भारतीय रुपये के नए चिन्‍ह को अंग्रेजी और डॉलर की तर्ज पर हिन्‍दी में भी संख्‍या से पहले लिखा जा रहा है. मुझे लगता है हिन्‍दी में इसे संख्‍या का बाद लिखा जाना चाहिए. उदाहरण के लिए- 'यह किताब रुपये 50 की है' की जगह 'यह किताब 50 रुपये की है' लिखा जाना चाहिए. आप क्‍या कहते हैं?
Added by Ganga Sahay Meena on November 13
Kim YongJeong, Anoop Aakash Verma, Manoj Chhabra and 37 others like this.

Arbind Kumar Mishra Sahi kaha aapne,Hindi Bhasha ki apni prakriti hai.
November 13 at 10:52pm · Unlike · 2 people
Wekas Inquilab अब क्या किया जाये ,ये निशान ही देख लीजिये जब वो बीच वाला डंडा उनकी नक़ल करके लगाया गया है तो इस्तेमाल भी तो उनकी नक़ल करके ही किया जायेगा | नक़ल करने में हमसे अच्छा कोई नही कुछ दिनों में शायद 'रुपये ५०' बोलने की भी आदत डाल ही लेंगे |
November 13 at 11:00pm · Unlike · 5 people
Veer Aditya yes!
It is Hindi Syntax Respected!
November 13 at 11:02pm · Like
Wekas Inquilab इस निशान की जगह अगर "रु " होता तो शायद इसकी अंतर्राष्ट्रीयता कम हो जाती |
November 13 at 11:05pm · Like · 1 person
सुयश सुप्रभ Suyash Suprabh गंगा सहाय जी, अंग्रेज़ी की वाक्य संरचना, शैली आदि से हिंदी 'आतंकित' रहती है। इसकी एक वजह यह है कि हिंदी में मौलिक लेखन को बढ़ावा नहीं दिया जाता है। मीडिया को मुनाफ़े से मतलब है और सेठ, नेता आदि अपनी बात जिस हिंदी में लोगों तक पहुँचाते हैं उससे उनका काम तो निकल जाता है लेकिन भाषा कराहती रह जाती है। पूँजी के साम्राज्य में न तो खेत-खलिहान सुरक्षित हैं न भाषा।
November 13 at 11:31pm · Unlike · 9 people
गंगा सहाय मीणा सही कहा आपने. दरअसल यह हमारी गुलाम मानसिकता का प्रतीक है. यह पूंजी के साथ सांस्‍कृतिक साम्राज्‍यवाद का दौर है.
November 13 at 11:36pm · Like · 7 people
Arbind Kumar Mishra Lekin Hindi bhasha ke wakya vinyas ko bachana hamara hi kartavya hai
November 13 at 11:37pm · Unlike · 4 people
Manohar Das दरअसल वाणिज्य और अर्थशास्त्र को भाषा से जोड़ा जाना उचित नहीं है. सब कुछ सुविधा को ध्यान में रखते हुए किया गया है. अग्रणी और सर्वेसर्वा की बात मानी जाती है. जब हमें भारत को India कहने से एतराज़ नहीं तो, यह तो प्रश्न को बेमानी है. भारत का पूरा ढांचा ही मुगलों और ब्रिटिश का दिया है . क्या क्या बदलोगे ? बेहतर है इसे ढंग से चला पाए वही काफी है.
November 13 at 11:54pm · Like · 4 people
Geeta Rana gsm sir kissi baat ko discuss karwana to koi aapse seekhe :) :) :)
ye bhi ek kala hai , congrates !!!
November 14 at 12:41am · Like · 3 people
Arbind Kumar Mishra Mai to abhi bhi yahi kahoonga ki ank ke baad hi is pratik ka prayog sab karen .
November 14 at 12:47am · Unlike · 2 people
Prithvi Parihar सही है लिखा तो तो यही जाना चाहिए कि किताब 50 रुपये की है.
November 14 at 8:41am · Unlike · 3 people
Uday Prakash लेकिन जब 'लोगो' (logo) या 'चिह्न' (sign) बनते हैं, तो वे शब्दों को विस्थापित (replace) करते हैं। ऐसे में वाक्य-संरचना (syntax) में लागू होने वाले व्याकरण के नियम, उन पर लागू नहीं होते। 'प्रत्यय' अथवा 'पूर्व-सर्ग' (prefix) या 'अंत:-सर्ग' की तरह उन पर विचार करना (मेरी समझ से) ठीक नहीं होगा। डालर ($) या यूरो (e) वगैरह के चिह्न भी 'अंकों' के पहले इस्तेमाल होते हैं। इसलिये इस चिह्न को भी, रिज़र्व बैंक द्वारा स्वीकृति मिलने के बाद, अंतरराष्ट्रीय मानक-चिह्नों की तरह ही, अंक के पहले प्र्योग किया जाना चाहिए। 'लोगो' या 'चिह्न' के संदर्भ में 'हिंदी' और 'अंग्रेज़ी' जैसे भाषा विभेद का सवाल उठाना भी बहुत तार्किक नहीं होता। यह चिह्न एक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा मानक (currency sign) है, जो कि भाषेतर है और चित्रात्मक (pictorial) है। उदाहरण के लिए आप यह देखें :
@ $70,567/ 10% उपभोक्ता. ( सत्तर हज़ार पांच सौ सरसठ डालर के मूल्य से प्रति दस प्रतिशत उपभोक्ता)
उपर्युक्त वाक्य को आप पढ़ सकते हैं। हिंदी वाक्य -विन्यास का व्याकरण यहां लागू नहीं है। ऐसा मेरी समझ है।

4
November 14 at 9:02am · Unlike · 9 people
Sagar Jnu GYAAN VARDHAN K LIYE THNX SIR
November 14 at 10:06am · Like
Ghufran Raghib mujhe to hindi र se objection hai.
November 14 at 11:05am · Like
Shams Equbal aapka khayaal theek hai. zabaan bhi durust ho jaeegi aur ghulamana zehan se nijaat bhi
November 14 at 11:22am · Unlike · 1 person
Priyankar Paliwal उदय जी से पूर्ण सहमति है . अभी भी बैंकिंग/वाणिज्य आदि में सुरक्षा के हिसाब से भी रुपया पहले लिखा जाता है और मात्र या केवल से समाप्त किया जाता है. इससे वर्णित/लिखित राशि में दोनों ओर से टेंपरिंग की गुंजाइश समाप्त हो जाती है. मुद्रित प्रपत्रों तथा चैक आदि में भी इससे यह सुविधा होती है कि चिह्न के आगे लिखी धनराशि के लिए इच्छित/उपयुक्त स्थान का सुरक्षित उपयोग किया जा सकता है.
November 14 at 11:29am · Like · 4 people
सुयश सुप्रभ Suyash Suprabh यूरोप के कई देशों में यूरो का चिह्न संख्या के बाद लिखा जाता है। इस विषय पर विस्तृत जानकारी निम्नलिखित लिंक पर उपलब्ध है :

http://en.wikipedia.org/wiki/Linguistic_issues_concerning_the_euro

कुछ उदाहरण नीचे प्रस्तुत हैं :

अल्बानियाई 3,14 €
चेक 3,14 €
पुर्तगाली 3,14 €

जब इन भाषाओं से अंग्रेज़ी में अनुवाद होगा तब अंग्रेज़ी के मानक, परंपरा आदि का ध्यान रखा जाएगा। लेकिन भारत में यह काम अनुवाद से पहले ही हो जाता है। हम अपनी भाषा में अंग्रेज़ी के मानको को मान्यता देने में लग जाते हैं। भारत में संख्या के बाद मुद्रा चिह्न के प्रयोग को मान्यता मिलने की संभावना बहुत कम है। हमारी भाषा इतनी सशक्‍त नहीं है कि वह चिह्नों का प्रयोग अपनी प्रकृति के अनुसार करे। उसे हर बात के लिए अंग्रेज़ी मानकों की आवश्यकता होती है। अंग्रेज़ी के मानको को अंतर्राष्ट्रीय मानक मानने की भूल बहुत-से बुद्धिजीवी करते हैं।

अंग्रेज़ी का आतंक इतना है कि हम अमेरिकी के बदले अमेरिकन, योग के बदले योगा, राम के बदले रामा आदि शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं। अगर आप ठीक से याद करें तो आप जान जाएँगे कि अंतिम बार आपने कब 'योग' को 'योगा' कहा था...
November 14 at 12:09pm · Unlike · 2 people
Uday Prakash लेकिन सुयश जी, फ़्रांस, पुर्तगाल जैसे देश भी हमारे औपनिवेशिक शासक रह चुके हैं, उनमॆं चिह्न संख्या के बाद आता है। दूसरी तरफ़ ब्रिटेन, अमेरिका, हालैंड, जर्मनी जैसे देश हैं, जिनकी वितीय-वाणिज्यिक हैसियत विश्व-अर्थ व्यवस्था में हम जानते हैं। इनमें से ब्रिटेन भी हमारा पूर्व शासक रह चुका है।
अब अगर हम इस चिह्न का उपयोग अंक के पहले करें या बाद में, वह तो 'अनुकरण' ही होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि रिजर्व बैंक का यह फ़ैसला किसी का 'अनुलरण' हो ही नहीं, बल्कि अपनी सुविधा के आधार पर लिया ग्या निर्णय हो?
दूसरे, हिंदी या 'भारतीयता' जैसी भावना, अक्सर मैंने देखा है कि बहुत ठोस आधारों और तर्कों पर टिकी नहीं होती।
अगर हम खाने-पीने से लेकर पहनने-ओढ़ने और आवास से लेकर परिवहन, संविधान से लेकर समूचे लोकतांत्रिक ढांचे तक के निर्माण में संसार के अन्य विकसित देशों से कुछ न कुछ हासिल किया है, तो सिर्फ़ 'करेंसी' के चिह्न तक में इसे परिसीमित करना बहुत सही नहीं लगता।
अगर मज़ाक में कहा जाय तो क्या आलू, अमरूद, तंबाकू, मिर्च, टमाटर, चौलाई साग, बथुआ आदि खाते हुए हम क्या कभी सोचते हैं कि ये तो पुर्तगालियों की देन है? दुखद ही सही पर सच यही है कि टेक्नालाजी से लेकर अर्थव्यवस्था तक में और विचार से लेकर समाज-व्यवस्था तक में हम बहुत पिछड़ चुके हैं। हमारी मौज़ूदा अर्थनीति भी तो अमेरिका और यूरोप के अनुकरण के ही आधार पर ही निर्मित है! फिर भला रुपये का लोगो किस मौलिक तरीके से बनायें और फिर उसे कहां लगायें...?
November 14 at 2:04pm · Unlike · 8 people
Arun Dev ‎"आलू, अमरूद, तंबाकू, मिर्च, टमाटर, चौलाई साग, बथुआ आदि खाते हुए हम क्या कभी सोचते हैं कि ये तो पुर्तगालियों की देन है?" उदय जी वास्तव में कभी यह नहीं लगा कि हम कोई पुर्तगाली चीज खा रहे हैं.
इनके बिना तो आज के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
November 14 at 2:42pm · Unlike · 4 people
सुयश सुप्रभ Suyash Suprabh उदय जी, शायद विषयांतर हो रहा है। आपने लिखा था - "डालर ($) या यूरो (e) वगैरह के चिह्न भी 'अंकों' के पहले इस्तेमाल होते हैं।" इसे तथ्य नहीं माना जा सकता है। कई यूरोपीय देशों में मुद्रा चिह्न को संख्या के बाद लिखा जाता है। कृपया इसे औपनिवेशिकता के संदर्भ में नहीं देखें। इससे संबंधित जानकारी आप निम्नलिखित लिंक पर देख सकते हैं :

