प्रो. तुलसी राम की आत्मकथा 'मुर्दहिया' का एक अंश
by गंगा सहाय मीणा on Friday, November 26, 2010 at 2:02am
... इसी बीच बड़ी तेजी से गांवों में एक अफवाह उड़ गयी कि साधुओं के वेष में मुड़िकटवा बाबा, घूम घूम कर बच्चों का सिर काट कर ले जा रहे हैं। धोकरकसवा बाबा' तथा लकड़सुघवा बाबा' की भी अफवाह खूब फैली। कहा जाने लगा कि धोकरकसवा बाबा बच्चों को पकड़ कर अपनी धोकरी (यानि भिखमंगे जोगियों के कंधे पर लटकने वाला बोरीनुमा गहरा झोला) में कस कर बांध देते हैं जिससे वे मर जाते है। तथा लकड़सुघवा बाबा एक जादुई लकड़ी सुंघा कर बच्चों को बेहोश करके मार डालते हैं। हमारे गांव में अफवाह उड़ी कि ये तीनों प्रकार के बाबा लोग गांव के चारों तरफ विभिन्न सीवानों तथा मुर्दहिया के जंगल में छिपे रहते हैं और वे बच्चों को वहीं ले जाकर मारते हैं। मुर्दहिया में गांव के मुर्दे जलाये तथा दफनाये जाते थे। यहीं गांव का श्मशान था तथा गांव के आसपास पीपल के पेड़ों पर भूतों ने अपना अड्डा बना लिया है। ये घटनाएं भी नौ ग्रहों के मेल के कारण हो रही हैं, जिसके कारण एक भारी गदर होने वाला है। इन अफवाहों ने गांव के बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की जान सुखा दी। लोग डर के मारे संध्या होते ही घरों झोपड़ियों में बंद हो जाते थे। उस समय दलितों के अधिकतर घरों में लकड़ी के दरवाजे या केवाड़ी नहीं होती थी। केवाड़ियों के नाम पर बांस के फट्ठों को कांटी ठोक कर एक पल्ले को केवाड़ीनुमा बना लिया जाता था, जिसे ÷चेंचर' कहा जाता था। इन चेंचरों को दरवाजों में फिट कर दिया जाता था तथा उन्हें बंद करने के लिए सिकड़ी की जगह रस्सी से काम लिया जाता था। अतः रस्सी से बंधे चेंचरों की आड़ में सो रहे दलित रात भर इस चिन्ता में पड़े रहते थे कि यदि मुड़िकटवा बाबा आ गये तो बड़ी आसानी से चेंचरों को तोड़ कर लोगों को मार डालेंगे। जहां तक इन बाबाओं के सीवानों तथा मुर्दहिया में छिपे रहने का सवाल है, हमारे गांव का भूगोल काफी रोचक है। उन दिनों यानि आज से ठीक पचास साल पूर्व हमारे गांव के पूर्व तथा उत्तर दिशा में पलाश के बहुत घने जंगल थे जिसमें, पीपल, बरगद, सिंघोर, चिलबिल, सीरिस, शीशम, अकोल्ह आदि अनेक किस्म के अन्य वृक्ष भी थे। गांव के पश्चिम तरफ करीब एक किलोमीटर लम्बा चौड़ा ताल था, जिसमें बारहों महीने पानी रहता था। इस ताल में बेर्रा, सेरुकी, पुरइन, तिन्ना तथा जलकुम्भी आदि जैसी अनेक जलजीवी बनस्पतियां पानी को ढंके रहती थीं। रोहू, मंगुर, गोंइजा, बाम, पढ़िना, टेंगरी, गिरई, चनगा, टेंगना, भुट्टी, चल्हवा, सिधरी, कवई आदि जैसी अनेक मछलियों की भी भरमार थी। इस ताल की सबसे ज्यादा छटा बिखरती थी उसमें पनडुब्बी काली मुर्गियां, बिगौंचौ तथा अनगिनत सफेद बगुलों जैसे पक्षियों के निवास से। इस ताल के किनारे ढेर सारे पेड़ थे जिसमें एक बड़ा पीपल का भी पेड़ था जिस पर लोगों के विश्वास के अनुसार ताल का खतरनाक भूत रहता था। दक्षिण तरफ खेत ही खेत थे। इस भूगोल में विभिन्न दिशाओं में स्थित खेती लायक जमीन को पूरे क्षेत्रा का सीवान कहते थे जिनके अलग अलग नाम थे। हमारे गांव के सीवान क्रमशः पूरब में मुर्दहिया, उत्तर में भर्यैया, सरदवा, टड़िया, पश्चिम