नातक और परास्नातक से ज्यादा विकिपीडिया स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। अगर स्नातक वाले छात्र ने कभी देवनागरी इंक पढ़े होंगे तो इसका मतलब यह नहीं है कि विकिपीडिया अपने मुख्य पाठकों से मुंह फेर ले।<>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) हिंदी के छोटे से लेकर बडे प्रकाशकों की पुस्‍तकों और संदर्भ ग्रंथों में इन्‍हीं अंकों का प्रयोग होता है, इसलिए विकिपीडिया पर भी इनका प्रयोग होना चाहिए। हिंदी के सबसे बडे प्रकाशकों में राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, राधाकृष्‍ण प्रकाशन, नेशनल बुक ट्रस्‍ट (सरकारी), प्रकाशन विभाग भारत सरकार, ग्रंथशिल्‍पी, शिल्‍पायन, साहित्‍य अकादमी (सरकारी), प्रकाशन संस्‍थान आदि हैं और सभी भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग करते हैं। ये विकि नीति है कि किसी भी बात की सत्‍यता जांचने के लिए संबंधित किताबों और संदर्भ ग्रंथों को प्रामाणिक माना जाता है। फिर इस संदर्भ में इस नीति का पालन क्‍यों नहीं किया जा रहा? हिंदी की साहित्यिक संस्‍थाओं- साहित्‍य अकादमी, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्‍कृति मंच आदि में भी भारतीय अंकों का अंतर्राष्‍ट्रीय रूप प्रयुक्‍त होता है, इसलिए विकिपीडिया पर भी अपेक्षित है। जाँचनी ही है तो आज की ही क्यों पिछले सौ वर्षों की महावीर प्रसाद द्वीवेदी, प्रेमचंद, शुक्ल, प्रसाद, द्विवेदी के दौर की किताबें भी जाँचिए। साहस हो तो भारतेंदु और उससे पहले के दौर की किताबों का भी जिक्र कीजिए। आधुनिक काल से पहले के नागरि लिपि और उसके अंक की भी चर्चा चलाइए। नागरी लिपि और अंक पिछले ५0 या सौ वर्षों की सीमाओं से परे की अर्जित संपत्ति हैं। और हिंदी की संस्थाओं में काशी नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी साहित्य सभा की पहले की किताबें और गतिविधियाँ देखिए। और मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि तब का समाज हिंदी के प्रयोग और प्रसार के प्रति जितना चिंतित था उनकी अपेक्षा आपके द्वारा गिनाए गए प्रकाशक और संस्थाएं आज व्यवसायिक अधिक हैं या हिंदी की हिताकांक्षी इसे आप भी बखूबी समझते होंगें। प्रकाशन विभाग की कुछ तकनीकि समस्याएं भी हैं और कुछ मनौवैज्ञानिक और आर्थिक भी। विकिया हिंदी प्रयोक्ताओं को अनुदान, राजनितिक संरक्षण, या विवेकहीन कानूनों को अपनाने की जरूरत नहीं है। अनिरुद्ध वार्ता 23:58, 16 जून 2012 (UTC) आप फिर गलत तर्क दें रहें हैं, विकिपीडिया आधुनिक समय का ज्ञानकोष है। सौ वर्ष पुराने लेखों व किताबों से इसका कोई वास्ता नहीं। यह आधुनिक समय में प्रयोग में लाए जाने वाली भाषा में लिखा जाता है न कि अब उपयोग से बहार हो चुके भाषा के पुराने व अल्पसंख्यक स्वरूप में।<>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) हिंदी के सबसे बडे समाचार पत्रों- दैनिक जागरण, दैनिक भास्‍कर, हिंदुस्‍तान, नवभारत टाइम्‍स, जनसत्‍ता (साहित्‍य समाज में सम्‍मानित), राष्‍ट्रीय सहारा, राजस्‍थान पत्रिका, अमर उजाला आदि सभी में भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग होता है। इन सभी अखबारों की पाठक संख्‍या प्रति अखबार एक करोड से अधिक है, इसलिए यह झूठी बात कहकर इन्‍हें खारिज करने की कोशिश न की जाए कि ये अपना एक पृष्‍ठ अंग्रेजी में निकालते हैं। ये सभी शुद्ध रूप से हिंदी के अखबार हैं और इनमें समाचारों के अलावा विचारों के लिए भी एक या दो पृष्‍ठ होते हैं। जनसत्‍ता की प्रसार संख्‍या कम है लेकिन वह हिंदी साहित्‍य जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठित अखबार है और भाषा व साहित्‍य के मसलों पर सर्वाधिक संवेदनशील। आपके द्वारा गिनाए गए अखबारों की नागरी लिपि और हिंदी भाषा के प्रति संवेदनशीलता का रहस्य उनके पन्ने पलटते ही प्रचलित हिंदी शब्दों के बदले भी अंग्रेजी शब्दों की भरमार के साथ स्पष्ट हो जाते हैं। संवेदनशीलता का तमगा लगाना और प्रदान करना दूसरी बात है और वास्तव में संवेदनशील होना और बात। और एक बात और भारत के हजारों गाँवों तक करोड़ों प्रतियाँ छापने वाले इनमें से एक भी अख़बार की पहुँच नहीं है। जहाँ के लोग अंतर्राष्ट्रीय अंक जानते हैं और नागरी अंक के साथ जीते हैं। वे छत्तीस का रिश्ता बनाते हैं जिसे अंग्रेजी अंक 36 कभी समझा सकता है क्या? ४ को मोटरिया, ५ को खड़उँआ, ६ को उल्टीवा और ७ को घुड़मुड़िवा कहकर विराट लग रहे अखबारों के अंक तो नहीं सीखे जा रहे हैं। अनिरुद्ध वार्ता 00:14, 17 जून 2012 (UTC) यहीं समाचारपत्र अब हिन्दी जानने वालो द्वारा प्रयोग में लाए जाते हैं। और इन्होंने अपने को समय अनुसार बदल लिया है, ये समझ चुके हैं कि भाषा के बदलते स्वरूप के साथ इन्हें भी बदलना पड़ेगा क्योंकि अगर इन्होंने इस बात को नजरअंदाज करा तो