http://en.wikipedia.org/wiki/Linguistic_issues_concerning_the_euro

क्या हिंदी में मौलिकता लाने का प्रयास व्यर्थ है? हम कब तक इसे अंग्रेज़ी की गरीब सहेली बनाए रखेंगे? मीडिया में हिंदी अनुवाद की भाषा बन गई है। अंग्रेज़ी से शब्द लेने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन हर बात में अंग्रेज़ी मानको की दुहाई देना गलत है। वैसे भाषा तो प्रयोग से बनती-बिगड़ती है। जनता जिस रूप को स्वीकार करेगी वही रूप मानक बन जाएगा।

हिंदी की बात हमेशा भारतीयता से संबंधित नहीं होती है। संसार की हर भाषा दूसरी भाषाओं से शब्द लेती है। अंगेज़ी ने भी कई भाषाओं से शब्द लिए हैं। लेकिन अंग्रेज़ी उन शब्दों को अपनी प्रकृति के अनुसार ढाल लेती है। हिंदी में ऐसा नहीं हो पाता है। एक उदाहरण देना चाहूँगा। अंग्रेज़ी ने हिंदी से jungle शब्द लिया है। अंग्रेज़ी में इसका बहुवचन jungles होता है, न कि junglon (हिंदी व्याकरण के अनुसार) । हिंदी ने अंग्रेज़ी से 'चैनल' शब्द लिया, लेकिन बहुत-से लेखक इसे बहुवचन में 'चैनल्स' लिखते हैं। हिंदी की प्रकृति के अनुसार इसे 'चैनल' या 'चैनलों' लिखना चाहिए। मौखिक अभिव्यक्ति में हिंदी बोलते समय 'चैनल्स' का प्रयोग अनुचित नहीं है। हिंदी बोलते समय अंग्रेज़ी शब्दों का उच्चारण अकसर हिंदी के अनुसार नहीं होता है। यह हिंदी के मौखिक प्रयोग की सामान्य प्रवृत्ति है। लेकिन लिखित अभिव्यक्ति में एकरूपता, शब्द निर्माण आदि को ध्यान में रखते हुए भाषा के रूप को व्यवस्थित करने की कोशिश की जाती है। यह कोशिश हिंदी में बहुत कम दिखती है। इसकी वजह यह है कि हम अपनी भाषा को अंग्रेज़ी के सामने नतमस्तक देखना गलत नहीं समझते हैं।

भाषा में मौलिकता की बात जीवन से जुड़ी हुई है। इसे हमेशा भारतीयता से जोड़ना तर्कसंगत नहीं है। मुझे फ़ेसबुक पर हिंदी की बात करने पर लोगों से यह सुनना पड़ा कि मैं दक्षिणपंथी या संघी हूँ। बाद में मेरे संदेश पढ़कर कुछ लोगों की राय बदली, लेकिन बहुत-से लोग शायद अभी तक नाराज़ हैं।
November 14 at 3:35pm · Unlike · 3 people
Kamlesh Kumar Diwan sahi kaha hai,koi or shubh chinha hona chahiye thaa
November 14 at 4:58pm · Like · 1 person
Manish Ranjan sahmat
November 14 at 5:01pm · Like · 1 person
सुयश सुप्रभ Suyash Suprabh संतोष जी, यह सच है कि भारत के विश्वविद्यालयों में सेमिनारों की बहस प्राय: दिशाहीन होती है। इसमें चाटुकारिता भी खूब देखने को मिलती है। लेकिन भाषा का सवाल प्रासंगिक है। अगर आप गरीब जनता की बात करेंगे तो आपको जनता की भाषा पर भी ध्यान देना होगा। हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध बनाने की ज़रूरत है ।
November 14 at 5:10pm · Unlike · 3 people
Uday Prakash सुयश जी, आपके दिये हुए लिंक को देखने के बाद ही मैंने वह टिप्पणी लिखी थी। उसमें अगर देखें तो आप सहमत होंगे कि अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, हालैंड आदि ऐसे देश, जिनकी अर्थव्यवस्था पश्चिम में अपेक्षाकृत अधिक मज़बूत है और नयी अर्थनीति के तहत जिनके साथ रुपये का संपर्क और विनिमय अधिक हो रहा है, वहां यह 'लोगो' या 'चिह्न' अंक के पहले है। शायद इसी सुविधा के कारण रिज़र्व बैंक ने और इस चिह्न को चुनने वालों ने ऐसा निर्णय लिया होगा। यह सिर्फ़ मेरा अनुमान भर था। फ़्रांस, रूस और इटली आदि देशों में (वही लिंक आप देखें) में यह 'चिह्न' बाद में लिखा जाता है, इससे 'पहले' और 'बाद में' के दोनों प्रस्ताव स्थगित हो जाते हैं।
हिंदी के साथ हमेशा अंग्रेज़ी को खड़ा किया जाता रहा है। इससे हम सब परिचित हैं।
मुझे कुल मिलाकर इस बहस में ऐसा लग रहा है कि 'लोगो' (logo) या 'चिह्न' को भाषा, वह भी हिंदी और उसकी लिपि 'देव नागरी' के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है। इसीसे ऐसे विचार और अपएक्षाएं पैदा हो रही हैं। रुपये के इस 'लोगो' को सिर्फ़ एक किसी भाषा और एक किसी लिपि के साथ जोड़ना उपयुक्त नहीं होगा। हिंदी तो चलिये फिर भी पश्चिम की अन्य भाषाओं की तरह भारोपीय परिवार (Indo-European) की भाषा है, लेकिन हमारे देश में तो द्रविड़, आग्नेय, अर्ध-आग्नेय आदि अनेक भाषाएं हैं। मेरा सिर्फ़ यह कहना है कि हिंदी के 'र' की तरह झलकते इस 'चिह्न' को अपनी भाषा से जोड़कर देखने की बजाय उसे भारतीय मुद्रा चिह्न (INR sign) की तरह देखा जाय।
बाकी शब्दों को अपने अनुकूल ढालने और बदलने की बात से मैं सहमत हूं। सात साल पहले हुए एक भाषा सर्वे में सामने आया था कि सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार और भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप, हिंदी का जितना संपर्क अन्य भाषाओं के साथ बढ़ा है, उसके चलते लगभग ४०० शब्द हर रोज़ इसमें आते हैं। कुछ हमेशा के लिए इसमें बस जाते हैं, और कुछ बाहर हो जाते हैं। यह प्रकृया काफ़ी तेज़ और जटिल है। एक सर्वेक्षण यह भी बतलाता था कि आज के औसत, व्यावहारिक, बोलचाल की हिंदी (साहित्य और पाठ्य-पुस्तकों की हिंदी नहीं) में सामान्य तौर पर तीन से सात भाषाओं के शब्द होते हैं। कुछ वाक्य तो ऐसे भी हैं जिनमें ग्यारह भाषाओं के शब्द हैं।
यह जो भाषिक स्मन्वीकरण और प्रसंस्करण इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है, उसमें पहले की तरह 'अभिजन-नियंत्रण' और 'राजकीय' हस्तक्षेप बहुत प्रभावकारी नहीं रह गया है।
November 14 at 6:32pm · Unlike · 7 people
DrRaju Ranjan Prasad कुछ इनसे बड़े सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं .
November 14 at 6:46pm · Unlike · 3 people
सुयश सुप्रभ Suyash Suprabh उदय जी, मुद्रा चिह्न का प्रयोग सभी भारतीय भाषाओं में होगा। अभी केवल हिंदी के संदर्भ में बात हो रही है। गंगा सहाय जी ने भी अपने संदेश में दो बार 'हिंदी में' शब्दों का प्रयोग किया है।

