गणतंत्र (कविता)


गणतंत्र
-गंगा सहाय मीणा


क्‍या है गणतंत्र? 

तिरंगा झंडा?
राजपथ की परेड?
राष्‍ट्रपति की बघ्‍घी?
तोपों की सलामी?
दिल में इंडिया?
जुबां पे वंदे मातरम?
या भारत माता की जय?

नहीं साथी,

इनमें से कुछ नहीं!

गणतंत्र है

दलित का भीमा
आदिवासी का बिरसा
औरत का प्रतिरोध
मंडल आयोग
सच्‍चर की सिफारिशें
इंसान की ख्‍वाहिशें
और
वह सबकुछ
जो इंसान-इंसान की
बराबरी के लिए
किया जाना बाकी है.

मजबूत हुई है प्रतिरोध की संस्‍कृति


मजबूत हुई है प्रतिरोध की संस्‍कृति

डॉ. गंगा सहाय मीणा

स. प्रोफेसर, भारतीय भाषा केन्‍द्र, जेएनयू

   सभ्‍यता, परंपरा, संस्‍कृति आदि की बात करते वक्‍त सामान्‍यतया हम अतीत को गौरवान्वित करते हुए वर्तमान की आलोचना करते हैं. हमारे कहने का भाव कुछ इस तरह का होता है कि पहले सबकुछ ठीक था, चारों ओर सुख-शांति थी और अब मानवीय सभ्‍यता मूल्‍यों के पतन के कारण खतरे में है. इसके लिए अक्‍सर पश्चिमी सभ्‍यता को जिम्‍मेदार ठहराया जाता है. दरअसल यह भारतीय अतीत से लाभान्वित समुदायों के वंशजों की राय है, जिसका उन्‍होंने इतना प्रचार किया कि इसे तमाम भारतीयों की राय माने जाने का भ्रम हुआ.

किसी भी चीज को देखने का एक दृष्टिबिंदु होता है, जो उस मुद्दे के बारे में हमारी राय बनाता है. यानी यह बहुत महत्‍वपूर्ण है कि हम किसी प्रश्‍न को कहां से देख रहे हैं. हजारों वर्षों तक सत्‍ता में काबिज लोगों को वंशजों को वर्तमान सांस्‍कृतिक पतन होता हुआ दिख रहा है क्‍योंकि उस तबके के सत्‍ता में बने रहने को वंचितों द्वारा लगातार चुनौतियां दी जा रही हैं.

संस्‍कृति कोई जड़ चीज नहीं है और भारतीय संदर्भ में इसके एकरूप होने का दावा भी खोखला है. जिन परंपराओं को अभी तक महान संस्‍कृति कहकर गौरवान्वित किया जाता रहा, उनमें से अधिकांश का संबंध समाजिक और लैंगिक गैर-बराबरी से है. आज जब हम लोकतांत्रिक समाज में रह रहे हैं और एक समतामूलक समाज का सपना हम सभी के दिलो-दिमाग में है, तो हमें अपने इतिहास, सभ्‍यता, परंपराओं आदि के साथ संस्‍कृति पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है. सामाजिक गैर-बराबरी से जुड़े संस्‍कृति के प्राचीन केन्‍द्रों के ध्‍वस्‍त होने पर विलाप करने की बजाय उल्‍लास मनाने की जरूरत है. हमारा वर्तमान सीमाओं से मुक्‍त नहीं है लेकिन अब हमें अतीत को गौरवान्वित करने की लत छोड़नी होगी. तमाम सीमाओं के बावजूद आज भारतीय समाज में विभिन्‍न गैर-बराबरियां जितनी कम हुई हैं, उतनी इतिहास में कभी नहीं थी. विभिन्‍न तबकों की स्थिति सुधरने के साथ वे अपनी सांस्‍कृतिक विरासत को भी सुधारने में लगे हैं.

भारत असंख्‍य संस्‍कृतियों का देश है. स्‍वयं हिंदी प्रदेश भी बहुभाषी और बहु-सांस्‍कृतिक प्रदेश है. चीजों का बदलना पतन ही हो, यह जरूरी नहीं. यह सच है कि समय बहुत तेजी के साथ बदल रहा है. उसी के अनुरूप संस्‍कृति भी बदल रही है. पुस्‍तकों की जगह इंटरनेट ने ले ली है. अब न आपके ऊपर संपादक की धौंस है, न किसी और का डर- आप इंटरनेट पर जाकर कुछ भी पढ़ सकते हैं, लिख सकते हैं, फीडबैक दे सकते हैं, फीडबैक प्राप्‍त कर सकते हैं आदि. लिखने और पढ़ने के क्षेत्र में ऐसा लोकतांत्रिक माहौल पहले कभी नहीं था. हमारे जीवन और संस्‍कृति में आ रहे इन बदलावों के प्रति हमें सतर्क रहने की जरूरत है क्‍योंकि इन्‍हीं बदलावों के बीच बाज़ार अपने पांव पसार रहा है. बाजार का एक ही मूल्‍य है- मुनाफा, इसलिए हमारे सांस्‍कृतिक जीवन में इसके दखल के प्रति हमें सावधान रहना होगा. पिछले दिनों हुए सांस्‍कृतिक बदलावों से निकली सबसे मजबूत चीज है- प्रतिरोध की संस्‍कृति. उत्‍पीडि़त तबके अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए संगठित हो रहे है. निष्‍कर्षतः यही कहा जा सकता है कि संस्‍कृति कोई जड़ नहीं, निरंतर परिवर्तनशील अवधारणा है. हिंदी प्रदेश में विविध संस्‍कृतियां समय का दबाव झेलते हुए बदलती हुई आगे बढ़ रही है. इस बदलाव पर विस्‍तृत अध्‍ययन अपेक्षित है.

(शुक्रवार 'साहित्‍य वार्षिकी 2014' से साभार)
 
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