इन्हें लोग पढ़ना ही बद कर देंगे। आप यह क्यों नहीं सोचते कि जब जनता खुद ही देवनागरी अंको को पढ़ना नहीं चाहती तो हम क्यों उन पे देवनागरी अंक थोप रहें हैं और इसका सबसे बड़ा सबूत है समाचारपत्रों का देवनागरी अंको को त्याग के अन्तराष्ट्रीय अंको को अपनाना क्योंकि समाचारपत्र भाषा के सबसे नवीनतम व सबसे ज्यादा समझे जाने वाले स्वरूप को प्रयोग में लाते हैं। आप बार-बार गाँवों पर क्यों जाके अटक जाते हैं? विकिपीडिया शहरी आबादी द्वारा प्प्रयोग में लाया जाता है न कि आपकी गाँव की जनता द्वारा। जिस प्रकार आपने यह तर्क दिया कि ये अखबार गाँवों तक पहुँचते ही नहीं तो आप यह कैसे भूल गए कि विकिपीडिया का तो वहाँ पहुँचना और भी मुश्किल है। जहाँ बिजली नहीं, कंप्यूटर नहीं, इंटरनेट नहीं, पढ़ी-लिखी आबादी बहुत कम, आदि आप बार-बार उनकी क्यों दुहाई देते हैं? जब वो सस्ता सा अखबार नहीं पढ़ सकते तो क्या वो कप्यूटर पर इंटरनेट चला के विकिपीडिया के लेख पढ़ेंगे? अव्यवहारिक बात न करें।<>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) भारत सरकार के सरकारी दस्‍तावेजों में भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग होता है। यह बात इसलिए महत्‍वपूर्ण है कि आम आदमी से सरकार तक केवल भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों का प्रचलन है। भारत सरकार के कार्यालयों में अंतर्राष्ट्रीय कहे जाने वाले अंक का ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय कही जाने वाली भाषा अंग्रेजी का भी शत प्रतिशत प्रचलन है। जवाहर लाल नेहरु युनिवर्सिटि में भी और दिल्ली विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग में भी। जेएनयु में तो हिंदी शोध-ग्रंथ के पृष्ठ पर भी डिक्लरेशन अंग्रेजी में ही लिखवाया जाता है। शोध विषय अंग्रेजी के ही प्रमाणिक माने जाते हैं। यह आपकी नजर में हिंदी प्रेम होगा। मुझे इनके आधार पर निर्णय लेने में गंभीर आपत्ति है। मेरी समझ में नहीं आता है कि ऊपर से नीचे तक कार्यालयों में प्रचलित अंग्रेजी से कुछ लोग केवल अंक ही क्यों चुनते हैं। शायद इसलिए की काली मिर्च में पपीते के बीज मिला दो। पता भी नहीं चलेगा की कब धोखा कर दिया। अनिरुद्ध वार्ता 00:25, 17 जून 2012 (UTC) समाज बदल गया है और बदल रहाँ है आप बदलते हैं या नहीं यह आपकी कमी है। आप इसे पपीते के बीज बोलें या कुछ और सचाई यही है कि आप जिस हिन्दी की अगुवाई करते हैं उसे तो अब देश की सरकार प्रयोग में लाना पसंद नहीं करती जहाँ हिन्दी समझी जाती है, केवल जहाँ उसका अस्तित्व है।<>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) विकिपीडिया के वरिष्‍ठ सदस्‍यों का यह कहना दुखद है कि जिसको देवनागरी अंकों से दिक्‍कत है, वे अंग्रेजी विकिपीडिया पर जाए। क्‍या सिर्फ भारतीय अंकों का अंतर्राष्‍ट्रीय रूप आ जाने से (जो कि हिंदी माध्‍यम की हर पाठशाला में सिखाया जाता है) क्‍या कोई अंग्रेजी पढने लगेगा? यह बात समझनी चाहिए कि ये अंक भारतीय ज्ञान परंपरा का अनिवार्य हिस्‍सा है। इनको अंग्रेजी से जोडना पूर्वाग्रह होगा। सभी महत्‍वपूर्ण हिंदी वेबसाइटें- बीबीसी हिंदी, केन्‍द्रीय हिंदी निदेशालय, केन्‍द्रीय हिंदी संस्‍थान, राजभाषा विभाग आदि भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग करती हैं, इसलिए विकिपीडिया पर भी यही अंक प्रयुक्‍त होने चाहिए। हम भी अंतर्राष्ट्रीय अंक को नागरी का व्युत्पन्न और भारतीय ज्ञान परंपरा से आया हुआ जानते हैं। और और अनुनाद जी के शब्दों में इसिलिए इनका संरक्षण और प्रयोग और भी जरूरी समझते हैं। हिंदी वेवसाइटों के निर्माताओं के साथ अपनी तकनीकि समस्याएं हैं। पूर्ण विराम टंकित करना नहीं आता। कोइ बात नहीं फुलस्टॉप से काम चलाओ। नागरी अंक के बारे में तो सोंचने की जरूरत भी नहीं है। अंग्रेजी की-बोर्ड के अंक हैं ही। वे अंतर्राष्ट्रीय कहे भी जाते हैं और प्रचलित भी हैं। विकिया के प्रयोक्ताओं ने मेहनत कर नागरी अंकों के प्रयोग का समाधान निकाल लिया है। वे उनसे आगे बढ़ चुके हैं। अंतर्राष्ट्रीय अंकों के प्रयोग का निर्णय पश्चगामी कदम होगा। थोड़ा इंतजार कीजिए। अभी तो औरों को हिंदी विकिया पर गर्व है॥ जल्द ही वे इसका अनुकरण भी करेंगें। और इसका संदर्भ के रूप में प्रयोग भी करेंगें। अनिरुद्ध वार्ता 00:33, 17 जून 2012 (UTC) विकिपीडिया कोई संग्रहालय नहीं है कि आप यहाँ बैठके भाषा संरक्षण करें। और आप शायद विकिपीडिया का मूल उद्देश्य ही भूल गए हैं, जिमी वेल्स भी इस बात को कई बार दोहरा चुके हैं कि विकिपीडिया भाषा संरक्षण के लिए नहीं अपितु ज्ञान के प्रसार के लिए है।