भाषा की अनेक प्रयुक्तियाँ होती हैं। अनौपचारिक भाषा किसी तरह के नियंत्रण से परे होती है। लेकिन जब भाषा को ज्ञान का साधन बनाया जाता है तब कुछ नियमों का पालन अनिवार्य हो जाता है। साहित्यिक भाषा और प्रयोजनमूलक भाषा में हमेशा अंतर होता है। प्रयोजनमूलक भाषा में कुछ नियम अनिवार्य हो जाते हैं। हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाने के संदर्भ में लेखकों और बुद्धिजीवियों की उदासीनता मुझे कभी-कभी हैरान करती है।
November 14 at 7:12pm · Like
Mosam Rani AAP SAHI KAHTE HO BILKUL SAHI PAR SABHI LOG ISKO LIKH TO GALT TARIKE SE HI RAHE HAIN NA. KAYA KAR SKTE HAIN HUM ABB BATO..............................
November 14 at 9:51pm · Like
Raj Kishore आपसे पूरी तरह सहमत हूँ।
November 14 at 10:23pm · Like
Priyankar Paliwal हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह यूनीकोड कन्सिर्शियम से प्रमाणित अन्तरराष्ट्रीय प्रतीक चिह्न है . साहित्य में इसका प्रयोग रवानी/प्रवाह/भाषा के स्वभाव के हिसाब से चाहे जैसे करें पर वाणिज्य/अर्थशास्त्र/बैंकिंग आदि में इसका प्रयोग उस डोमेन की सुविधा और सुरक्षा के हिसाब से ही निर्धारित होगा.सामान्यतः प्रपत्रों/चैक आदि में प्रतीक चिह्न पहले मुद्रित करना अधिक सुविधाजनक होता है . भले ही यह गद्यांश के बीच में गतिअवरोधक की तरह अटपटा लगे.
November 14 at 10:49pm · Unlike · 3 people
प्रवीण त्रिवेदी Praveen Trivedi प्रतीक चिन्ह या तो पहले लगता या फिर बाद में !
फिर भी इसमें इतने प्रश्न समाहित ?
गुलामी की मानसिकता से लेकर साम्रज्यवाद तक !!
धन्य हुए हम!
November 15 at 12:25am · Like · 1 person
Priyankar Paliwal ‎* कन्सोर्टियम
November 15 at 5:27pm

प्रो. तुलसी राम की आत्‍मकथा 'मुर्दहिया' का एक अंश

प्रो. तुलसी राम की आत्‍मकथा 'मुर्दहिया' का एक अंश
by गंगा सहाय मीणा on Friday, November 26, 2010 at 2:02am