में समण्डा, महदाई माई, परसा, तथा दक्षिण में गुदिया के नाम जाने जाते थे। इसी तरह क्रमशः टड़वा, भुजही, लक्खीपुर, भटगांवा अमठा, दौलताबाद, मठिया, पारूपुर, परसूपुर तथा चतुरपुरा नामक विभिन्न पड़ोसी गांव थे। दौलताबाद के बाद वाला पश्चिमी गांव विश्वविख्यात बौद्ध तथा कम्युनिस्ट विद्वान महापंडित राहुल सांकृत्यायन का गांव कनैला था। इन्ही सीवानों से घिरे हमारे धर्मपुर गांव के सबसे उत्तर में अहीर बहुल बस्ती थी जिसमें एक घर कुम्हार, एक घर नौनिया, एक घर गड़ेरिया तथा एक घर गोड़ (भड़भूजा) का था। बीच में बभ्हनौटी (ब्राह्मण टोला) तथा तमाम गांवों की परम्परा के अनुसार सबसे दक्षिण में हमारी दलित बस्ती। एक हिन्दू अंधविश्वास के अनुसार किसी गांव में दक्षिण दिशा से ही कोई आपदा, बीमारी या महामारी आती है, इसलिए हमेशा गांवों के दक्षिण में दलितों को बसाया जाता था। अतः मेरे जैसे सभी लोग हमारे गांव में इन्हीं महामारियों आपदाओं का प्रथम शिकार होने के लिए ही दक्षिण की दलित बस्ती में पैदा हुए थे। साथ ही गांव का भौतिक भूगोल उन तमाम भुतही खूनी अफवाहों के लिए प्राकृतिक रूप से बेहद अनुकूल था। मुर्दहिया, भर्थैया तथा ताल के पास वाली सीवान परसा तो इन भूतों की भूमिगत बस्तियां थीं ही। इन अफवाहों के बीच मुर्दहिया सबसे डरावनी बन गयी थी। गर्मी के दिनों में वहां हजारों बड़े बड़े पलाश के पेड़ एकदम सूर्ख लाल टेंसुओं (फूलों) से लद जाते थे। दूर से देखने पर लगता था कि जलती हुई लाल आग की रक्तीली लपटें हिलोरें ले रही हैं। उन्हें देख कर ऐसी भी अनुभूति होती थी कि मानों मुर्दहिया की बुझी हुई चिताएं पलाश के पेड़ों पर चढ़ कर फिर से प्रज्ज्वलित हो गयी हों। आम दिनों में भी गांव के लोगों का कहना था कि दोपहर के समय तो मुर्दहिया पर कदापि नहीं जाना चाहिए, क्योंकि भूत उस समय बहुत गुस्से में होते हैं और वे कटहवा कुत्तों के वेष में घूमते हैं। किसी के मिल जाने पर उसे नोंच नोंच कर खा जाते हैं। लाल टेंसुओं से लदे ये पलाश के पेड़ जहां एक तरफ अत्यंत मनमोहक लगते थे, वहीं उनके मुर्दहिया पर होने के कारण इन पेड़ों की लालिमा बेहद डरावनी छवि प्रस्तुत करती थी, विशेष रूप से चांदनी रात में वे खून में लथपथ किसी घायल व्यक्ति जैसे प्रतीत होते थे। इसी दौरान हमारे ग्रामीण क्षेत्राों में हैजे की महामारी आयी जिसका सबसे जबर्दस्त असर पूरब में मुर्दहिया से थोड़ी दूरी पर पड़ोसी गांव टड़वां में पड़ा। हमारी मुर्दहिया और टड़वां के बीच से होकर वह नाला बहता था जो प्राइमरी स्कूल से होकर आगे बढ़ते हुए लगभग पांच मील दूर स्थित मंगही नदी में मिल जाता था। इन गांवों में किसी दिन किसी एक के भी हैजे से मरने पर पचासों के मरने की अफवाह उड़ जाती थी, जिससे बड़ा चिन्ताजनक माहौल पैदा हो गया था। फिर भी बड़ी भारी संख्या में लोग मरे थे। हमारी मुर्दहिया के आसपास की जंगली जमीन मुर्दों से पट गयी थी, विशेष रूप से नाले के तीरे तीरे अनेकों कब्रें उग आयी थीं। एक प्रथा के अनुसार दलितों की कब्रों पर छोटी छोटी डंडियों में लाल कपड़े की झंडियां गाड़ दी जाती थीं। एक सिरे से देखने पर हवा के झोकों से फडफड़ाती ये झंडियां ऐसे लगती थीं कि मानों भूतों की लाल लाल