<>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) हिंदी की सभी बडी साहित्यिक, गैर-साहित्यिक (समाचार विश्‍लेषण, विचार विश्‍लेषण वाली) पत्रिकाओं में भारतीय अंकों का अंतर्राष्‍ट्रीय रूप प्रयुक्‍त होता है, इसलिए विकिपीडिया पर भी होना चाहिए। हिंदी गद्य के उद्भव से ही उसे रूप और आकार देने में साहित्यिक पत्रिकाओं की सबसे अहम भूमिका रही है। हिंदी गद्य के उद्भव से ही उसे रूप और आकार देने वाली पत्र-पत्रिकाओं ने २00 वर्षों तक नागरी अंक का ही प्रयोग किया है। और कुछ क्षेत्रों में आज भी कर रहे हैं। कालांतर में नागरी अंक का प्रयोग करने वाली पत्रिकाएं मिटती गईं और आज विकसित हिंदी की बहती गंगा से अपना स्वीमिंग पुल बनाने वाले अंग्रेजी भाषी मालिकों के हिंदी भाषी कर्मचारी बाध्य होकर या अनजाने में उस विरासत को मिटाने में लगे हैं। अनिरुद्ध वार्ता 00:41, 17 जून 2012 (UTC) उत्तर पहले भी दिया जा चुका है परन्तु फिर एक बार बता देता हूँ कि विकिपीडिया वर्तमान पे जीता है न कि आपके 200 वर्ष पहले के इतिहास में। अब चाहे इसे आप स्वीमिंग समझे या जकूज़ी। <>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) विश्‍वविद्यालयों के हिंदी प्रकाशनों में भी भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग होता है, उदाहरण के लिए इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय की पाठ्य सामग्री देखी जा सकती है। इसलिए विकिपीडिया पर भी भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग अपेक्षित है। मैं गत साढे सात वर्षों से देश के प्रतिष्ठित केन्‍द्रीय विश्‍वविद्यालयों (दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय, पांडिचेरी विश्‍वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय) में हिंदी भाषा व साहित्‍य का अध्‍यापन कर रहा हूं इसलिए पूरी जिम्‍मेदारी के साथ कह सकता हूं कि सभी जगह (अकादमिक और गैर-अकादमिक जगत में) भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रचलन है, इसलिए विकिपीडिया पर भी उनके प्रयोग में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से संबद्ध होना और हिंदी भाषा-साहित्य का अध्यापन यदि हिंदी और नागरी अंक संबंधी निर्णय के लिए कोइ कसौटी है तो भी मेरा नागरिक अंक का समर्थन करना पर्याप्त होना चाहिए। और इस आधार पर यदि कोइ दावा किया जाता है तो भी नागरी अंक के प्रचलन का दावा मेरे नाम के साथजोड़कर मान लेना चाहिए। अनिरुद्ध वार्ता 00:55, 17 जून 2012 (UTC) विकिपीडिया की नीति है कि यहां सदस्‍यों की व्‍यक्तिगत राय के बजाय समाज में प्रचलित राय को पूरी निष्‍पक्षता से स्‍थान दिया जाता है। उपर्युक्‍त सभी प्रमाण समाज में प्रचलित राय के हैं जो एक ही निष्‍कर्ष पर पहुंचते हैं इसलिए विकिपीडिया पर भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग होना चाहिए। विकिपीडिया की स्‍पष्‍ट नीति है कि जहाँ तक हो सके सभी लेखों को निष्पक्ष दृष्टि से लिखिये (Neutral Point of View -पक्षपात रहित दृष्टिकोण)। लेख राष्ट्रवादी, पक्षपातपूर्ण अथवा घृणा आधारित नही होना चाहिये। लेख तथ्यों पर आधारित होना चाहिये। साथी सदस्‍यों के उपर्युक्‍त मत उनके इस पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं, उदाहरणार्थ- हमारे मूल अंकों की रक्षा करना और जरूरी हो जाता है। हिन्दी विकि तनकर खड़ा हो और घोषणा करे कि हम देवनागरी अंकों का ही प्रयोग करेंगे। हम किसी की अंधी नकल नहीं करेंगे। (अनुनाद सिंह)। ऐसी पक्षपातपूर्ण धारणा रखने वाले साथियों को समझना चाहिए कि विकिपीडिया एक सुलभ ज्ञानस्रोत है, अपनी कोई जिद पूरी करने के आंदोलन का केन्‍द्र नहीं। ऐसी पक्षपातपूर्ण दृष्टि के खिलाफ विकिपीडिया की आत्‍मा की रक्षा करने के लिए भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग करना जरूरी है। हिंदी विकिपीडिया पर मात्र ढाई सौ सक्रिय स‍दस्‍य हैं (उनमें से आधे से अधिक लोगों की मातृभाषा हिंदी नहीं है, शेष में से आधे बहुत कम सक्रिय हैं) और ये हिंदीभाषी समाज और हिंदी के पाठकों की राय का किसी भी रूप में प्रतिनिधित्‍व नहीं करते। इसलिए अगर इनकी राय और बहुमत ही सर्वोपरि माना जाता है तो यह बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। इनके विचारों से साबित हो चुका है कि हिंदी भाषा के प्रति रूढ समझ रखते हैं। कल्‍पना करें कि ये इसी रूढ समझ से अपनी वैचारिक पसंद के पृष्‍ठ को रखना चाहें और विरोधी विचार के पृष्‍ठ को हटाना चाहेंगे तो भी क्‍या बहुमत के आधार पर फैसला किया जाएगा? यह दुखद है कि आम हिंदीभाषियों की विकिपीडिया तक पहुंच केवल पाठक के रूप में है, संपादक के रूप मे नहीं। उन तमाम पाठकों की राय का भी सम्‍मान होना चाहिए जो भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप में दीक्षित हैं (जैसा कि कई माननीय समस्‍यों ने भी स्‍वीकार किया है)। सर्वसुलभ ज्ञानकोश बनाने की ज़िद ही विकिपीडिया है। और आज यह एक आंदोलन भी है। अंग्रेजी को ही आप्त मानते हों तो विकिपीडिया मूवमेंट