'पूस की एक और रात' : प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली कहानी

प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली कहानी
रमेश उपाध्‍याय

अद्भुत संयोग है कि हाल ही में ‘पूस की एक और रात’ शीर्षक से हिंदी में दो कहानियाँ लिखी गयी हैं। एक लक्ष्मी शर्मा की, जो पिछले दिनों ‘कथादेश’ में आयी थी और दूसरी गंगा सहाय मीणा की, जो ‘परिकथा’ के प्रस्तुत नवलेखन अंक में प्रकाशित हुई है। यद्यपि दोनों कहानियों के विषय भिन्न हैं और शीर्षक के सिवा कोई और समानता उनमें नहीं है, तथापि एक ही समय में एक ही शीर्षक से दो कहानियों का लिखा जाना सिर्फ संयोग नहीं, बल्कि हिंदी कहानी में एक नये विकास तथा प्रेमचंद की यथार्थवादी कथा-परंपरा को एक बार फिर दृढ़तापूर्वक अपनाकर आगे बढ़ाने के नये संकल्प की सूचना है। यहाँ दोनों कहानियों को साथ रखकर उन पर विचार करने का अवकाश नहीं है, इसलिए मैं गंगा सहाय मीणा की कहानी पर ही बात करूँगा।

यह कहानी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ की याद दिलाती है, लेकिन यह उससे भिन्न बिलकुल आज के (इक्कीसवीं सदी के) भारत के ग्रामीण यथार्थ और किसान जीवन की और विशेष रूप से खेती-किसानी करने वाली स्त्रियों के कठिन जीवन की कहानी है। यह राजस्थान के एक जनजाति बहुल गाँव के जनजातीय किसान परिवार की कहानी है, जिसमें पिता की मृत्यु हो चुकी है, विधवा माँ बूढ़ी है, जिसके दो बेटों में से बड़ा हरकेश गाँव से दो सौ किलोमीटर दूर एक स्कूल में ‘शिक्षामित्र’ के रूप में काम करता है और उसका छोटा भाई बी.ए. करने के बाद जयपुर में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा है। हरकेश की युवा पत्नी भूरी तथा बूढ़ी माँ गाँव में खेती-बाड़ी सँभालती हैं। पहले खेतों की सिंचाई गाँव के तालाब और कुओं से होती थी और किसी किसान को पानी की किल्लत नहीं होती थी। लेकिन वर्तमान पूँजीवादी प्रपंच के चलते गाँव की परस्पर सहयोग वाली सामाजिक संरचना ध्वस्त हो गयी है, स्वार्थपरता पनप गयी है, जिसके कारण प्रकृति और पर्यावरण की भारी क्षति हुई है। तालाब का भरना बंद हो गया है, कुएँ सूख गये हैं और जमीन के अंदर गहराई तक बोरिंग करके निकाले गये पानी से खेतों को सींचने का नया चलन चल निकला है।

भारतीय कृषि व्यवस्था में पूँजीवाद के प्रसार ने प्रेमचंद के समय के भारतीय गाँवों को बिलकुल बदल दिया है। जब गाँवों में हमेशा भरे रहने वाले कुएँ हमेशा के लिए सूख गये, तो ‘‘बड़े किसानों ने बोरिंग करना शुरू किया। बोरिंग से सिंचाई महँगी हुई और मुश्किल भी। एक बोर करने में तीन-चार लाख तक का खर्च सामान्य था। उस पर बोर फेल होने का खतरा अलग। परिणाम यह हुआ कि बोर मालिकों ने दूसरे किसानों के खेतों में सिंचाई कर इस खर्च को निकालना शुरू कर दिया। गाँव में कुल मिलाकर आधा दर्जन ही बोर थे, इसलिए किसानों की भी मजबूरी थी उनसे महँगी रेट पर पानी लेने की। बोर मालिक दिन में अपने खेतों को भराते थे और रात में दूसरे किसानों को पानी देते।’’

कहानी यों है कि पूस का महीना है, जब हड्डियों तक को कँपा देने वाला जाड़ा पड़ता है। हरकेश गाँव से दो सौ किलोमीटर दूर अपनी नौकरी पर है और गाँव में उसके सरसों के खेत की भराई (सिंचाई) होनी है। उसकी पत्नी भूरी हफ्ते भर से कोशिश कर रही है कि बोर का मालिक रामजीलाल पटेल, जिसके साथ चार सौ रुपये प्रति घंटे की दर से पानी लेने का सौदा तय हो चुका है, उसके खेत के लिए पानी दे दे। आखिरकार भूरी की सरसों भराने की बारी आ जाती है और रामजीलाल मोबाइल पर ‘‘मिस कॉल करके’’ हरकेश मास्टर को बताता है कि आज रात आठ बजे उसका नंबर है। हरकेश मोबाइल पर गाँव में अपनी पत्नी और माँ से बात करता है कि सरसों आज ही भरा ली जाये। सास बूढ़ी है और भूरी अकेली यह काम कर नहीं सकती, इसलिए तीन सौ रुपये में आधी रात के लिए एक मजूर तय कर लेती है। आठ बजे से पहले वह अपने दोनों बच्चों को खाना खिलाकर सुला देती है और सास तथा मजूर के साथ एक टॉर्च और गैस लेकर खेत पर चली जाती है। भयंकर शीत की रात में वह अपने खेत की सिंचाई करती है। बोर से खेत तक आने वाले पानी के पाइप के टूट जाने पर वह अपने ओढ़े हुए शॉल को ही टूटे हुए पाइप में बाँधकर उसकी मरम्मत करती है। इस प्रक्रिया में वह शीत की रात में पानी की बौछारों में भीग भी जाती है। फिर भी वह पूरे धीरज और परिश्रम के साथ अपना काम पूरा करती है।