... इसी बीच बड़ी तेजी से गांवों में एक अफवाह उड़ गयी कि साधुओं के वेष में मुड़िकटवा बाबा, घूम घूम कर बच्चों का सिर काट कर ले जा रहे हैं। धोकरकसवा बाबा' तथा लकड़सुघवा बाबा' की भी अफवाह खूब फैली। कहा जाने लगा कि धोकरकसवा बाबा बच्चों को पकड़ कर अपनी धोकरी (यानि भिखमंगे जोगियों के कंधे पर लटकने वाला बोरीनुमा गहरा झोला) में कस कर बांध देते हैं जिससे वे मर जाते है। तथा लकड़सुघवा बाबा एक जादुई लकड़ी सुंघा कर बच्चों को बेहोश करके मार डालते हैं। हमारे गांव में अफवाह उड़ी कि ये तीनों प्रकार के बाबा लोग गांव के चारों तरफ विभिन्न सीवानों तथा मुर्दहिया के जंगल में छिपे रहते हैं और वे बच्चों को वहीं ले जाकर मारते हैं। मुर्दहिया में गांव के मुर्दे जलाये तथा दफनाये जाते थे। यहीं गांव का श्मशान था तथा गांव के आसपास पीपल के पेड़ों पर भूतों ने अपना अड्डा बना लिया है। ये घटनाएं भी नौ ग्रहों के मेल के कारण हो रही हैं, जिसके कारण एक भारी गदर होने वाला है। इन अफवाहों ने गांव के बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की जान सुखा दी। लोग डर के मारे संध्या होते ही घरों झोपड़ियों में बंद हो जाते थे। उस समय दलितों के अधिकतर घरों में लकड़ी के दरवाजे या केवाड़ी नहीं होती थी। केवाड़ियों के नाम पर बांस के फट्ठों को कांटी ठोक कर एक पल्ले को केवाड़ीनुमा बना लिया जाता था, जिसे ÷चेंचर' कहा जाता था। इन चेंचरों को दरवाजों में फिट कर दिया जाता था तथा उन्हें बंद करने के लिए सिकड़ी की जगह रस्सी से काम लिया जाता था। अतः रस्सी से बंधे चेंचरों की आड़ में सो रहे दलित रात भर इस चिन्ता में पड़े रहते थे कि यदि मुड़िकटवा बाबा आ गये तो बड़ी आसानी से चेंचरों को तोड़ कर लोगों को मार डालेंगे। जहां तक इन बाबाओं के सीवानों तथा मुर्दहिया में छिपे रहने का सवाल है, हमारे गांव का भूगोल काफी रोचक है। उन दिनों यानि आज से ठीक पचास साल पूर्व हमारे गांव के पूर्व तथा उत्तर दिशा में पलाश के बहुत घने जंगल थे जिसमें, पीपल, बरगद, सिंघोर, चिलबिल, सीरिस, शीशम, अकोल्ह आदि अनेक किस्म के अन्य वृक्ष भी थे। गांव के पश्चिम तरफ करीब एक किलोमीटर लम्बा चौड़ा ताल था, जिसमें बारहों महीने पानी रहता था। इस ताल में बेर्रा, सेरुकी, पुरइन, तिन्ना तथा जलकुम्भी आदि जैसी अनेक जलजीवी बनस्पतियां पानी को ढंके रहती थीं। रोहू, मंगुर, गोंइजा, बाम, पढ़िना, टेंगरी, गिरई, चनगा, टेंगना, भुट्टी, चल्हवा, सिधरी, कवई आदि जैसी अनेक मछलियों की भी भरमार थी। इस ताल की सबसे ज्यादा छटा बिखरती थी उसमें पनडुब्बी काली मुर्गियां, बिगौंचौ तथा अनगिनत सफेद बगुलों जैसे पक्षियों के निवास से। इस ताल के किनारे ढेर सारे पेड़ थे जिसमें एक बड़ा पीपल का भी पेड़ था जिस पर लोगों के विश्वास के अनुसार ताल का खतरनाक भूत रहता था। दक्षिण तरफ खेत ही खेत थे। इस भूगोल में विभिन्न दिशाओं में स्थित खेती लायक जमीन को पूरे क्षेत्रा का सीवान कहते थे जिनके अलग अलग नाम थे। हमारे गांव के सीवान क्रमशः पूरब में मुर्दहिया, उत्तर में भर्यैया, सरदवा, टड़िया, पश्चिम में समण्डा, महदाई माई, परसा, तथा दक्षिण में गुदिया के नाम जाने जाते थे। इसी तरह क्रमशः टड़वा, भुजही, लक्खीपुर, भटगांवा अमठा, दौलताबाद, मठिया, पारूपुर, परसूपुर तथा चतुरपुरा नामक विभिन्न पड़ोसी गांव थे। दौलताबाद के बाद वाला पश्चिमी गांव विश्वविख्यात बौद्ध तथा कम्युनिस्ट विद्वान महापंडित राहुल सांकृत्यायन का गांव कनैला था। इन्ही सीवानों से घिरे हमारे धर्मपुर गांव के सबसे उत्तर में अहीर बहुल बस्ती थी जिसमें एक घर कुम्हार, एक घर नौनिया, एक घर गड़ेरिया तथा एक घर गोड़ (भड़भूजा) का था। बीच में बभ्हनौटी (ब्राह्मण टोला) तथा तमाम गांवों की परम्परा के अनुसार सबसे दक्षिण में हमारी दलित बस्ती। एक हिन्दू अंधविश्वास के अनुसार किसी गांव में दक्षिण दिशा से ही कोई आपदा, बीमारी या महामारी आती है, इसलिए हमेशा गांवों के दक्षिण में दलितों को बसाया जाता था। अतः मेरे जैसे सभी लोग हमारे गांव में इन्हीं महामारियों आपदाओं का प्रथम शिकार होने के लिए ही दक्षिण की दलित बस्ती में पैदा हुए थे। साथ ही गांव का भौतिक भूगोल उन तमाम भुतही खूनी अफवाहों के लिए प्राकृतिक रूप से बेहद अनुकूल था। मुर्दहिया, भर्थैया तथा ताल के पास वाली सीवान परसा तो इन भूतों की भूमिगत बस्तियां थीं ही। इन अफवाहों के बीच मुर्दहिया सबसे डरावनी बन गयी थी। गर्मी के दिनों में वहां हजारों बड़े बड़े पलाश के पेड़ एकदम सूर्ख लाल टेंसुओं (फूलों) से लद जाते थे। दूर से देखने पर लगता था कि जलती हुई लाल आग की रक्तीली लपटें हिलोरें ले रही हैं। उन्हें देख कर ऐसी भी अनुभूति होती थी कि मानों मुर्दहिया की बुझी हुई चिताएं पलाश के पेड़ों पर चढ़ कर फिर से प्रज्ज्वलित हो गयी हों। आम दिनों में भी गांव के लोगों का कहना था कि दोपहर के समय तो मुर्दहिया पर कदापि नहीं जाना चाहिए, क्योंकि भूत उस समय बहुत गुस्से में होते हैं और वे कटहवा कुत्तों के वेष में घूमते हैं। किसी के मिल जाने पर उसे नोंच नोंच कर खा जाते हैं। लाल टेंसुओं से लदे ये पलाश के पेड़ जहां एक तरफ अत्यंत मनमोहक लगते थे, वहीं उनके मुर्दहिया पर होने के कारण इन पेड़ों की लालिमा बेहद डरावनी छवि प्रस्तुत करती थी, विशेष रूप से चांदनी रात में वे खून में लथपथ किसी घायल व्यक्ति जैसे प्रतीत होते थे। इसी दौरान हमारे ग्रामीण क्षेत्राों में हैजे की महामारी आयी जिसका सबसे जबर्दस्त असर पूरब में मुर्दहिया से थोड़ी दूरी पर पड़ोसी गांव टड़वां में पड़ा। हमारी मुर्दहिया और टड़वां के बीच से होकर वह नाला बहता था जो प्राइमरी स्कूल से होकर आगे बढ़ते हुए लगभग पांच मील दूर स्थित मंगही नदी में मिल जाता था। इन गांवों में किसी दिन किसी एक के भी हैजे से मरने पर पचासों के मरने की अफवाह उड़ जाती थी, जिससे बड़ा चिन्ताजनक माहौल पैदा हो गया था। फिर भी बड़ी भारी संख्या में लोग मरे थे। हमारी मुर्दहिया के आसपास की जंगली जमीन मुर्दों से पट गयी थी, विशेष रूप से नाले के तीरे तीरे अनेकों कब्रें उग आयी थीं। एक प्रथा के अनुसार दलितों की कब्रों पर छोटी छोटी डंडियों में लाल कपड़े की झंडियां गाड़ दी जाती थीं। एक सिरे से देखने पर हवा के झोकों से फडफड़ाती ये झंडियां ऐसे लगती थीं कि मानों भूतों की लाल लाल फसलें तैयार होकर लहलहा रही हों। हैजे से मरे हुए लोगों की लाशों से लोग इतना डरे हुए थे कि बहुत छिछली सी कब्रें जल्दी जल्दी खोद कर उन्हें दफना देते थे। गन्ने तथा अन्य बड़ी फसलों में बड़ी संख्या में छिपे हुए सियारों ने वहां से निकल कर मुर्दहिया तथा उस नाले के आसपास अपना बसेरा बना लिया था। ये सियार छिछली कब्रों को खोद कर अक्सर लाशों को चिचोरते हुए नजर आते थे। रोज स्कूल जाते हुए ऐसा नजारा देखना हमें अत्यंत भयभीत कर देता था। उनके बारे में अफवाह फैली हुई थी कि मुर्दा खाने से ये सियार पागल हो जाते हैं इसलिए आदमी को दौड़ा कर वे काट कर खा जाते हैं। इस डर से कोई उन्हें भगाने नहीं जाता था और न कोई उन बचीखुची लाशों को फिर से दफनाने ही जाता। यह बड़ा ही हृदय विदारक दृश्य होता। जिनकी लाशों को सियारों के खूंखार जबड़ों से गुजरना पड़ता, पता चलने पर उनके सगे सम्बंधियों का, विशेष रूप से औरतों का वर्णनात्मक शैली में गा गाकर रोना दिल को दहला देता था। उधर रातों में मुर्दाखोर सियारों का हुवां हुवां वाला शोर बच्चों को बहुत डराता था, किन्तु मेरी दादी कहती कि मुर्दहिया के सारे पुराने भूत अपनी बढ़ती हुई आबादी से खुश होकर नाचते हुए सियारों जैसा गाना गाते हैं। दादी द्वारा प्रस्तुत भूतों की इस नृत्य विद्या तथा गायन शैली से मैं बहुत घबड़ा जाता था। दादी यह भी कहती थी कि महामारी में मरने वाली औरतें नागिन बन कर घूमती हैं। उनके काटने से कोई भी जिन्दा नहीं बचता। दादी मुझे अक्सर याद दिलाती कि किसी झाड़ी झंखार से गुजरते हुए ÷जै राम जमेदर' जरूर दोहराते जाना। ऐसा कहने से नाग नागिन भाग जाते हैं। मैं दादी की सारी बातों को इस धरती का अकाट्य अंतिम सत्य मानता था। इसलिए अक्षरशः उसका पालन करता था और जब भी किसी कंजास से गुजरता, मैं ÷जै राम जमेदर, जै राम जमेदर' रटता जाता, किन्तु इस मंत्रा की गुत्थी न दादी जानती थी और न गांव का कोई अन्य। दादी इस तरह की अनसुलझी गुत्थियों की ÷इनसायक्लोपीडिया' थी। अतः मेरे समझने का सवाल ही नहीं खड़ा होता था। जब मैंने काफी बड़ा होकर ÷महाभारत' पढ़ा तब जाकर यह गुत्थी सुलझ पायी, वह भी यह जानने पर कि पौराणिक वीर अर्जुन के पौत्रा राजा परीक्षित के बेटे का नाम जनमेजय था, जिन्होंने सांपों को मारने का एक सर्पयज्ञ' करा कर उन्हें हवनकुंड में जला दिया था। तभी से धरती के सारे सांप जनमेजय का नाम सुनते ही अपनी जान बचाने के लिए भाग जाते हैं। जनमेजय ने सांपों से क्रुद्ध होकर इस सर्पयज्ञ को इसलिए कराया था क्योंकि तक्षक नाग के काटने से उनके पिता परीक्षित की मृत्यु हो गयी थी। दादी इसी पौराणिक गाथा को सम्भवतः अपनी दादी से सुन कर जनमेजय का तद्भव अपनी भाषा में ÷जमेदर' कहती थी। दादी के इस मंत्रा की सच्चाई चाहे जो भी हो, मैं जब तक गांव में रहा, जै राम जमेदर' के दम पर ही भुतनी नागिनों को भगाता रहा।छुट्टी के दिन दलित बस्ती के अन्य बच्चों के साथ मैं भी गोरू यानि घर के पालतू जानवरों गाय, भैंस और बकरियों को चराने के लिए ले जाता था, या यूं कहिए कि चराने जाना पड़ता था। संयोगवश दूब वाली घास की चारागाहें मुर्दहिया के ही जंगली क्षेत्रा में थीं। इसलिए वहीं चराने की मजबूरी थी। गर्मियों के दिन में इन जानवरों को चराते समय कभी कभी एक अनहोनी हो जाती थी, वह थी सियारों द्वारा बकरियों का अचानक मुंह से गला दबा कर मार डालना। हम बच्चे जानवरों को चरने के लिए छोड़ छोटे छोटे पेड़ों पर चढ़ कर लखनी' अथवा ओल्हापाती' नामक खेल खेलने लगते थे। इस खेल में एक दो फीट पतली लकड़ी पेड़ के नीचे रख दी जाती, फिर एक लड़का पेड़ से कूद कर उस लकड़ी जिसे ÷लखनी' कहा जाता था, को उठा कर अपनी एक टांग ऊपर करके उसके नीचे से फेंक कर पेड़ पर पुनः चढ़ जाता था। जहां लखनी गिरती थी, पेड़ के नीचे खड़ा दूसरा लड़का उसे उठा कर दौड़ता हुआ पुनः पेड़ के नीचे आकर उसी लखनी से पहले वाले को जमीन से ऊपर कूद कर छूने की कोशिश करता वह भी सिर्फ एक बार में। यदि उसे छू लिया तो पेड़ चढ़े लड़के को मान लिया जाता कि वह अब ÷मर' चुका है, इसलिए वह खेल से बाहर हो जाता था। फिर लाखनी से छूने वाला लड़का विजेता हो जाता। इस ÷मरे' हुए लड़के को पेड़ के नीचे खड़ा होना पड़ता तथा विजेता पेड़ पर चढ़ जाता और खेल की वही प्रक्रिया पुनः दोहरायी जाती। परिणामस्वरूप कोई मरता और कोई विजेता बनता रहता। मुर्दहिया पर खेला जाने वाला यह खेल हम बच्चों के बीच अत्यंत मनोरंजक होता था, किन्तु इसी मनोरंजन के दौरान प्रायः सियारों का बकरियों पर हमला हो जाता था और बकरियों का गला उनके तेज जबड़ों में दबते ही वे मुश्किल से मात्रा एक बार जोर जोर से बें बें करके शांत हो जाती। उनकी ये बें बें सुन कर जब तक हम बच्चे अपनी लाठियां लेकर सियारों को दौड़ा कर भगाते, तब तक उन बकरियों की कथित ÷आत्मा' को वास्तविक शांति मिल चुकी होती। लखनी का हमारा यह खेल भुतही मुर्दहिया को फिर से मंचित कर देता। हम सभी बच्चे मरी बकरी को ठिठराते हुए बस्ती में डरते डरते आते। ऐसी बकरियों की मसालेदार दावतें तो लोग खूब उड़ाते, किन्तु बकरी चराने वाले बच्चे की पिटाई हर दावत के पहले एक आवश्यक कर्मकांड बन चुका था। एक बार हमारा एक बकरा इसी लखनी के खेल में सियारों का शिकार बन गया। यह बकरा मनौती वाला था, जिसकी बलि चमरिया माई को देनी थी। जब मैं