फसलें तैयार होकर लहलहा रही हों। हैजे से मरे हुए लोगों की लाशों से लोग इतना डरे हुए थे कि बहुत छिछली सी कब्रें जल्दी जल्दी खोद कर उन्हें दफना देते थे। गन्ने तथा अन्य बड़ी फसलों में बड़ी संख्या में छिपे हुए सियारों ने वहां से निकल कर मुर्दहिया तथा उस नाले के आसपास अपना बसेरा बना लिया था। ये सियार छिछली कब्रों को खोद कर अक्सर लाशों को चिचोरते हुए नजर आते थे। रोज स्कूल जाते हुए ऐसा नजारा देखना हमें अत्यंत भयभीत कर देता था। उनके बारे में अफवाह फैली हुई थी कि मुर्दा खाने से ये सियार पागल हो जाते हैं इसलिए आदमी को दौड़ा कर वे काट कर खा जाते हैं। इस डर से कोई उन्हें भगाने नहीं जाता था और न कोई उन बचीखुची लाशों को फिर से दफनाने ही जाता। यह बड़ा ही हृदय विदारक दृश्य होता। जिनकी लाशों को सियारों के खूंखार जबड़ों से गुजरना पड़ता, पता चलने पर उनके सगे सम्बंधियों का, विशेष रूप से औरतों का वर्णनात्मक शैली में गा गाकर रोना दिल को दहला देता था। उधर रातों में मुर्दाखोर सियारों का हुवां हुवां वाला शोर बच्चों को बहुत डराता था, किन्तु मेरी दादी कहती कि मुर्दहिया के सारे पुराने भूत अपनी बढ़ती हुई आबादी से खुश होकर नाचते हुए सियारों जैसा गाना गाते हैं। दादी द्वारा प्रस्तुत भूतों की इस नृत्य विद्या तथा गायन शैली से मैं बहुत घबड़ा जाता था। दादी यह भी कहती थी कि महामारी में मरने वाली औरतें नागिन बन कर घूमती हैं। उनके काटने से कोई भी जिन्दा नहीं बचता। दादी मुझे अक्सर याद दिलाती कि किसी झाड़ी झंखार से गुजरते हुए ÷जै राम जमेदर' जरूर दोहराते जाना। ऐसा कहने से नाग नागिन भाग जाते हैं। मैं दादी की सारी बातों को इस धरती का अकाट्य अंतिम सत्य मानता था। इसलिए अक्षरशः उसका पालन करता था और जब भी किसी कंजास से गुजरता, मैं ÷जै राम जमेदर, जै राम जमेदर' रटता जाता, किन्तु इस मंत्रा की गुत्थी न दादी जानती थी और न गांव का कोई अन्य। दादी इस तरह की अनसुलझी गुत्थियों की ÷इनसायक्लोपीडिया' थी। अतः मेरे समझने का सवाल ही नहीं खड़ा होता था। जब मैंने काफी बड़ा होकर ÷महाभारत' पढ़ा तब जाकर यह गुत्थी सुलझ पायी, वह भी यह जानने पर कि पौराणिक वीर अर्जुन के पौत्रा राजा परीक्षित के बेटे का नाम जनमेजय था, जिन्होंने सांपों को मारने का एक सर्पयज्ञ' करा कर उन्हें हवनकुंड में जला दिया था। तभी से धरती के सारे सांप जनमेजय का नाम सुनते ही अपनी जान बचाने के लिए भाग जाते हैं। जनमेजय ने सांपों से क्रुद्ध होकर इस सर्पयज्ञ को इसलिए कराया था क्योंकि तक्षक नाग के काटने से उनके पिता परीक्षित की मृत्यु हो गयी थी। दादी इसी पौराणिक गाथा को सम्भवतः अपनी दादी से सुन कर जनमेजय का तद्भव अपनी भाषा में ÷जमेदर' कहती थी। दादी के इस मंत्रा की सच्चाई चाहे जो भी हो, मैं जब तक गांव में रहा, जै राम जमेदर' के दम पर ही भुतनी नागिनों को भगाता रहा।