गूगल कीजिए। सचमुच कुछ सक्रिय सदस्यों की नागरी अंक के प्रयोग की राय करोड़ों हिंदीभाषियों का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। ऐसे में कुछ कभी-कभी सक्रीय हुए सदस्यों की राय के प्रतिनिधि होने के तर्क का क्या कहना? और नागरी का समर्थन कर रहे सदस्य कल्पना लोक में चाहे जितने खतरनाक हो जाएं व्यवहारतः उन्होंने जितना काम किया है उसके प्रति मैं श्रद्धानत हूँ। और अंतर्राष्ट्रीय अंक का समर्थन और विकिया पर संपादन सभी आम लोग ही कर रहे हैं। यह किसी के भी संपादन के लिए प्रतिबंधित नहीं है। हम हर नए सदस्य के सकारात्मक कार्य का स्वागत करने और मुश्किल आने पर सहयोग के लिए बेताब हैं। शायद आप भूल रहे हैं कि प्रेमचंद का सुरक्षित पृष्ठ आग्रह के तत्काल बाद सभी के संपादन के लिए खोला गया है। अनिरुद्ध वार्ता 01:14, 17 जून 2012 (UTC) तो क्या आपकी राय करोड़ों हिंदीभाषियों का प्रतिनिधित्व करती है? आप शायद यह नहीं जानते कि विकिपीडिया विकिपीडिया सम्पादकों की सर्वसम्मति पे ही चलता है। आप पता नहीं कहाँ से करोडों लोगों को उठा लाते हैं, जब बात यह कहो कि आम जनता अन्तराष्ट्रीय अंको का प्रयोग करती है तो आप भाषा संरक्षण को बीच में ले आते हैं। पता नहीं आपका तर्क एक जगह क्यों नहीं रहता और बार-बार तथ्य के अनुसार डगमगा जाता है।<>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) विकिपीडिया किसी व्‍यक्ति या समूह की जागीर नहीं कि वह अपनी दमित इच्‍छाओं को यहां पूरा करे। इसके लिए वे स्‍वतंत्र पुस्‍तक लिख सकते हैं जिसमें मनचाहे अंकों का इस्‍तेमाल करें। अगर पुस्‍तक अनुकूल लगी तो पाठक उसके पास जायेंगे, नहीं तो नकार देंगे। विकिपीडिया एक लोकतांत्रिक जनमाध्‍यम है जिसकी नीति में व्‍यक्तिगत विचारों के लिए कोई जगह नहीं है। यहां ज्ञान का वही रूप अपेक्षित है जो जनता के बीच प्रचलित हो। चूंकि जनता के बीच (जैसा कि कई माननीय सदस्‍यों ने भी स्‍वीकार किया) भारतीय अंकों का अंतर्राष्‍ट्रीय रूप प्रचलित है, इसलिए यहां भी उसी का प्रयोग किया जाना चाहिए। मेरे द्वारा ऊपर रखे गए बिंदुओं की सत्‍यता की जांच आप विभिन्‍न स्रोतों से कर सकते हैं। अगर इनके तर्कपूर्ण जवाब माननीय सदस्‍यों के पास हैं और वे हिंदी विकिपीडिया को आम पाठक से दूर करना चाहते हैं तो देवनागरी अंकों को थोपने के लिए वे स्‍वतंत्र हैं। मैं जिस उत्‍साह से हिंदी विकिपीडिया से जुडा था, उसने ही दुख के साथ इसे छोड दूंगा। धन्‍यवाद! इति! गंगा सहाय मीणा (Ganga Sahay Meena) (वार्ता) 18:54, 16 जून 2012 (UTC) यह हिंदी के पाठकों के प्रति गंभीर चिंता का ही परिणाम था की इससे भी तीखे बहसों और असहमतियों के बावजूद बहुत से सदस्यों ने हिंदी विकिया आंदोलन का लगातार साथ निभाया। आपके लिए शायद यह समझना अभी बाकी है कि हिंदी विकिया पर सामग्री जोड़ना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और शेष मुद्दे इतना महत्व नहीं रखते कि इस मूल कार्य से खुद को अलग किया जाय। और यह सार्वजनिक बहस का तरीका नहीं है कि मेरी मानो तो ठीक वरना बहिष्कार करूँगा। क्योंकि यदि यही धमकी दूसरे भी दें तो क्या होगा। विकिया व्यक्ति की जागीर नहीं है। फिर किसी सामाजिक संपत्ति का बहिष्कार कोइ जिम्मेदार व्यक्ति कैसे कर सकता है? नागरी अंक के सवाल को छोड़कर आप कुछ और कीजिए। और तब आप पाएंगें कि यहाँ सहयोग की कितनी बलवती भावना है। आप नहीं जानते मगर अनुनाद जी सरीखे लोगों ने हिंदी के लिए विकिया और उससे बाहर भी जितना कार्य किया है वह आकादमीक प्रतिष्ठानों में मोटी तन्ख्वाह पाने वालों के लिए हमेशा चुनौती और शर्म का कारण बनेगा। हम आपके हर तरह के लोकतांत्रिक अधिकारों और उसके अनुरूप लिए गए निर्णय का पूरा सम्मान करेंगें। अनिरुद्ध वार्ता 01:30, 17 जून 2012 (UTC) सर्वप्रथम, मेरा अनिरुद्ध जी से अनुरोध है कि वे चर्चा के दौरान इंडेंटेशन का प्रयोग करने का कष्ट करा करें, इसके लिए आपको अपूर्ण विराम (colon) को उपयोग करना होता है। दूसरा, मेरा उनसे अनुरोध है कि वे अपने तर्को पे कायम रहें। जब बात यह होती है कि मुख्यतः हिंदीभाषी अब अन्तराष्ट्रीय अंको का प्रयोग करते हैं तो ये भाषा संरक्षण और गाँव की आबादी का अन्तराष्ट्रीय अंको का ज्ञान न होने की दुहाई करते हैं, वैसे इसका इन्होंने आजतक कोई प्रमाण तो दिया है नहीं इसलिए मैं तो यह तर्क भी स्वीकार नहीं करता (ध्यान रहें विकिपीडिया प्रमाण दिए तर्को को ही मानता है न कि आपके व्यक्तिगत अनुभव/ज्ञान को) और जब बात होती है कि विकिपीडिया समुदाय अन्तराष्ट्रीय अंको का प्रयोग करने के पक्ष में है तो ये कहते हैं कि हिंदीभाषी लोगों के लिए निर्णय हम नहीं ले सकते, वैसे इनका यह तर्क भी गलत है चूँकि विकिपीडिया चलता ही इसके सम्पादकों की सर्वसम्मति से है, और आप यही सुनना चाहते है तो हाँ विकिपीडिया के कुछ सक्रिय सदस्य ही करोडों हिंदीभाषीयों के लिए निर्णय ले सकते हैं। अब इसे चाहे विकिपीडिया की कमजोरी कहें या ताकत। वैसे हिंदीभाषी भी अन्तराष्ट्रीय अंको का ही प्रयोग करते हैं, इसलिए मुझे तो आजतक आपके तर्को की बुनियाद ही समझ नहीं आई। तीसरा, इन बातों को दिमाग से निकाल दें कि विकिपीडिया भाषा संरक्षण के लिए या गाँव की (मुख्यतः अनपढ़, बिना कम्पयूटर, इंटरनेट और बिजली की सुविधाओं वाली) जनता के लिए है। सीधे शब्दों में: विकिपीडिया का उपयोग करने वाली जनता मुख्यतः शहरी है और अन्तराष्ट्रीय अंको का प्रयोग करती है, इसलिए अपना हट छोड़ के अन्तराष्ट्रीय अंको को स्वीकार करें, धन्यवाद।