उसी ठिठराते की प्रक्रिया से बकरे को लेकर घर पहुंचा तो वही पूर्वोक्त आवश्यक कर्मकांड शुरू हो गया। ऐसे कर्मकांडों के शास्वत पुरोहित वहीं मेरे अति गुस्सैल नग्गर चाचा हुआ करते थे। मेरी तत्काल जो धुनाई हुई, वह तो हुई ही, किन्तु कई दिनों तक समय समय पर चेचक की शिकार मेरी ज्योति विहीन दायीं आंख उनके रौद्र संचालित जबान का असली निशाना बनी रही। बार बार दोहराई जाने वाली वह पुरानी कनवा कनवा' की बौछार उन सियारों के जबड़ों से कई गुना ज्यादा तेजी से मेरे मस्तिष्क को बेंधती थी। चूंकि वह चमरिया माई को बलि चढ़ाने वाला मनौती का बकरा था, इसलिए किसी अनहोनी का मानसिक भय काफी दिनों तक मुझे सताता रहा। दादी ने अगियारी करनी शुरू कर दी। उसने चमरिया माई का बार बार जाप करते हुए एक दूसरे बकरे के साथ छौना, यानि सूअर के बच्चे की भी बलि चढ़ाने की मनौती की, साथ ही मुझे माफ कर देने की भी विनती की। दादी कहती थी कि चमरिया माई को छौना बहुत पसंद है, इसलिए उसकी बलि पहले दी जाएगी। कुछ दिनों के बाद लगभग चार किलो का एक छौना खरीदा गया। दादी ने कहा कि इसकी बलि मेरे ही हाथों दी जाएगी, तभी चमरिया माई मुझे माफ करेंगी। मैं बहुत घबड़ाया हुआ था। इसलिए बलि देने में मुझे जरा भी हिचक नहीं हुई। उस छौने को हम चमरिया माई के उसी कटीली झाड़ी वाले टीले पर ले गये। इस टीले को ÷कोटिया माई' थान भी कहा जाता था। मेरे एक चचेरे भाई चौधरी चाचा के सबसे छोटे बेटे सोबरन मेरे साथ लाठी लेकर गये। वे छौना को लिटा कर लाठी को उसके पेट के बीचोंबीच रख कर ताकत के साथ उसे दबा रखा ताकि वह उछले नहीं। लाठी से दबाते समय छौना जोर जोर से चोकरने लगा। मैं बिल्कुल डर गया, किन्तु दादी की हिदायत के अनुसार मैंने हिम्मत जुटा कर साथ ले गये एक छोटे से गड़ासे को फिर से पत्थर पर घिस कर उसकी धार को और तेज किया और एक बार जोर से बोला :बोला बोला चमरिया माई की जै।'' मेरे साथ यह नारा सोबरन भैया ने भी दोहराया, फिर मैंने गड़ासे को छौने की नटई की तरफ खड़ा करके आंखें मूद कर अधाधुंध रेतने लगा। छौने का चोकरना कई बार तेज होकर शीघ्र ही शांत हो गया और उसकी गर्दन बिल्कुल अलग। मैंने दादी के कहने के ही अनुसार बहते हुए खून को हाथ में रोप कर चमरिया माई के थान पर रखे हुए मिट्टी के हाथी घोड़ों के ऊपर छिड़क दिया और सियार द्वारा बलि के बकरे को मार डालने के अपने गुनाह के लिए उनकी विनती की। इसके बाद हम बलि चढ़ाये छौने को लेकर घर वापस आ गये। हमारे घर के सभी लोग सूअर का मांस खाते थे, किन्तु एक परम्परा के अनुसार जहां रोज का खाना मिट्टी से बने चूल्हे पर लकड़ी जला कर पकाया जाता, वहां इसे कभी नहीं पकाया जाता, जबकि मुर्गा, मछली तथा बकरे का मांस वहां पकता था। सूअर का मांस हमेशा घर के बाहर खुले मैदान में ईंट का चूल्हा बना कर बड़े हंडे में पकाया जाता था। सूअर का मांस हमेशा मुन्नर चाचा पकाते और सबको वे ही बांटते भी थे। उस दिन जब मेरे द्वारा बलि वाला छौना पकाया जा रहा था, तो मुन्नर चाचा ने मुझे एक छोटा सा बांस का सोटा पकड़ा कर कहा कि बटुले (हंडा) की तरफ ध्यान से देखते रहना, वरना सूअर का बच्चा निकल कर भाग जाएगा। मैं छौने के भाग जाने की उस कल्पित सम्भावना से चिन्ताग्रस्त होकर बड़ी मुस्तैदी से वहां खड़ा रहता। मुझे बार बार यह संदेह होता कि जिस छौने को मैंने ही काटा है, वह पकते समय बटुले से निकल कर कैसे भाग सकता है, किन्तु घर के उस घोर अंधविश्वासी वातावरण में मैं इस कोरी कल्पना को भी अकाट्य सत्य समझने पर मजबूर था। मुझे यह मनोवैज्ञानिक भय भी सताता रहता कि यदि छौना बटुले से भाग गया, तो गुसौल गगार चाचा का मुकाबला कैसे करूंगा? मुझे बाद में समझ में आया कि मुन्नर चाचा का वह एक निर्दोष मजाक था। बाद में बस्ती के अन्य लोगों में यह मजाक फैल गया और लोग इस घटना को दोहरा दोहरा कर खूब मजा लेने लगे। किन्तु जब तक मैं इस मजाक में निहित मनोरंजन की सच्चाई को समझूं, उसके पहले लाठी लेकर सूअर पकते बटुले की कई बार रखवाली कर चुका था। मेरी दादी भी खूब हंसती और कहतीः त मुरूख हउवे रे।'' इस तरह की एक विचित्रा मूर्खता का शिकार मैं लगभग उसके कुछ ही दिन बाद कक्षा तीन में पढ़ते हुए स्कूल में बन गया था। मेरी कक्षा के सहपाठी मुल्कू ने एक दिन अपने गांव हनौता से बड़े बड़े बेर के फल लाये थे। उन्होंने कुछ बेर मुझे भी दिया। एक बेर खाते खाते उसका बीज भी अचानक घोंट लिया। साथ ही बेर खा रहे मुल्कू ने जब बेर का बीज घोटते हुए देखा, तो तुरंत उन्होंने अन्य बच्चों से कहना शुरू कर दिया कि इसने (मैंने) बेर का बीया (गुठली) घोंट लीया है और अब इसके पेट को फाड़ कर बेर का पेड़ निकलेगा। इतना सुनते ही अन्य बच्चे भी इस ÷सत्य' को दोहराने लगे। डर के मारे मैं बेहाल हो गया। कई दिनों तक पेट से पेड़ निकलने की आशंका से ग्रस्त होकर ठीक से सो नहीं सका। डर के मारे घर में भी किसी से कुछ न बताया। चुपके से चमरिया माई को धार और पुजौरा चढ़ाने की मनौती माना और विनती की कि हे चेमरिया माई उस सम्भावित पेड़ को पेट में नष्ट कर दे। कई दिनों बाद कक्षा के मेरे सबसे गहरे साथी संकठा सिंह जिन्होंने मुझे अक्षर लिखना सिखाया था, के समझाने पर मैं समझ पाया कि पेट में किसी भी बीज से पेड़ नहीं निकलता। मैंने बाद में चमरिया माई को मनौती वाला धार पुजौरा उसी स्थान पर जाकर चढ़ाया। इस घटना के बाद कई वर्षों तक मैं मनोवैज्ञानिक भय के कारण बेर खाने से घबड़ाता रहा। सूअर पकते बटुले की रखवाली तथा पेट से बेर के पेड़ के उगने की सम्भावना वाली मूर्खताओं को याद करके मैं आज भी एक विचित्रा ढंग से स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूं।सन्‌ 1957 का वर्ष मेरे साथ साथ गांव की सारी बस्ती के लिए बहुत घटनाप्रधान था। मुर्दहिया के पास वाली सीवान भर्थैया के घने जंगल में हमारे गांव के एक अहीर पौहारी बाबा (पावहारी बाबा) एक झोपड़ी बना कर रहते थे। उनकी झोपड़ी से आधा किलोमीटर दूर एक पेड़ के नीचे मचान बना कर पड़ोसी गांव टड़वा के एक ÷फक्कड़ बाबा' रहते थे। फक्कड़ बाबा लगभग नंग धडं+ग रहते थे। वे सिर्फ एक डेढ़ फीट लम्बी पतली सी कपड़े की चीर आगे पीछे अपनी करधनी में लपेटे रहते थे। पूरी देह में वे कंडे की राख हमेशा पोते रहते थे। जाड़े के दिनों में भी वे बिना कुछ ओढ़े सोते थे तथा किसी से कभी कुछ नहीं बोलते। वे पूर्णरूपेण मौनव्रती थे। उनके बारे में तरह तरह की किंवदंतियां फैली हुई थीं। कोई कहता कि वे भूतपूजक हैं, तो कोई उन्हें साक्षात जिन्दा भूत समझता। उनके मचान के आसपास कोई कभी नहीं जाता, खास करके जंगल में घास काटने वाली औरतें उनसे बहुत डरती थीं, क्योंकि उनके बारे में यह भी प्रचलित था कि वे औरतों को सम्मोहित करके देह शोषण करते हैं। वे कभी कभी घूमते हुए हमारे गांव भी आते थे और लोग उन्हें पैसा और सिद्धा (आटा, दाल आदि) देते। वे बिना कुछ बोले उसे लेकर वापस चले जाते। वे प्रतिदिन मिट्टी की हड़िया में कंडे की आग पर दिन में सिर्फ एक बार खाना पका कर खाते। इन तमाम विचित्राताओं के बीच एक दिन फक्कड़ बाबा को घसियारों ने मचान के बाहर मरा पड़ा देखा। शीघ्र ही उनके मरने की खबर क्षेत्रा के अनेक गांवों में फैल गयी। धीरे धीरे उनके मचान के पास गांव का गांव उमड़ पड़ा, हजारों की भीड़ लग गयी। क्योंकि फक्कड़ बाबा इन तमाम विवादमय अफवाहों के बीच चहुंदिश चर्चा में हमेशा बने रहते थे। मेरे पिता जी भी उनकी लाश को देखने गये थे। लौट कर उन्होंने बताया कि कुछ आदमी रात में उन्हें ÷घाठा लउर' देकर मार डाले थे, शायद पैसों के लालच में। ÷घाठा लउर' के बारे में पिता जी ने परिभाषित करते हुए बताया कि दो लाठियों के बीच आदमी की नटई दबा कर उसका दम घोट दिया जाता है। इसी को घाठा लउर कहा जाता है जिससे बहुत घुट घुट कर तकलीफ के बाद कोई आदमी मरता है और आवाज नहीं निकलती। पिता जी ने यह भी बताया कि ÷घाठा लउर' से मारे जाने की पहचान मृतक के गले में नीला निशान बन जाने तथा जीभ के मुंह से बाहर निकल जाने से होती है, जैसा कि फक्कड़ बाबा के साथ हुआ था। फक्कड़ बाबा की हत्या से हमारे गांव में बड़ी दहशत फैल गयी। अफवाह उड़ गयी कि इलाके के सारे भूत आयेंगे और इकट्ठा होकर लोगों से चुन चुन कर फक्कड़ बाबा की हत्या का बदला लेंगे। भूतों का भय इतना फैल गया कि लोगों का भर्थैया की तरफ जाना बंद हो गया। हमारे गांव के कई दलित भूतों की पूजा करते थे और उनमें से हर एक के भूत बाबा अलग अलग पीपल के पेडा पर रहते थे। हमारे घर के भूतबाबा वहीं पड़ोसी गांव दौलताबाद के पास वाले पुराने पीपल के पेड़ पर रहते थे। उस भूतबाबा को खुश करने के लिए फक्कड़ बाबा की हत्या के बाद पहली बार मुन्नर चाचा मुझे अपने साथ ले गये। हम लोग साथ में एक हड़िया दूध, एक सेर चावल तथा कुछ भेली और गाय बैल के गोबर से बने हुए सूखे गोइठे को भी ले गये थे। गोइठे का अहरा लगा कर हड़िया के दूध में चावल और भेली डाल कर ÷जाउर' (खीर) पकायी गयी, जिसमें से थोड़ा उस भूतबाबा वाले पीपल के पेड़ की जड़ पर चढ़ाया गया तथा एक लंगोट उसकी एक डाली में उस पर चढ़ कर मैंने बांध दिया। शेष जाउर को घर लाया गया जिसे परिवार के सभी लोग प्रसाद के रूप में खाये। इस चढ़ावे के बाद दादी का कहना था कि अब फक्कड़ बाबा की हत्या का बदला लेने वाले किसी अन्य भूत को हमारे खानदानी भूतबाबा हमारे परिवार के आसपास नहीं फटकने देंगे। दादी की इस बात से घर के सारे लोग पूर्णरूपेण आश्वस्त हो गये थे। बाद में ऐसी पूजाओं के लिए मुझे अकेला भेजा जाने लगा था। इस तरह की पूजाओं में भाग लेने के कारण मेरे अंदर एक अलग ढंग का विश्वास जगने लगा जिसके कारण धीरे धीरे मेरे मस्तिष्क से भूतों का डर दूर होने लगा। क्योंकि मुझे पूरा विश्वास होने लगा कि जब मैं स्वयं भूतबाबा को जाउर तथा लंगोट चढ़ाने जाता हूं, तो फिर उनसे डर कैसा? इसी बीच वर्षा के दिनों में मेरे सिद्धहस्त ÷मछरमरवा' पिता जी ने गांव के ताल के अंदर एक अखन्हा बांधा। पानी के अंदर गीली मिट्टी से गोल दीवार उठा कर पानी की सतह तक लाकर उसके ऊपर का हिस्सा हाथ से लीप कर चिकना बना दिया जाता है तथा गोल गड्ढे से छोटी हड़िया से पानी निकाल कर खाली कर दिया जाता है। इसी को अखन्हा बांधना कहते हैं। इस तरह के अखन्हा में मछलियां वहां से गुजरते हुए उसमें कूदने लगती हैं। पिता जी एक दिन रात में ऐसे ही एक ताल के एक अखन्हा से गगरी भर कर मंगुर तथा गिरई लेकर आ रहे थे। ताल के पास ही परसा नाम की सीवन में स्थित उस भुतहे पीपल के पास ही कुछ आम के पेड़ थे। रास्ता इन्हीं पेड़ों से होकर हमारे घर की तरफ आता था। पेड़ के पास पहुंचते ही पिता जी गगरी भरी मछलियां पटक कर हांफते हुए भाग कर घर पहुंचे। उनकी हालत बहुत खराब थी। पूछने पर घरवालों को उन्होंने डरते हुए बताया कि परसा का भूत आम के पेड़ों पर एक एक पत्ती पर दीया जलाये हुए था। इसलिए किसी अनहोनी से डर कर मैं गगरी वहीं पटक भाग आया। लोग बड़ी आसानी से विश्वास कर लिए। मैं भी उस रात बहुत डरा हुआ था। किन्तु यह तथ्य मेरे दिमाग में एक संदेह अवश्य पैदा किये हुए था कि इतने अधिक चिराग पेड़ पर कैसे जलेंगे? ठीक दूसरे दिन दलित बस्ती के आसपास के पेड़ों पर रात में देखा कि हजारों जुगनू जलते बुझते, चमकते हुए साफ नजर आ रहे थे। मैंने दादी को बताया कि लगता है, इन्हीं जुगुनुओं को पिता जी ने परसा के भूत का दीया जलाना समझ लिया था। दादी ने मेरा हवाला देकर यह बात घर में सबको बातायी। यह बात सुन कर नग्गर चाचा अपने पुराने ढर्रे वाली शाबाशी देते हुए बोल पड़े : कनवा एकदम सही कहत हव।'' शायद यह मेरे जीवन की पहली बुद्धिवादी तर्कणा थी।