गंगा सहाय मीणा अगर चाहते, तो विगत बीसेक वर्षों से हिंदी कहानी में चल रही चीजों की तर्ज पर इस कहानी को एक जनजाति से संबंधित और पति से दूर गाँव में अकेली रहने वाली स्त्री की कहानी के रूप में लिखकर मजे में जातिवादी या देहवादी किस्म की कहानी बना सकते थे, लेकिन उन्होंने इसे परिवार और खेती को अकेले अपने दम पर सँभालने वाली एक किसान स्त्री की कहानी के रूप में लिखकर सचेत रूप से प्रेमचंद की यथार्थवादी कथा-परंपरा को आगे बढ़ाने का नया प्रयास किया है। कहानी का शीर्षक प्रेमचंद के समय के किसान जीवन के यथार्थ की याद दिलाता है, लेकिन वे कहानी के पहले ही वाक्य में कहानी का ‘काल’ स्पष्ट रूप से बताकर (कि यह ‘‘इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत जाने के बाद के एक बरस के पूस के महीने’’ की कहानी है) पाठक को सचेत कर देते हैं कि यह हमारे बिलकुल आज के समय के यथार्थ की कहानी है। यह समय निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण का समय है, जिसमें गाँव का और किसान जीवन का यथार्थ बिलकुल बदल गया है।

यह एक नया यथार्थ है। ग्रामीण जीवन और कृषि कर्म में कई नयी चीजें आ गयी हैं। जनजाति बहुल गाँव के लड़के खेती-किसानी पर निर्भर न रहकर पढ़-लिख रहे हैं और पढ़ा भी रहे हैं। वे गाँव से दूर जाकर नौकरियाँ कर रहे हैं, उच्च शिक्षा पाकर परीक्षाएँ दे रहे हैं और ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच रहे हैं। गाँव में पीछे छूटा उनका परिवार भी अब ज्यादा दिन वहाँ नहीं रहने वाला है, क्योंकि देहाती जीवन और कृषि कर्म में उच्च तकनीक वाली बड़ी पूँजी के प्रवेश ने छोटे किसानों का खेती पर निर्भर रहना मुश्किल कर दिया है। पूँजी ने देहाती लोगों को स्वार्थी बना दिया है, जिससे प्रकृति और पर्यावरण का नाश हो गया है। प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट हो जाने से किसान नयी तकनीक से खेती करने को विवश है और नयी तकनीक के तार बड़ी भूमंडलीय पूँजी से जुड़े हैं। एक छोटे-से खेत को सींचने के लिए चार सौ रुपये प्रति घंटे की दर से पानी लेना पड़ता है और तीन सौ रुपये में आधी रात के लिए मजदूर करना पड़ता है। कहानी में मोबाइल फोन की भूमिका और ‘‘मिस कॉल’’ वाला व्यंग्य भी गौर करने लायक है। इतनी महँगी खेती के लिए जरूरी है कि किसान अपने लिए अन्न पैदा करने के बजाय बाजार के लिए नकदी फसलें उगाये। (कहानी में भूरी का खेत भी नकदी फसल सरसों का खेत है।) लेकिन जाहिर है कि यह पूँजीवादी विकास ‘सस्टेनेबल’ (टिकाऊ) नहीं है और इसमें छोटे किसान को बर्बाद होना ही है, चाहे वह कर्जदार होकर आत्महत्या करे या खेती और गाँव छोड़कर कहीं और चला जाये, कोई और पेशा अपनाये।

यह कहानी आज के इसी बदले हुए यथार्थ को सामने लाती है। लेकिन इस बदले हुए यथार्थ के दो पहलू हैं--किसानों के कष्टों और आत्महत्या के प्रयासों वाला निराशाजनक पहलू और गैर-टिकाऊ खेती से जुड़ा ग्रामीण जीवन जीते रहने के बजाय शिक्षित होकर कोई वैकल्पिक और बेहतर जीवन जीने के प्रयासों वाला आशाजनक पहलू। इस कहानी में बदलते हुए यथार्थ के आशाजनक पहलू को सामने लाया गया है। भूरी का जीवन हमेशा ऐसा ही रहने वाला नहीं है। उसका पति पढ़-लिखकर पढ़ाने लगा है, उसका देवर ऊँचे पद पर पहुँचने के लिए तैयारी कर रहा है, उसके बच्चे भी पढ़-लिख जायेंगे, तो गाँव में न रहकर बाहर चले जायेंगे। यह भी हो सकता है कि वे ‘लोकल’ न रहकर ‘ग्लोबल’ हो जायें।

इस प्रकार यह कहानी ठेठ भारतीय यथार्थ की कहानी होते हुए भी आज के भूमंडलीय यथार्थ की कहानी है और इसका यथार्थवाद प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को आगे बढ़ाने वाला भूमंडलीय यथार्थवाद है। 

साभार : http://behtarduniyakitalaash.blogspot.in/
(परिकथा, मार्च-अप्रैल 2015)

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