छुट्टी के दिन दलित बस्ती के अन्य बच्चों के साथ मैं भी गोरू यानि घर के पालतू जानवरों गाय, भैंस और बकरियों को चराने के लिए ले जाता था, या यूं कहिए कि चराने जाना पड़ता था। संयोगवश दूब वाली घास की चारागाहें मुर्दहिया के ही जंगली क्षेत्रा में थीं। इसलिए वहीं चराने की मजबूरी थी। गर्मियों के दिन में इन जानवरों को चराते समय कभी कभी एक अनहोनी हो जाती थी, वह थी सियारों द्वारा बकरियों का अचानक मुंह से गला दबा कर मार डालना। हम बच्चे जानवरों को चरने के लिए छोड़ छोटे छोटे पेड़ों पर चढ़ कर लखनी' अथवा ओल्हापाती' नामक खेल खेलने लगते थे। इस खेल में एक दो फीट पतली लकड़ी पेड़ के नीचे रख दी जाती, फिर एक लड़का पेड़ से कूद कर उस लकड़ी जिसे ÷लखनी' कहा जाता था, को उठा कर अपनी एक टांग ऊपर करके उसके नीचे से फेंक कर पेड़ पर पुनः चढ़ जाता था। जहां लखनी गिरती थी, पेड़ के नीचे खड़ा दूसरा लड़का उसे उठा कर दौड़ता हुआ पुनः पेड़ के नीचे आकर उसी लखनी से पहले वाले को जमीन से ऊपर कूद कर छूने की कोशिश करता वह भी सिर्फ एक बार में। यदि उसे छू लिया तो पेड़ चढ़े लड़के को मान लिया जाता कि वह अब ÷मर' चुका है, इसलिए वह खेल से बाहर हो जाता था। फिर लाखनी से छूने वाला लड़का विजेता हो जाता। इस ÷मरे' हुए लड़के को पेड़ के नीचे खड़ा होना पड़ता तथा विजेता पेड़ पर चढ़ जाता और खेल की वही प्रक्रिया पुनः दोहरायी जाती। परिणामस्वरूप कोई मरता और कोई विजेता बनता रहता। मुर्दहिया पर खेला जाने वाला यह खेल हम बच्चों के बीच अत्यंत मनोरंजक होता था, किन्तु इसी मनोरंजन के दौरान प्रायः सियारों का बकरियों पर हमला हो जाता था और बकरियों का गला उनके तेज जबड़ों में दबते ही वे मुश्किल से मात्रा एक बार जोर जोर से बें बें करके शांत हो जाती। उनकी ये बें बें सुन कर जब तक हम बच्चे अपनी लाठियां लेकर सियारों को दौड़ा कर भगाते, तब तक उन बकरियों की कथित ÷आत्मा' को वास्तविक शांति मिल चुकी होती। लखनी का हमारा यह खेल भुतही मुर्दहिया को फिर से मंचित कर देता। हम सभी बच्चे मरी बकरी को ठिठराते हुए बस्ती में डरते डरते आते। ऐसी बकरियों की मसालेदार दावतें तो लोग खूब उड़ाते, किन्तु बकरी चराने वाले बच्चे की पिटाई हर दावत के पहले एक आवश्यक कर्मकांड बन चुका था। एक बार हमारा एक बकरा इसी लखनी के खेल में सियारों का शिकार बन गया। यह बकरा मनौती वाला था, जिसकी बलि चमरिया माई को देनी थी। जब मैं उसी ठिठराते की प्रक्रिया से बकरे को लेकर घर पहुंचा तो वही पूर्वोक्त आवश्यक कर्मकांड शुरू हो गया। ऐसे कर्मकांडों के शास्वत पुरोहित वहीं मेरे अति गुस्सैल नग्गर चाचा हुआ करते थे। मेरी तत्काल जो धुनाई हुई, वह तो हुई ही, किन्तु कई दिनों तक समय समय पर चेचक की शिकार मेरी ज्योति विहीन दायीं आंख उनके रौद्र संचालित जबान का असली निशाना बनी रही। बार बार दोहराई जाने वाली वह पुरानी कनवा कनवा' की बौछार उन सियारों के जबड़ों से कई गुना ज्यादा तेजी से मेरे मस्तिष्क को बेंधती थी। चूंकि वह चमरिया माई को बलि चढ़ाने वाला मनौती का बकरा था, इसलिए किसी अनहोनी का मानसिक भय काफी दिनों तक मुझे सताता रहा। दादी ने अगियारी करनी शुरू कर दी। उसने चमरिया माई का बार बार जाप करते हुए एक दूसरे बकरे के साथ छौना, यानि सूअर के बच्चे की भी बलि चढ़ाने की मनौती की, साथ ही मुझे माफ कर देने की भी विनती की। दादी कहती थी कि चमरिया माई को छौना बहुत पसंद है, इसलिए उसकी बलि पहले दी जाएगी। कुछ दिनों के बाद लगभग चार किलो का एक छौना खरीदा गया। दादी ने कहा कि इसकी बलि मेरे ही हाथों