<>< Bill william comptonTalk 03:21, 17 जून 2012 (UTC) बिलजी, मेरे द्वारा दिए गए तर्क की बुनियाद हिंदी माध्यम से गाँव में पढ़ा हुआ व्यक्ति ही समझ सकता है। वैसे मैने यह कभी नहीं कहा है कि गाँव के लोग अंतर्राष्ट्रीय अंक नहीं समझते। तर्क ध्यान से पढ़िए। वे इसे जानते हैं मगर नागरी का वे प्रयोग ही नहीं करते हैं बल्कि वह अंक उनके मुहावरों में है। गीतों में है। उदाहरण के लिए पिछली बातें फिर से पढ़िए। और यह बुनियादी बात समझने की कोशिश कीजिए की वाशिंगटन की सड़कों का हाल वहाँ रहने वाला ही जानता है किताबों में उसे पढ़ने और गूगल मैप से नक्सा देखने वाला नहीं। और ४-५ लोगों को प्रतिनिधी न मानने की बात मैने नहीं उठाई है। शुरुआती दिनों में मुझे आपकी राय विकिया की मूल धारणा लगी थी इसलिए दुख हुआ था। अब मैं जान चुका हूँ कि यह केवल आपकी राय है और कम-से-कम विकिया के मूल संकल्पकर्ता की नहीं। विकिया अगर भाषा संरक्षण के लिए नहीं है तो उसके २00 संस्करण की क्या जरूरत है। आपको याद होगा कि मैने मुंबई से लौटकर कुछ अनुभव साझा किए थे। और विकिया सम्मेलन की बुनियाद ही इसी पर अवलंबित थी कि कैसे विकिया अंग्रेजी से इतर भाषाओं में आगे बढ़े और गाँवों के लोगों तक पहुँचे। वरना लंदन में बैठकर भारत के हिंदी भाषी शहरी क्षेत्रों के लिए काम करने का और क्या औचित्य हो सकता है। शहरी क्षेत्र के और विश्वविद्यालय के लोग बखूबी अंग्रेजी जानते हैं और उनके लिए हिंदी विकिया की जरूरत नहीं है। मुझे भी जितनी मदद अंग्रेजी विकिया से मिली है हिंदी से नहीं मिली है। अपनी धारणा बदलिए। मोबाइल के साथ अंतर्जाल और विकिया गाँव तक पहुँचने लगी है। और हिंदी विकिया का लक्ष्य पाठक वे ही लोग हैं या हो सकते हैं जो केवल हिंदी जानते हैं। मेरी समझ में नहीं आता है कि आप अंतर्राष्ट्रीय अंक के प्रति इतनी आतुरता क्यों दिखा रहे हैं। आपके और मेरे आने से भी पहले से विकिया पर काम करने वालों ने नागरी अंक अपनाया है। मैं उनकी अनुपस्थिति में अपने मन की करने की कोशिश सफल नहीं होने दूँगा। और यदि ५-६ व्यक्ति प्रतिनिधि हैं तो फिर नागरी अंक के पक्ष में वर्षों पहले निर्णय लिया जा चुका है। उसकी पुनर्पुष्टि भी हुई है। रोज रोज एक ही बात पर बहस करने की क्या जरूरत है? या आपके मत से जब भी कोइ एक व्यक्ति आकर आपके मन की बात रखेगा। चुनाव प्रक्रिया शुरु हो जाएगी? हो सकता है आपको अंक समझने में दिक्कत होती हो। लेकिन हिंदी विकिया के लक्ष्य पाठक आप जैसे लोग तो नहीं हो सकते। अनिरुद्ध वार्ता 04:23, 17 जून 2012 (UTC) सबसे पहले यह बता दूँ कि विकिपीडिया पर देवनागरी अंक किसी के लिये कोई समस्या नहीं हैं। ऐसे टूल उपलब्ध हैं जो एक कुंजी दबाते ही देवनागरी अंकों को 'अन्तरराष्टीय अंकों' में बदलकर सारी सामग्री प्रदर्शित करेंगे (इसके उल्टा भी सम्भव है)। इसलिये यह मुद्दा बिल्कुल सारहीन है। जबकि भाषा, लिपि, जैवविविधता, पर्यावरण आदि का संरक्षण आज सारे विश्व में सबसे 'पवित्र' विषय बने हुए हैं। इसी सन्दर्भ में मैं बिल काम्टन से निवेदन करूँगा कि वे बताएँ कि जिमी वेल्स ने कब और कहाँ कहा/लिखा/दोहराया है कि "विकिपीडिया भाषा संरक्षण के लिए नहीं अपितु ज्ञान के प्रसार के लिए है।"-- अनुनाद सिंहवार्ता 05:04, 17 जून 2012 (UTC) विकि पर देवनागरी के अंकों को लेकर फिर से छिड़ी बहस को देखकर यही कहना चाहूँगा कि इस समय विकि पर सामग्री सहेजने की आवश्यकता है, गंगा सहाय मीणा जी एवं बिल जी इस मूल मुद्दे से हटकर विकि से जुड़ स्वयं सेवी सदस्यों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं, अनिरुद्ध जी और अनुनाद जी ने विकि पर बहुत कार्य किया है इसके अतिरिक्त अन्य सदस्यों व प्रबंधकों ने विकि को यहाँ तक पहुँचाने में अपना अमूल्य समय दिया है परन्तु बिल जी को यह टिप्पणी करते देर न लगी कि एक सम्मानित प्रबंधक द्वारा लेख बनाये जाने से और कुछ लेखों को प्रदूषण से बचाने के पवित्र उद्देश्य में उन्हें विकि के प्रबंधक से विकि को खतरा दिखने लगा, एक दूसरे सदस्य ने हटाने के लिए जोरदार समर्थन कर दिया जबकि वास्तविकता यह है कि डा० जगदीश व्योम ने अनेक लेखों को स्तरीय