हमारे गांव की बभनौटी के पूरब दो पोखरे थे जिनमें से एक पुराना पोखरा दलित बस्ती के उत्तर में बहुत पास ही उसी चमरिया माई के स्थान के पास था। इस पोखरे के चारों तरफ भीटे के ऊपर बहुत पुराने बड़े इमली, पीपल और चिलबिल के पेड़ थे, जिन पर अनेक किस्म के पक्षियों के खोते थे। एक इमली के पुराने पेड़ पर मात्रा एक जोड़ा उल्लुओं का था, किन्तु चमगादड़ों का बहुत बड़ा जमघट था। थोड़ी दूर पर दलित बस्ती के पास एक बहुत पुराना बरगद का पेड़ था जो धीरे धीरे ठूंठा होता जा रहा था। इस ठूंठे बरगद पर सैकड़ों गिद्धों का बसेरा था। रात में अचानक मादा गिद्धों की चोकराहट से सारा वातावरण बड़ी कर्कशता के साथ जागृत हो जाता था। गांव के लोग कहते गिद्धों का प्रेमालाप चल रहा है। कई अवसरों पर गांव के अल्पवयस्क ब्याहता युवक आपस में बतियाते हुए सुनाई देते कि अमुक रात को गिद्धों से पे्ररित होकर वे ठीक से नहीं सो सके। किन्तु उस पुराने पोखरे के पेड़ों पर कभी कभी देर रात को किसी कारणवश दूसरे पक्षी भी चें चें कर उठते, विशेष रूप से जब उल्लुओं का वह जोड़ा कुडुक कुडुक करके जोर से चहकता तो उनकी एकदम अलग आवाज बड़ी दूर तक सुनाई पड़ती। उस आवाज को पूरा गांव अपशकुन मानता था। मेरी दादी की तरह अनेक औरतें यह कहतीं कि भूतों की पोखरे पर जब पंचायत होती हैं, तो उल्लू कुडुकते हुए शंख बजाते हैं जिससे पता चलता है कि ब्राह्मण भूतों की पंचायत हो रही है। हमारे गांव के पेड़ों पर एक चिड़िया महोखा जैसी लगती थी, वह खो खो करते हुए बोलती थी जिसे औरतें मरखउकी कहती थीं। यह मरखउकी भी बड़े अपशकुन की प्रतीक थी। इस मामले में गांव के कौए पार्ट टाइम अपशकुन थे। जब कभी कोई उड़ता हुआ कौआ किसी को पैरों या चोच से मार देता था, तो इसे भी अपशकुन माना जाता। यह अपशकुन इतना खतरनाक माना जाता था कि तुरंत घर के किसी व्यक्ति को सबसे नजदीकी रिश्तेदार के घर भेज कर यह संदेश दिया जाता कि अमुक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। मृत्यु की खबर सुन कर रिश्तेदार औरतों का तत्काल रोना शुरू हो जाता, लेकिन शीघ्र ही उन्हें बता दिया जाता कि मृत्यु नहीं, बल्कि कौए ने चोच मारी है। इस विधि से कौए का अपशकुन दूर किया जाता था। किन्तु ये कौए स्थाई अपशकुन नहीं होते थे, बल्कि जब वे किसी के घर या झोपड़ी की बडे+र पर चढ़ कर कांव कांव करते, तो घर की औरतें खुश होकर कौओं को दाने खिलातीं, क्योंकि उनको विश्वास था कि बड़ेर पर कांव कांव में किसी नजदीकी रिश्तेदार के घर आने की सूचना होती थी। वैसे सच्चाई तो यह थी कि हमारे गांव में निर्वंश जंगू पांड़े, विधवा पंडिताइन, पोखरे वाला उल्लू, खो खो करने वाली मरखउकी चिड़िया और मैं स्वयं, हम पांचों असली अपशकुन थे जिन्हें देख सुन कर लोगों की रूह कांप जाती थी। उधर मुर्दहिया के पलाश के टेंसू जब मुरझा कर जमीन पर गिरने लगते तो उनकी जगह सेम की चिपटी फलियों की जैसी पलाश की भी छः सात इंच लम्बी चिपटी फलियां जिन्हें दादी टेंसुल कहती थी, निकलने लगतीं। कुछ दिन बाद ये टेंसुल सूख कर गिर जाती थीं। मेरी दादी इन टेंसुलों को मुझसे घर पर लाने के लिए कहती। वह टेसुलों को फाड +कर उसी तांबे के बड़े सिक्कों डब्बल की तरह दिखाई देने वाले बीजों को निकाल कर एक बड़ी सींग में रखती। जब किसी बच्चे के पेट में केचुआ या अन्य कीडे+ पैदा हो जाते तो दादी सींग से पलाश के कुछ बीज निकाल कर देती और सिल लोढ़े से थोडे+ पानी के साथ उसका रख यानि घोल बना कर पिलाने को कहती जिससे सभी कीड़े मर कर बाहर निकल जाते थे। पलाश के बीज पेट के कीड़ों को मारने की एक अचूक दवा थे। दादी घर में बड़ी पुरानी पुरानी बैलों की बड़ी बड़ी सींगें रखे हुई थी। इन सींगों में वह हींग समेत अनेक प्रकार की खरबिरिया दवाएं रखती थी। एक सींग में वह साही नामक जानवर की सूखी हुई अतड़ियां पोटिया भी रखती थी। हमारे गांव की मुर्दहिया के जंगल में साही पायी जाती थी। कभी कभी गांव के युवक मिल जुल कर साही को ढूंढ कर दौड़ा दौड़ा कर लाठियों से मार डालते थे। साही का मीट बहुत स्वादिष्ट होता था। मैंने भी कई बार साही का मीट खाया था। जब भी साही मारी जाती, दादी उसकी अतड़ियों पोटियों को खूब साफ करवा कर पानी में धुलवा लेती और सूखने के बाद ये अतड़िया सूखी लकड़ी की तरह चटाचट टूट जातीं। दादी इन्हें सींग में भर कर रख लेती। जब किसी का पेट दर्द करता, थोड़ी सी अतड़ी पोटी तोड़ कर उसे सिल पर दो चम्मच पानी डाल कर वही रख बना कर सुतुही से पिला देती। पेट दर्द तुरंत बंद हो जाता। दालचीनी तथा बांस का सीका पीस कर ललाट पर लगाने से सिरदर्द बंद हो जाता था। दादी इस तरह एक बैद्य भी थी। वह पैसों की रेजगारी को भी सींग में रखती थी। दलित बस्ती की कुछ अन्य बुढ़िया औरतें भी इस तरह के काम के लिए सींग का इस्तेमाल करती थीं। जाहिर है मरे पशुओं का डांगर खाने वाले दिनों में दादी बड़ी बड़ी सींगों को भी मुर्दहिया से काट लाती थी। वर्षों बाद जब मैंने बौद्ध त्रिापिटक पढ़ा तो उससे पता चला कि गौतम बुद्ध के महापरिनिवार्ण के ठीक सौ साल बाद करीब चौबीस सौ वर्ष पूर्व वैशाली में विद्वान भिक्षुओं की द्वितीय महासंगीत यानि बुद्ध के उपदेशों का संगायन हुआ तो उसमें दस संशोधन किये गये थे, जिनमें पहला ही संशोधन था ÷सिडि.लोण काप्प' यानि भिक्षा के समय जानवर की एक खाली सींग में नमक भर कर ले जाना। विनय पिटक में किसी बौद्ध भिक्षु के लिए किसी भी प्रकार की खाद्य सामग्री या धनसंचय की मनाही है, किन्तु इस संशोधन से मौलिक बौद्ध नियमों का उल्लंघन हुआ। इसका मूल कारण यह था कि भिक्षा में अकसर नमक नहीं मिलता था, इसलिए भिक्षु लोग बिना नमक का ही खाना पका कर खाते थे। इस व्यावहारिक कठिनाई से बचने के लिए यह संशोघन किया गया था, ताकि नमक मांग या खरीद कर सींग में रखा जा सके। तभी से सींग में संचय की यह बौद्ध प्रथा जारी हुई। दादी द्वारा दवाएं तथा पैसा, यहां तक कि सूई डोरा भी रखना सिद्ध करता है कि हमारे खानदान वाले सदियों पूर्व कभी खांटी बौद्ध अवश्य रहे होंगे। दादी की वे सींगें इसका प्रमाणहै।मुर्दहिया के संदर्भ में सन्‌ 1957 का ÷भादों' का महीना मेरे जीवन का एक विशेष यादगार वाला महीना है। उस समय हिन्दू धर्म के अनुसार ÷खरवांस' यानि बहुत अपशकुन वाला महीना था। इस बीच मेरे पिता जी जिस सुदेस्सर नामक ब्राह्मण की हरवाही करते थे, उनकी बुढ़िया मां मर गयी। उनके ही पट्टीदार अमिका पांड़े ने ÷पतरा' देख कर बताया कि अभी पंद्रह दिन खरवांस है, इसलिए मृत मां का दाह संस्कार नहीं हो सकता। यदि ऐसा किया गया तो माता जी नर्क भोगेंगी। उन्होंने सुझाव दिया कि माता जी की लाश को मुर्दहिया में एक जगह कब्र खोद कर गाड़ दिया जाय, तथा पंद्रह दिन बाद निकाल कर लाश को जला कर दाह संस्कार हिन्दू रीति से किया जाय। मेरे पिता जी मुझे लेकर मुर्दहिया पर कब्र खोदने गये। वे फावड़े से कब्र खोदते रहे और मैं मिट्टी हटाता रहा। जब कब्र तैयार हो गयी तो सुदेस्सर पांड़े अपने पट्टीदारों के साथ लाश को लाकर उस कब्र में डाल दिये। तुरंत उसको मिट्टी से पाट दिया गया। दफनाने से पहले टोटकावश सुदेस्सर पांडे ने कफन के एक कोने में सोने की मुनरी गठिया दी थी। एक अंधविश्वास के अनुसार किसी लाश के कफन में सोना बांधने से वह जल्दी नहीं सड़ेगी। ऐसा ही ब्राह्मणों के सुझाव पर किया था। पिता जी ने कुछ कटीली अकोल्ह की झाड़ियां काट कर कब्र के उपर डाल दी थीं, ताकि लाश को सियारों से बचाया जा सके। ऐसा करके सभी अपने घर लौट आये। सुदेस्सर पांड़े रोज मेरे पिता जी को मुर्दहिया पर भेजते कि वे कब्र को देख आवें, क्योंकि सियारों द्वारा खोद कर लाश को खा जाने की आशंका हमेशा बनी रहती थी. पिता जी काम में व्यस्तता के कारण दो चार दिन बाद स्वयं न जाकर मुझे कब्र देखने के लिए शाम के समय स्कूल से लौटते हुए मुर्दहिया पर जाने की हिदायत देते रहे। मैं वैसा ही करता था किन्तु कब्र के नजदीक नहीं जाता। थोड़ा दूर से ही देख लेता। वैसे स्कूल का रास्ता भी मुर्दहिया के पास से ही गुजरता था। इस तरह पंद्रह दिन जैसेतैसे बीत गये और पिता जी के साथ मेरी भी कब्र की रखवाली की अवधि समाप्त हो गयी साथ ही खरवांस भी गुजर गया। अब बारी थी पांड़े की माता जी को कब्र से बाहर निकाल कर उनकी लाश को जलाने की। मेरे पिता जी उन पंद्रह दिनों के दौरान प्रायः यह कहते थे कि कहीं कोई चोर डाकू उस सोने की मुनरी के लालच में कब्र खोद कर लाश को बाहर न कर दे। यदि ऐसा हुआ तो बड़ा अनर्थ होगा। सुदेस्सर पांड़े की हरवाही से पिता जी का इतना लगाव था कि वे उनकी माता जी की लाश को लेकर पांड़े से कहीं ज्यादा चिन्तित रहते थे। आखिर लाश निकालने का समय अमिका पांड़े के उस दैवी पतरा के अनुसार निर्धारित किया गया। सुदेस्सर पांड़े दो चार फावड़ा मिट्टी हटा कर दूर खड़े हो गये। सड़ांध आने के डर से उनके पट्टीदार भी दूर भाग गये। पिता जी कब्र की मिट्टी फावड़े से हटाते रहे। किनारे लायी गयी भुरभुरी मिट्टी फिर से कब्र में न गिरने पावे इसके लिए पिता जी मुझे मिट्टी पीछे ठेलने के लिए कहते रहे। मैं वैसा ही करता रहा। अंततोगत्वा कब्र में कफन वाला सफेद कपड़ा दिखाई देने लगा। यकायक उस सड़ी लाश की दुर्गन्ध से सारा वातावरण डगमगा गया। सुदेस्सर पांड़े भी मुंह पर गमछा बांधे दूर भाग गये, और वहीं से पिता जी से कहते रहे कि वे सोने वाली मुनरी को पहले ढूंढ कर कफन से निकाल लें। यह एक अजीब स्थिति थी। उस दिन मेरे मन में पहली बार यह बात समझ में आयी थी कि किसी के लिए मां की लाश की अपेक्षा सोना कितना प्रिय था। पिता जी ने मुझे भी गमछा मुंह पर बांध लेने को कहा। मैंने वैसा ही कर लिया। उस समय सारे ब्राह्मण वहां से चम्पत हो गये। सुदेस्सर पांड़े भी दूर ही खड़े रहे। पिता जी ने जैसे तैसे सड़ी लाश को पैर की तरफ से उठा कर मेरे हाथों में पकड़ा दिया और स्वयं सिर की तरफ से पकड़ लिया। आपार दुर्गन्ध और घृणा से मजबूर हम दोनों ने उस लाश को बाहर निकाल कर पहले से ही पास में सजायी चिता पर रख दिया। कफन से छुड़ा कर उस सोने की मुनरी को धूल से रगड़ कर पिता जी ने सुदेस्सर पांड़े के हवाले कर दिया। वे बड़ी मुश्किल से मुंह नाक बांध लाश के पास आये और आग जला कर चिता को जला दिये। पांड़े पुनः भाग कर दूर चले गये। वहां सिर्फ मैं और पिता जी खड़े रहे और लाश को जलाते रहे। इस बीच आग कम होती देख कर पिता जी ने पलाश की डालियां तोड़ कर चिता में डाल दीं। उधर सूरज डूबने वाला था। धीरे धीरे अंधेरा फैल रहा था। बड़ा डर लगने लगा जैसे तैसे लाश जलायी गयी और हम घर फावड़ा लेकर वापस आ गये। हमारे घर के पीछे एक छोटी सी पोखरी थी। हम उसमें जाकर खूब नहाये। पिता जी ने नहाने के बाद उसी अपने द्वारा लगाये गये पीपल के पेड़ की जड़ के पास घी का दीया जला कर पूजा की। पूजा की विधि उनकी वही चिर परिचित रो रो कर किसी से बाते करने वाली जैसी उस दिन भी रही। मुर्दहिया न जाने कितने वर्षों से अनगितन लोगों के दुख दर्द को जला कर राख करती आ रही थी। और न जाने कितने लोगों के दुख को अपनी धरती में दफना लिया था। और आगे भी इन दुखों को जलाती दफनाती रहेगी। उस दिन मुझे भी बड़ी गहराई से अनुभूति हुई थी कि मेरे भी अंदर एक मुर्दहिया जन्म ले चुकी थी, जिसमें भविष्य के न जाने कितने ही दुख दर्द जलने और दफ्न होने वाले थे। जब मैं पंद्रह वर्ष की अवस्था में हाई स्कूल पास करने के बाद पढ़ाई छूट जाने के कारण घर से 1964 में भागा तो उसी मुर्दहिया से होकर अंतिम बार गुजरा था। वैसे तो मैं अकेला ही था, किन्तु हकीकत तो यही थी कि चल पड़ी थी मेरे साथ मुर्दहिया भी। जब मुझे यह मालूम हुआ कि दुनिया में दुख है, दुख का कारण है और उसका निवारण भी, तो ऐसा लगा कि इस सत्य को ढूंढने से पहले तथागत गौतम बुद्ध कभी न कभी मेरी मुर्दहिया से अवश्य गुजरे होंगे।