दी जाएगी, तभी चमरिया माई मुझे माफ करेंगी। मैं बहुत घबड़ाया हुआ था। इसलिए बलि देने में मुझे जरा भी हिचक नहीं हुई। उस छौने को हम चमरिया माई के उसी कटीली झाड़ी वाले टीले पर ले गये। इस टीले को ÷कोटिया माई' थान भी कहा जाता था। मेरे एक चचेरे भाई चौधरी चाचा के सबसे छोटे बेटे सोबरन मेरे साथ लाठी लेकर गये। वे छौना को लिटा कर लाठी को उसके पेट के बीचोंबीच रख कर ताकत के साथ उसे दबा रखा ताकि वह उछले नहीं। लाठी से दबाते समय छौना जोर जोर से चोकरने लगा। मैं बिल्कुल डर गया, किन्तु दादी की हिदायत के अनुसार मैंने हिम्मत जुटा कर साथ ले गये एक छोटे से गड़ासे को फिर से पत्थर पर घिस कर उसकी धार को और तेज किया और एक बार जोर से बोला :बोला बोला चमरिया माई की जै।'' मेरे साथ यह नारा सोबरन भैया ने भी दोहराया, फिर मैंने गड़ासे को छौने की नटई की तरफ खड़ा करके आंखें मूद कर अधाधुंध रेतने लगा। छौने का चोकरना कई बार तेज होकर शीघ्र ही शांत हो गया और उसकी गर्दन बिल्कुल अलग। मैंने दादी के कहने के ही अनुसार बहते हुए खून को हाथ में रोप कर चमरिया माई के थान पर रखे हुए मिट्टी के हाथी घोड़ों के ऊपर छिड़क दिया और सियार द्वारा बलि के बकरे को मार डालने के अपने गुनाह के लिए उनकी विनती की। इसके बाद हम बलि चढ़ाये छौने को लेकर घर वापस आ गये। हमारे घर के सभी लोग सूअर का मांस खाते थे, किन्तु एक परम्परा के अनुसार जहां रोज का खाना मिट्टी से बने चूल्हे पर लकड़ी जला कर पकाया जाता, वहां इसे कभी नहीं पकाया जाता, जबकि मुर्गा, मछली तथा बकरे का मांस वहां पकता था। सूअर का मांस हमेशा घर के बाहर खुले मैदान में ईंट का चूल्हा बना कर बड़े हंडे में पकाया जाता था। सूअर का मांस हमेशा मुन्नर चाचा पकाते और सबको वे ही बांटते भी थे। उस दिन जब मेरे द्वारा बलि वाला छौना पकाया जा रहा था, तो मुन्नर चाचा ने मुझे एक छोटा सा बांस का सोटा पकड़ा कर कहा कि बटुले (हंडा) की तरफ ध्यान से देखते रहना, वरना सूअर का बच्चा निकल कर भाग जाएगा। मैं छौने के भाग जाने की उस कल्पित सम्भावना से चिन्ताग्रस्त होकर बड़ी मुस्तैदी से वहां खड़ा रहता। मुझे बार बार यह संदेह होता कि जिस छौने को मैंने ही काटा है, वह पकते समय बटुले से निकल कर कैसे भाग सकता है, किन्तु घर के उस घोर अंधविश्वासी वातावरण में मैं इस कोरी कल्पना को भी अकाट्य सत्य समझने पर मजबूर था। मुझे यह मनोवैज्ञानिक भय भी सताता रहता कि यदि छौना बटुले से भाग गया, तो गुसौल गगार चाचा का मुकाबला कैसे करूंगा? मुझे बाद में समझ में आया कि मुन्नर चाचा का वह एक निर्दोष मजाक था। बाद में बस्ती के अन्य लोगों में यह मजाक फैल गया और लोग इस घटना को दोहरा दोहरा कर खूब मजा लेने लगे। किन्तु जब तक मैं इस मजाक में निहित मनोरंजन की सच्चाई को समझूं, उसके पहले लाठी लेकर सूअर पकते बटुले की कई बार रखवाली कर चुका था। मेरी दादी भी खूब हंसती और कहतीः त मुरूख हउवे रे।'' इस तरह की एक विचित्रा मूर्खता का शिकार मैं लगभग उसके कुछ ही दिन बाद कक्षा तीन में पढ़ते हुए स्कूल में बन गया था। मेरी कक्षा के सहपाठी मुल्कू ने एक दिन अपने गांव हनौता से बड़े बड़े बेर के फल लाये थे। उन्होंने कुछ बेर मुझे भी दिया। एक बेर खाते