बनाने तथा वर्तनी की अशुद्धियों को सुधारने का महत्वपूर्ण कार्य किया है और अब भी विकि प्रेम के कारण यहाँ बिना चिन्ता किये कार्य कर रहे हैं, उनके विरुद्ध ऐसी अपमानजनक टिप्पणी बिल द्वारा लिखे जाने के बाद भी शायद इसीलिये कुछ नहीं लिखा कि विकि पर इस तरह का विवाद उचित नहीं है, बिल जी विकि पर काफी समय दे रहे हैं पर उनका व्यवहार विकि से लोगों को जोड़ने की जगह दूर हटने की दिशा में ले जा रहा है, अनिरुद्ध जी और अनुनाद जी का विकि से जुड़े रहना विकि के लिये बहुत शुभ है मीणा जी देवनागरी के अंकों में मत उलझिये हो सके तो विकि पर कुछ लेख बनाइये तो विकि का भला होगा, बिल जी रातोरात विकि के सर्वेसर्वा बनना चाहते हैं ऐसा उनकी टिप्पणियों से प्रतीत होता है, सारे पूर्व प्रबंधक अभी भी फिर से सक्रिय हो सकते हैं यदि बेकार की टीका टिप्पणी करने वाले विकि पर अपना काम करने लगें और एक दूसरे को सम्मान देने लगें, मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि देवनागरी लिपि को इतना मत कमजोर कर डालिये कि उसका दम ही घुट जाये, शायद यही अनिरुद्ध जी की चिन्ता है जिसे यहाँ समझा जाना चाहिये न कि उनका विरोध करके तमाम लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचानी चाहिये। --आलोचक (वार्ता) 05:17, 17 जून 2012 (UTC) माननीय संपादक सदस्‍यों, किसी भी बहस में तर्क का जवाब तर्क से दिया जाना चाहिए और अपने तर्कों को प्रमाणों से पुष्‍ट करना चाहिए। अनिरुद्ध जी के कुतर्कों का जवाब बिल जी ने तर्कपूर्ण ढंग से दे दिया है। अनिरुद्ध जी का यह (कु)तर्क बेबुनियाद है कि गांव के लोग अंतर्राष्‍ट्रीय अंक नहीं समझते। मैंने पहली से बी.ए. तक की पढाई गांव के सरकारी स्‍कूलों से की है और मेरा इस बीच कभी भी देवनागरी अंकों से परिचय भी नहीं हुआ। किसी भी राज्‍य पाठ्यपुस्‍तक मंडल की किताबें देख लें या फिर एन.सी.ई.आर.टी. की समस्‍त किताबें, कहीं भी देवनागरी अंकों का प्रयोग नहीं होता। हर कहीं अंतर्राष्‍ट्रीय अंकों का प्रयोग होता है. बिल अगर भारत में पढे नहीं, रहते नहीं तो इसका मतलब यह नहीं कि उन्‍हें भारत के बारे में कुछ जानकारी भी नहीं है। वे जिस तन्‍मयता और तटस्‍थता के साथ विकिपीडिया की सेवा कर रहे हैं, उसे संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए और तर्कों का जवाब तर्कों से देना चाहिए। समीर (वार्ता) 05:59, 17 जून 2012 (UTC)

वंचित प्रतिभा की हत्‍या

जनसंदेश टाइम्‍स. 12 मार्च 2012
वंचित प्रतिभा की हत्‍या
गंगा सहाय मीणा
(सहायक प्रोफेसर, जेएनयू)


एम्‍स के 22 वर्षीय छात्र अनिल कुमार की आत्‍महत्‍या ने हमारी शिक्षा व्‍यवस्था को कटघरे में खडा कर दिया है. अनिल राजस्‍थान के बारां जिले के पीपलिया चौकी गांव के एक आदिवासी किसान परिवार में पैदा हुए और उन्‍होंने ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्‍ट में अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में दूसरी रैंक लाकर अपनी प्रतिभा का सबूत दे दिया. फिलहाल वे भारत के सर्वश्रेष्‍ठ मेडिकल शिक्षा संस्‍थान कहे जाने वाले अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्‍थान में एमबीबीसी की पढाई कर रहे थे. मीडिया ने उनकी मृत्‍यु की खबर कुछ इस तरह बनाई मानो उन्‍होंने अचानक आत्‍महत्‍या कर ली हो. आत्‍महत्‍या करने वाला कोई भी व्‍यक्ति एक झटके में आत्‍महत्‍या नहीं करता. वह आत्‍महत्‍या जैसा कदम एक लंबी हार के बाद तभी उठाता है जब उसे जीवन के सारे रास्‍ते बंद नजर आने लगते हैं, जब कोई भी उसकी परेशानी समझने और सुलझाने की कोशिश नहीं करता. जाहिर है यह एक लंबी प्रक्रिया होती है, कम से कम एक होनहार, प्रतिभाशाली छात्र के बारे में तो यह पूरे यकीन के साथ कहा जा सकता है. कई बार योजना बनती है और फिर स्‍वयं ही निरस्‍त कर दी जाती है. ऐसा क्‍या था जो अनिल को लगातार इस नकारात्‍मक कदम की ओर तब तक धकेलता रहा, जब तक उसने अनिल का जीवन लील नहीं लिया?
अनिल की मौत का जिम्‍मेदार एम्‍स का निदेशक या वे कुछ अध्‍यापक ही नहीं है जो अनिल की समस्‍या नहीं समझ पाये. जिन स्थितियों में अनिल ने आत्‍महत्‍या की, उनमें अकेला अनिल नहीं था, आज भी हजारों छात्र झूल रहे हैं उसी मनःस्थिति के इर्द-गिर्द. मीडिया इस पूरे प्रसंग में सिर्फ बालमुकुंद को याद कर रहा है जो एम्‍स का विद्यार्थी था और लगभग दो साल पहले स्थितियों ने उसे वही करने को मजबूर कर दिया, जैसा अनिल के साथ हुआ. इसी हिंदुस्‍तान में न जाने कितने अनिल और बालमुकुंद हैं, जिन्‍हें शिक्षण संस्‍थानों का दमघोंटू वातावरण लीलने की योजना बना रहा है. जो इस वातावरण में शहीद हो गए, हमारा उन्‍हें याद करना तभी सार्थक होगा जब हम कुछ ऐसा सोचें जिससे कल आने वाली पीढियां अनिल कुमार या बालमुकुंद की तरह शहीद होने से बच जायें और एक खुशहाल जीवन जी सकें.