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Vikas Mogha भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरूतियों का चिठ्ठा खोलता प्रो. तुलसी राम की आत्‍मकथा 'मुर्दहिया' का यह अंश अत्यधिक आकर्षक हैं ! निसंदेह उनकी पुस्तक भी अत्यधिक आकर्षक होगी ! मेरी असंख्य शुभकामनाएं प्रो. तुलसी राम की आत्‍मकथा 'मुर्दहिया' के लिए !
आपका सादर धन्यवाद् !!!
16 hours ago · Like · 3 people
Anil Tiwari Aye dil kinare ko kinara na samajh,
Aye dil sahare ko sahara na samajh,
Barish aane par kinare toot jate hain,
Musibat aane par sahare chooth jate hain… GM
10 hours ago · Like
Uday Prakash विलक्षण स्मृतिसंपन्न गद्य...। इतने विवरणों से भरा-पूरा, अपने में बांध लेने वाला ऐसा संस्मरण एक सचमुच विरल अनुभव है। तुलसीराम जी के साथ बिताये गये दिन बहुत याद आये। हास्टल का उनका कमरा और उनका पकाया गोश्त आज तक स्मृति में है। उन्होंने हिंदी गद्य का जो 'अखन्हा' यहां बांधा है, उसमें हिंदी भाषा के छोटे-मोटे चिनगे-कतले-मांगुर कूद-कूद कर मरेंगे!
वाह..! इसे शेयर करने के लिए आभार!
8 hours ago · Like · 3 people
Rajeev Kumar beech beech kahi kahi me mujhe apne gaon ka seen yaad jata bilkul usi tarah ke and-vishwash wahi dhakosalebazi bahut sahi likha. mai to ek baar me pad gaya. Meena Ji aap ka saadar dhanyabad tag karne ke lie.!!!!!!
4 hours ago · Like
Chandra Prabha mai bhi ese padh ke kuch aisa hi ehsas kr rahi thi ki mai aapne gaav aa gai hu..aisi kai rudhiya humare yhan bhi hai..nisandeh ye pustak behtareen hoge..meri dher sari shubhkamnaye unke liye:)
2 hours ago · Like · 1 person