खाते उसका बीज भी अचानक घोंट लिया। साथ ही बेर खा रहे मुल्कू ने जब बेर का बीज घोटते हुए देखा, तो तुरंत उन्होंने अन्य बच्चों से कहना शुरू कर दिया कि इसने (मैंने) बेर का बीया (गुठली) घोंट लीया है और अब इसके पेट को फाड़ कर बेर का पेड़ निकलेगा। इतना सुनते ही अन्य बच्चे भी इस ÷सत्य' को दोहराने लगे। डर के मारे मैं बेहाल हो गया। कई दिनों तक पेट से पेड़ निकलने की आशंका से ग्रस्त होकर ठीक से सो नहीं सका। डर के मारे घर में भी किसी से कुछ न बताया। चुपके से चमरिया माई को धार और पुजौरा चढ़ाने की मनौती माना और विनती की कि हे चेमरिया माई उस सम्भावित पेड़ को पेट में नष्ट कर दे। कई दिनों बाद कक्षा के मेरे सबसे गहरे साथी संकठा सिंह जिन्होंने मुझे अक्षर लिखना सिखाया था, के समझाने पर मैं समझ पाया कि पेट में किसी भी बीज से पेड़ नहीं निकलता। मैंने बाद में चमरिया माई को मनौती वाला धार पुजौरा उसी स्थान पर जाकर चढ़ाया। इस घटना के बाद कई वर्षों तक मैं मनोवैज्ञानिक भय के कारण बेर खाने से घबड़ाता रहा। सूअर पकते बटुले की रखवाली तथा पेट से बेर के पेड़ के उगने की सम्भावना वाली मूर्खताओं को याद करके मैं आज भी एक विचित्रा ढंग से स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूं।सन् 1957 का वर्ष मेरे साथ साथ गांव की सारी बस्ती के लिए बहुत घटनाप्रधान था। मुर्दहिया के पास वाली सीवान भर्थैया के घने जंगल में हमारे गांव के एक अहीर पौहारी बाबा (पावहारी बाबा) एक झोपड़ी बना कर रहते थे। उनकी झोपड़ी से आधा किलोमीटर दूर एक पेड़ के नीचे मचान बना कर पड़ोसी गांव टड़वा के एक ÷फक्कड़ बाबा' रहते थे। फक्कड़ बाबा लगभग नंग धडं+ग रहते थे। वे सिर्फ एक डेढ़ फीट लम्बी पतली सी कपड़े की चीर आगे पीछे अपनी करधनी में लपेटे रहते थे। पूरी देह में वे कंडे की राख हमेशा पोते रहते थे। जाड़े के दिनों में भी वे बिना कुछ ओढ़े सोते थे तथा किसी से कभी कुछ नहीं बोलते। वे पूर्णरूपेण मौनव्रती थे। उनके बारे में तरह तरह की किंवदंतियां फैली हुई थीं। कोई कहता कि वे भूतपूजक हैं, तो कोई उन्हें साक्षात जिन्दा भूत समझता। उनके मचान के आसपास कोई कभी नहीं जाता, खास करके जंगल में घास काटने वाली औरतें उनसे बहुत डरती थीं, क्योंकि उनके बारे में यह भी प्रचलित था कि वे औरतों को सम्मोहित करके देह शोषण करते हैं। वे कभी कभी घूमते हुए हमारे गांव भी आते थे और लोग उन्हें पैसा और सिद्धा (आटा, दाल आदि) देते। वे बिना कुछ बोले उसे लेकर वापस चले जाते। वे प्रतिदिन मिट्टी की हड़िया में कंडे की आग पर दिन में सिर्फ एक बार खाना पका कर खाते। इन तमाम विचित्राताओं के बीच एक दिन फक्कड़ बाबा को घसियारों ने मचान के बाहर मरा पड़ा देखा। शीघ्र ही उनके मरने की खबर क्षेत्रा के अनेक गांवों में फैल गयी। धीरे धीरे उनके मचान के पास गांव का गांव उमड़ पड़ा, हजारों की भीड़ लग गयी। क्योंकि फक्कड़ बाबा इन तमाम विवादमय अफवाहों के बीच चहुंदिश चर्चा में हमेशा बने रहते थे। मेरे पिता जी भी उनकी लाश को देखने गये थे। लौट कर उन्होंने बताया कि कुछ आदमी रात में उन्हें ÷घाठा लउर' देकर मार डाले थे, शायद पैसों के लालच में। ÷घाठा लउर' के बारे में पिता जी ने परिभाषित