शिक्षण संस्‍थानों में दो ऐसे तत्‍व हैं जो पिछडे तबकों के विद्यार्थियों को प्रतिकूल प्रतीत होते हैं- साथी विद्यार्थियों-अध्‍यापकों का जातिवादी रवैया और अंग्रेजी माध्‍यम. प्रवेश की प्रक्रिया में ही जातिवादी टिप्‍पणियों की शुरूआत हो जाती है. साक्षात्‍कार के दौरान जातिसूचक उपनाम को लेकर 'विद्वान' और 'विशेषज्ञ' प्रोफेसरों द्वारा जातिवादी टिप्‍पणियां तथा नकारात्‍मक मूल्‍यांकन इसका पहला चरण है. इसे पार कर अगर विद्यार्थी प्रवेश लेने में सफल हुआ तो आरक्षित वर्ग से संबंधित होने के कारण सवर्ण सहपाठियों और अध्‍यापकों की आंखों में वह चुभता रहता है. यह चुभन जाने-अनजाने प्रकट होती रहती है. यह चुभन पिछडे तबके से आए विद्यार्थी के दिमाग में अवसाद का बीज बोती है. अंग्रेजी भाषा उसे हवा-पानी देने का काम करती है. भाषा को लेकर प्रोफेसरों के मन में इतना हीनताबोध और श्रेष्‍ठताबोध होता है कि भारतीय भाषा भाषी होने पर ही अंग्रेजी में पढाते हैं और अंग्रेजी में बात करने को प्राथमिकता देते हैं. गैर-तकनीकी विषयों का भी यही हाल है. पिछडे तबकों और दूर-दराज से आने वाले विद्यार्थी सामान्‍यतौर पर क्षेत्रीय भाषाओं में अपनी प्राथमिक शिक्षा लेते हैं. भाषाविज्ञानियों की माने तो वे ठीक ही करते हैं. अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर वे तथाकथित श्रेष्‍ठ शैक्षणिक संस्‍थानों में प्रवेश भी ले लेते हैं. अपने विषयज्ञान में बेहतर होने पर भी वे अंग्रेजी की वजह से अपनी सत्रीय परिक्षाओं में अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाते और कई बार फेल भी हो जाते हैं. अध्‍यापकों द्वारा उनके लिए अतिरिक्‍त कक्षाएं तो छोड दें, नियमित कक्षाओं में भी ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया जाता. जिसकी वजह से वे अवसाद के शिकार हो जाते हैं. उनके लिए फेल होना उस सबसे बडे सपने का टूटना है जिसे तमाम परिजनों और दोस्‍तों ने मिलकर बुना था.
जब यूजीसी के अध्‍यक्ष प्रो. सुखदेव थोराट थे तो उन्‍होंने शिक्षण संस्‍थानों को पिछडे तबकों से आए विद्यार्थियों के लिए विशेष सहायता कक्षाओं का आयोजन करने के निर्देश दिए थे. शिक्षण संस्‍थानों एक-दो साल तो इस आदेश की खानापूर्ति की लेकिन बहुत जल्‍द यह भी अन्‍य कई बातों की तरह फाइलों में दबा रह गया. प्रशासन और अध्‍यापक चाहते ही नहीं कि कमजोर तबकों के विद्यार्थी बराबरी में आएं.
मूल सवाल इससे भी बडा है. सवाल यह है कि अच्‍छा डॉक्‍टर बनने के लिए विषयज्ञान (चिकित्‍सा विज्ञान) जरूरी है या भाषाज्ञान (अंग्रेजी ज्ञान)? अंग्रेजीदां लोगों ने एक भ्रांत धारणा का प्रचार किया है कि अंग्रेजी ज्ञान और विकास की भाषा है. हकीकत यह है कि ज्ञान और विकास का किसी भाषा विशेष से कोई संबंध नहीं होता और भाषाज्ञान की तुलना में विषयज्ञान ज्‍यादा जरूरी चीज है.
जहां तक आरक्षण और उससे उपजी ईर्ष्‍या और घृणा का संबंध है, आरक्षण किसी की दया पर आधारित नहीं है. यह भारतीय संविधान प्रदत्‍त एक अधिकार है. यह देखने में आ रहा है कि जब से शिक्षण संस्‍थानों और नौकरियों में केन्‍द्र सरकार ने ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया है, सवर्ण जातियों की आरक्षण के प्रति घृणा में इजाफा हुआ है. देशभर से भेदभाव और अपमान की खबरें आ रही हैं. आईआईटी, एम्‍स, जेएनयू जैसे संस्‍थान भी इससे मुक्‍त नहीं हैं.
मुद्दा यह है कि कैसे जाति आधारित यह शोषण और अपमान रोका जाए? इसके लिए सबसे जरूरी है पिछडे तबकों की उचित भागीदारी. यानी अध्‍यापकों और कर्मचारियों की खाली सीटें भरी जाएं जिससे प्रशासन और अध्‍यापकों के बीच में डायवर्सिटी की स्‍थापना हो. जब उन तबकों का पर्याप्‍त प्रतिनिधित्‍व होगा तो निश्चिततौर पर इन तबकों से आए विद्यार्थियों को एक संबल मिलेगा. उनके साथ अपरिचय और असंवेदनशीलता की स्थिति नहीं आएगी.
अगर हमें और अनिल नहीं चाहिए तो शिक्षण संस्‍थानों के वातावरण में डायवर्सिटी लागू करनी होगी और संस्‍थानों का माहौल सहयोगी बनाना होगा. भाषाज्ञान की जगह विषयज्ञान को महत्‍व देना होगा और भाषा सुधारने के लिए अवसर उपलब्‍ध कराने होंगे.