फेसबुक के कारण ब्लॉगिंग में गिरावट आई है । सृजनात्मक अभिव्यक्ति घटी है,चिट्ठों के पाठक भी। क्या किया जाए?

Aflatoon Afloo फेसबुक के कारण ब्लॉगिंग में गिरावट आई है । सृजनात्मक अभिव्यक्ति घटी है,चिट्ठों के पाठक भी। क्या किया जाए?



Vishnu Bairagi यह चिन्‍ताजनक है। लगता है, 'फटाफट संस्‍कृति' यहॉं भी असर दिखाने लगी है।

गंगा सहाय मीणा समय के हिसाब से माध्‍यम बदलते हैं. जब इंटरनेट आया तो लगा कि किताबें खत्‍म हो जायेंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 24 घंटे वाले न्‍यूज चैनल आए तो लगा अब अखबार कौन पढेगा, लेकिन अखबार बने हुए हैं पूरी ताकत के साथ. उसी तरह फेसबुक आने पर ब्‍लॉग्‍स को खतरा पैदा हुआ है, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि वे बने रहेंगे और प्रसार भी बढेगा. हम अपने ब्‍लॉग्‍स के लिंक फेसबुक पर शेयर कर सकते हैं. वैसे फेसबुक भी बहस का अच्‍छा मंच हो सकता है. मुझे तो यह भी लगता हे कि फेसबुक पर होने वाली गंभीर बहसों को ब्‍लॉग और प्रिंट मीडिया में जगह दी जानी चाहिए.

Dilip Kawathekar यही बात मुझे इतने दिनों से चुभ रही है, क्योंखि यह २०-२० क्रिकेट है, ५०० शब्दों में सिमटा हुआ संसार....@मीणा जी का सुझाव अच्छा है, लिंक वाला.

सुयश सुप्रभ Suyash Suprabh हमें ब्लॉग पर ध्यान देना चाहिए। फ़ेसबुक पर हमारे संदेशों की उम्र बहुत कम होती है। ब्लॉग पर हर पोस्ट का अपना लिंक होता है। इससे हम विचारों को अलग-अलग मंचों तक पहुँचा सकते हैं। वैसे मैं जो कह रहा हूँ उसका पालन करना मेरे लिए भी आसान नहीं है। फ़ेसबुक पर टिप्पणियाँ बहुत जल्दी मिलती हैं। इन टिप्पणियों से जो संवाद स्थापित होता है उसका आकर्षण ही लोगों को फ़ेसबुक तक खींच लाता है।

Aflatoon Afloo फेसबुक से ब्लॉग पर पहुंच कर उसे पढ़ने के बाद भी टीप ’फेसबुक’ पर ही देना आम है । यह तो आलस्य नहीं है। क्यों ?

Lovely Goswami फेसबुक में गाली -गलौज कम होती है इसलिए ...ब्लोग्स में कुछ गुट्बाज प्रतिक्रियावादी सिर्फ इसी काम के लिए दिन -रात लगे रहते हैं

Vishnu Bairagi मुझे लगता है, यह संक्रमण-काल है। फेस बुक की अपनी विशेषताऍं/उपयोगिता है और ब्‍लॉग की अपनी। मालवी की एक कहावत है - 'आम्‍बा की भूख आमली से नी जाय।' अर्थात् आम की भूख इमली से नहीं मिटती। सो, ब्‍लॉग आम है और फेस बुक इमली। फेस बुक 'पानी केरा बुदबुदा' समान और ब्‍लॉग 'अनश्‍वर' की तरह है। फेस बुक '20-20' और ब्‍लॉग 'टेस्‍ट' की तरह है। आलस्‍य वाली आपकी बात बिलकुल ठीक है।

मेरे साथ ऐसा कुछ बार हुआ कि मैंने फेस बुक पर या बज पर टिप्‍पणी कर दी और मान लिया कि मैंने ब्‍लॉग पर टिप्‍पणी की है। किन्‍तु जब वास्‍तविकता सामने आई तब से मैंने तय कर लिया कि टिप्‍पणी केवल ब्‍लॉग पर करूँगा, और कहीं नहीं।

Sharma Ramakant मेरा तो मानना यह है कि फेसबुक पर लोगों की सृजनात्मकता में इज़ाफा हुआ है . यह मंच बेहद महत्वपूर्ण है . इसकी सार्थकता को बनाये रखना हम सभी की जिम्मेदारी है .

सुयश सुप्रभ Suyash Suprabh ऐसे अनेक ब्लॉग हैं जिन्हें पाठक नियमित रूप से पढ़ते हैं। इन ब्लॉगों पर जो टिप्पणियाँ आती हैं वे सभी पाठकों के लिए हमेशा सुलभ होती हैं। फ़ेसबुक पर ऐसा नहीं होता है। इस पर दूसरों के प्रोफ़ाइल पेज पर पुराने संदेश ढूँढ़ना आसान नहीं होता है।

Tara Chandra Gupta sahi kah rahe hain sir ji

Abhay Tiwari छोटी-मोटी बातें यहीं कह-सुन लीं जाती हैं, लम्बी चौड़ी बातों के लिए अभी भी ब्लौग ही है, कम से कम मेरे लिए तो है। ये ज़रूर है कि ये अहम मंच हो गया है।

जेएनयू के मजदूरों के घरों में '‍अभिज्ञान' का प्रकाश



'अभिज्ञान' का गठन 2005 में जेएनयू के कुछ विद्यार्थियों द्वारा मजदूरों के बच्चों को शिक्षा के प्रकाश तक पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया. इन दिनों जेएनयू में बडे पैमाने पर निमार्णकार्य चल रहे हैं. नए हॉस्टल, एकेडेमिक कॉम्लेक्स और फैकल्टी क्वार्टर्स का निर्माण हो रहा है. इनमें हजारों की तादाद में मजदूर कार्य कर रहे हैं. ये मजदूर जेएनयू कैंपस में कच्चे घर बनाकर रह रहे हैं. कैंपस परिसर में तीन विद्यालय होने के बावजूद सरकार के 'शिक्षा का अधिकार' की रोशनी मजदूरों के इन बच्चों तक नहीं पहुंच पाई है. इन बच्चों को इस अंधकार से पढाई के प्रकाश की ओर ले जाने का बीडा 'अभिज्ञान' ने उठाया है. इसमें जेएनयू में अध्येयन कर रहे कई विदेशी विद्यार्थी भी सक्रिय हैं. 'अभिज्ञान' की एक प्रमुख और सक्रिय कार्यकर्ता यज्ञासेनी बारेठ बताती हैं कि 'अभिज्ञान' द्वारा अभी तक 56 बच्चों को मुनिरका और बेर सराय के सरकारी स्कूलों में नियमित दाखिला दिलाया जा चुका है. हम हर शुक्र, शनि और रविवार को बच्चों को पढाने के अलावा खेलकूद, नृत्य -संगीत, हस्तशिल्प आदि से जोडने की कोशिश करते हैं.' यज्ञासेनी आगे कहती हैं कि 'हम इन विस्थापित परिवारों और उनके बच्चों के स्वास्‍थ्‍य को लेकर भी चिंतित हैं और समय-समय पर इनकी जांच कराते रहते हैं'.

'अभिज्ञान' के बारे में YouTube पर डॉक्‍यूमेन्‍ट्री देखें-
http://www.youtube.com/watch?v=2qV87FRcSeI&feature=related
 
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