करते हुए बताया कि दो लाठियों के बीच आदमी की नटई दबा कर उसका दम घोट दिया जाता है। इसी को घाठा लउर कहा जाता है जिससे बहुत घुट घुट कर तकलीफ के बाद कोई आदमी मरता है और आवाज नहीं निकलती। पिता जी ने यह भी बताया कि ÷घाठा लउर' से मारे जाने की पहचान मृतक के गले में नीला निशान बन जाने तथा जीभ के मुंह से बाहर निकल जाने से होती है, जैसा कि फक्कड़ बाबा के साथ हुआ था। फक्कड़ बाबा की हत्या से हमारे गांव में बड़ी दहशत फैल गयी। अफवाह उड़ गयी कि इलाके के सारे भूत आयेंगे और इकट्ठा होकर लोगों से चुन चुन कर फक्कड़ बाबा की हत्या का बदला लेंगे। भूतों का भय इतना फैल गया कि लोगों का भर्थैया की तरफ जाना बंद हो गया। हमारे गांव के कई दलित भूतों की पूजा करते थे और उनमें से हर एक के भूत बाबा अलग अलग पीपल के पेडा पर रहते थे। हमारे घर के भूतबाबा वहीं पड़ोसी गांव दौलताबाद के पास वाले पुराने पीपल के पेड़ पर रहते थे। उस भूतबाबा को खुश करने के लिए फक्कड़ बाबा की हत्या के बाद पहली बार मुन्नर चाचा मुझे अपने साथ ले गये। हम लोग साथ में एक हड़िया दूध, एक सेर चावल तथा कुछ भेली और गाय बैल के गोबर से बने हुए सूखे गोइठे को भी ले गये थे। गोइठे का अहरा लगा कर हड़िया के दूध में चावल और भेली डाल कर ÷जाउर' (खीर) पकायी गयी, जिसमें से थोड़ा उस भूतबाबा वाले पीपल के पेड़ की जड़ पर चढ़ाया गया तथा एक लंगोट उसकी एक डाली में उस पर चढ़ कर मैंने बांध दिया। शेष जाउर को घर लाया गया जिसे परिवार के सभी लोग प्रसाद के रूप में खाये। इस चढ़ावे के बाद दादी का कहना था कि अब फक्कड़ बाबा की हत्या का बदला लेने वाले किसी अन्य भूत को हमारे खानदानी भूतबाबा हमारे परिवार के आसपास नहीं फटकने देंगे। दादी की इस बात से घर के सारे लोग पूर्णरूपेण आश्वस्त हो गये थे। बाद में ऐसी पूजाओं के लिए मुझे अकेला भेजा जाने लगा था। इस तरह की पूजाओं में भाग लेने के कारण मेरे अंदर एक अलग ढंग का विश्वास जगने लगा जिसके कारण धीरे धीरे मेरे मस्तिष्क से भूतों का डर दूर होने लगा। क्योंकि मुझे पूरा विश्वास होने लगा कि जब मैं स्वयं भूतबाबा को जाउर तथा लंगोट चढ़ाने जाता हूं, तो फिर उनसे डर कैसा? इसी बीच वर्षा के दिनों में मेरे सिद्धहस्त ÷मछरमरवा' पिता जी ने गांव के ताल के अंदर एक अखन्हा बांधा। पानी के अंदर गीली मिट्टी से गोल दीवार उठा कर पानी की सतह तक लाकर उसके ऊपर का हिस्सा हाथ से लीप कर चिकना बना दिया जाता है तथा गोल गड्ढे से छोटी हड़िया से पानी निकाल कर खाली कर दिया जाता है। इसी को अखन्हा बांधना कहते हैं। इस तरह के अखन्हा में मछलियां वहां से गुजरते हुए उसमें कूदने लगती हैं। पिता जी एक दिन रात में ऐसे ही एक ताल के एक अखन्हा से गगरी भर कर मंगुर तथा गिरई लेकर आ रहे थे। ताल के पास ही परसा नाम की सीवन में स्थित उस भुतहे पीपल के पास ही कुछ आम के पेड़ थे। रास्ता इन्हीं पेड़ों से होकर हमारे घर की तरफ आता था। पेड़ के पास पहुंचते ही पिता जी गगरी भरी मछलियां पटक कर हांफते हुए भाग कर घर पहुंचे। उनकी हालत बहुत खराब थी। पूछने पर घरवालों को उन्होंने डरते हुए बताया कि परसा का भूत आम के पेड़ों पर एक एक पत्ती पर दीया जलाये हुए था। इसलिए किसी अनहोनी से डर