भ्रष्‍टाचार और आरक्षण - गंगा सहाय मीणा

भ्रष्टाचार और आरक्षण

गंगा सहाय मीणा

भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू

आरक्षण के मुद्दे पर आकर भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई स्थगित हो गई है। इस प्रक्रिया में टीम अन्ना से लेकर सरकार सहित तमाम राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष के निहितार्थ भी धीरे-धीरे जनता के सामने आ गए हैं। 2011 में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में आरक्षण का मुद्दा कभी दूर, कभी पास लेकिन साथ-साथ चलता रहा। अन्ना टीम के सदस्य मेरिटवाद में अपना विास जताते रहे हैं और उनके विरोधी उनकी मेरिट और ईमानदारी की पोल खोलते रहे हैं। इस पूरे आंदोलन के कुछ उपेक्षित पहलू भी हैं, जिन पर गौर करना जरूरी है। सबसे अहम बात तो यह है कि इस पूरे आंदोलन में भ्रष्टाचार को सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार तक सीमित कर दिया है। ‘भ्रष्टाचार’ शब्द बहुत व्यापक अर्थ लिए हुए है। इसका वास्तविक अर्थ है- सामाजिक जीवन में स्वीकृत मूल्यों व वैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध आचरण। इसके तहत व्यक्ति का हर वह काम आ जाता है, जिसमें वह किसी भी प्रकार की गड़बड़ी करता है। उदाहरण के लिए परिवारवाद/वंशवाद या किसी भी प्रकार का पक्षपात, वैधानिक नियमों की धज्जियां उड़ाना (नियमों का विरोध करना नहीं), परीक्षार्थी का गलत मूल्यांकन करना आदि भ्रष्टाचार है। लेकिन भारत में आर्थिक भ्रष्टाचार के बढ़ते मामले प्रचारित होने के कारण उसे ही भ्रष्टाचार का एकमात्र रूप मान लिया गया है।

भ्रष्टाचार के सारे पहलुओं पर चोट की जाए एक उदाहरण द्वारा इस बात को समझना चाहिए। चूंकि आरक्षण के मुद्दे पर भ्रष्टाचार विरोधी विधान अटका है, इसलिए आरक्षण पर ही बात करते हैं। भारतीय संविधान (और उसके संशोधनों) के अनुसार शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, विकलांग, महिलाएं और अब से (अन्य पिछड़ा वर्ग) में मुसलमानों के लिए निर्धारित आरक्षण का प्रावधान किया गया है। तथ्य बताते हैं कि इस आरक्षण को ठीक प्रकार से लागू नहीं किया जा सका है। बहुत से महकमे ऐसे हैं जहां आरक्षण के निर्धारित प्रतिशत के आधे पद भी नहीं भरे गए हैं। अगर कोई उच्च अधिकारी जान- बूझकर आरक्षण को लागू करने की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करता है तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है? निश्चित तौर पर यह भ्रष्टाचार है क्योंकि वह संविधानसम्मत नियमों का पालन नहीं कर रहा। वह सायास किसी वंचित तबके को आगे बढ़ने से रोक रहा है। समझ में नहीं आता, यह आर्थिक भ्रष्टाचार से कैसे कम महत्त्वपूर्ण मसला है!

आर्थिक भ्रष्टाचार ही क्यों अपराध है। भ्रष्टाचार के दूसरे रूप क्यों नहीं! अगर भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो पहले उसके व्यापक अर्थों में स्वीकार करना होगा और इसके लिए आचरण की शुद्धता और ईमानदारी पर बल देना होगा। सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाकर भ्रष्टाचार को खत्म करना मुमकिन नहीं है। उदारीकरण के पिछले दो दशकों से पहले भारतीय राजनीति तक में ऐसे लोगों की बड़ी तादाद थी, जो राजनीतिक-सामाजिक जीवन में नैतिकता व शुचिता को बड़ा महत्त्व देते थे। इस वजह से आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों की संख्या भी सीमित थी। (कुछ लोगों का मानना है कि तब व्यवस्था में आज के समान पारदर्शिता नहीं थी और सूचना का अधिकार जैसे कानून नहीं थे। अत: भ्रष्टाचार के मामले खुल ही नहीं पाते थे)

आरक्षण से निगरानी संस्था विविधतापूर्ण होगी आज जब आर्थिक भ्रष्टाचार विकराल रूप धारण कर चुका है और उसका सामना करने के लिए एक मजबूत लोकपाल बनाया जा रहा है, तो सवाल उठ रहा है कि इसमें आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए या नहीं। आरक्षण के सिद्धांत की समाज-वैज्ञानिक उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि अगर भ्रष्टाचार से पीड़ित व्यवस्था में आरक्षण का आधार रहा है अर्थात विधायिका-कार्यपालिका में आरक्षण है तो उसकी निगरानी करने वाली व्यवस्था में आरक्षण करने में कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए। इससे निगरानी करने वाली शक्ति का सामाजिक चरित्र ज्यादा विविधतापूर्ण होगा। आज आरक्षण की मदद से विभिन्न वंचित समूह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक रूप से विकास की दौड़ में कदम से कदम मिलाने की स्थिति में आ रहे हैं। व्यवस्था से उनका अलगाव कम हो रहा है। अगर उन्हें दूसरी जगहों की तरह लोकपाल में प्रतिनिधित्व मिलता है तो वे भी इस नए बन रहे भारत को बनाने और बचाने में योगदान के लिए अपना कर्त्तव्य महसूस करेंगे। साथ ही अपने समुदाय के साथ अन्याय की आशंका से मुक्त रहेंगे। दुनिया भर में फैलती लोकतांत्रिक सोच के समय में सभी को साथ लेकर चलने की व्यवस्था ही सफल हो सकती है।

कोटा : सामाजिक उत्थान के सफल प्रयोग यह बात सही है कि आरक्षण का विधान समानता और प्रतिनिधित्व की गारंटी नहीं देता लेकिन यह भी काबिलेगौर है कि जब तक सदियों से वंचित, शोषित तबकों को आगे बढ़ाने और समाज में समानता के लिए समुचित प्रयास नहीं किए जाते और उनके माध्यम से अधिकतम संभव समानता सुनिश्चित नहीं की जाती, हमें आरक्षण की व्यवस्था में विास जताना होगा क्योंकि यह तथ्य है कि दुनिया भर में वंचित तबकों के सामाजिक उत्थान के लिए की गई व्यवस्थाओं में आरक्षण सर्वाधिक सफल प्रयोग है। अगर लोकपाल में स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों का प्रतिबिंबन करने के लिए उचित व्यवस्था की जाएगी तो शायद हम एक-दूसरे को सहारा देते हुए या एक-दूसरे को अंकुशित करते हुए लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति के पीछे की मंशा को पूरा करने में सफल हो सकेंगे। और अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह एक मायने में ताकतवर वर्ग का जनसाधारण के लिए एक नियामक मंडल बनेगा जिसमें देश और विदेश के सर्वोच्च शिक्षा संस्थानों से विधि और प्रशासन की विशेषज्ञता हासिल करने वाले लोग आएंगे, जिनके बदलने की कोई गारंटी नहीं होगी। अगर हमारा लोकतंत्र में विास बचा है तो हमें भ्रष्टाचार विरोधी विधान (लोकपाल) में सभी वर्गों का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना ही होगा। साथ ही स्वयं भ्रष्टाचार को व्यापक अर्थ में ग्रहण करने की जरूरत है। हस्‍तक्षेप (राष्‍ट्रीय सहारा), 7 जनवरी, 2011
 
Powered by Blogger