कर मैं गगरी वहीं पटक भाग आया। लोग बड़ी आसानी से विश्वास कर लिए। मैं भी उस रात बहुत डरा हुआ था। किन्तु यह तथ्य मेरे दिमाग में एक संदेह अवश्य पैदा किये हुए था कि इतने अधिक चिराग पेड़ पर कैसे जलेंगे? ठीक दूसरे दिन दलित बस्ती के आसपास के पेड़ों पर रात में देखा कि हजारों जुगनू जलते बुझते, चमकते हुए साफ नजर आ रहे थे। मैंने दादी को बताया कि लगता है, इन्हीं जुगुनुओं को पिता जी ने परसा के भूत का दीया जलाना समझ लिया था। दादी ने मेरा हवाला देकर यह बात घर में सबको बातायी। यह बात सुन कर नग्गर चाचा अपने पुराने ढर्रे वाली शाबाशी देते हुए बोल पड़े : कनवा एकदम सही कहत हव।'' शायद यह मेरे जीवन की पहली बुद्धिवादी तर्कणा थी।हमारे गांव की बभनौटी के पूरब दो पोखरे थे जिनमें से एक पुराना पोखरा दलित बस्ती के उत्तर में बहुत पास ही उसी चमरिया माई के स्थान के पास था। इस पोखरे के चारों तरफ भीटे के ऊपर बहुत पुराने बड़े इमली, पीपल और चिलबिल के पेड़ थे, जिन पर अनेक किस्म के पक्षियों के खोते थे। एक इमली के पुराने पेड़ पर मात्रा एक जोड़ा उल्लुओं का था, किन्तु चमगादड़ों का बहुत बड़ा जमघट था। थोड़ी दूर पर दलित बस्ती के पास एक बहुत पुराना बरगद का पेड़ था जो धीरे धीरे ठूंठा होता जा रहा था। इस ठूंठे बरगद पर सैकड़ों गिद्धों का बसेरा था। रात में अचानक मादा गिद्धों की चोकराहट से सारा वातावरण बड़ी कर्कशता के साथ जागृत हो जाता था। गांव के लोग कहते गिद्धों का प्रेमालाप चल रहा है। कई अवसरों पर गांव के अल्पवयस्क ब्याहता युवक आपस में बतियाते हुए सुनाई देते कि अमुक रात को गिद्धों से पे्ररित होकर वे ठीक से नहीं सो सके। किन्तु उस पुराने पोखरे के पेड़ों पर कभी कभी देर रात को किसी कारणवश दूसरे पक्षी भी चें चें कर उठते, विशेष रूप से जब उल्लुओं का वह जोड़ा कुडुक कुडुक करके जोर से चहकता तो उनकी एकदम अलग आवाज बड़ी दूर तक सुनाई पड़ती। उस आवाज को पूरा गांव अपशकुन मानता था। मेरी दादी की तरह अनेक औरतें यह कहतीं कि भूतों की पोखरे पर जब पंचायत होती हैं, तो उल्लू कुडुकते हुए शंख बजाते हैं जिससे पता चलता है कि ब्राह्मण भूतों की पंचायत हो रही है। हमारे गांव के पेड़ों पर एक चिड़िया महोखा जैसी लगती थी, वह खो खो करते हुए बोलती थी जिसे औरतें मरखउकी कहती थीं। यह मरखउकी भी बड़े अपशकुन की प्रतीक थी। इस मामले में गांव के कौए पार्ट टाइम अपशकुन थे। जब कभी कोई उड़ता हुआ कौआ किसी को पैरों या चोच से मार देता था, तो इसे भी अपशकुन माना जाता। यह अपशकुन इतना खतरनाक माना जाता था कि तुरंत घर के किसी व्यक्ति को सबसे नजदीकी रिश्तेदार के घर भेज कर यह संदेश दिया जाता कि अमुक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। मृत्यु की खबर सुन कर रिश्तेदार औरतों का तत्काल रोना शुरू हो जाता, लेकिन शीघ्र ही उन्हें बता दिया जाता कि मृत्यु नहीं, बल्कि कौए ने चोच मारी है। इस विधि से कौए का अपशकुन दूर किया जाता था। किन्तु ये कौए स्थाई अपशकुन नहीं होते थे, बल्कि जब वे किसी के घर या झोपड़ी की बडे+र पर चढ़ कर कांव कांव करते, तो घर की औरतें खुश होकर कौओं को दाने खिलातीं, क्योंकि उनको विश्वास था कि बड़ेर पर कांव कांव में किसी नजदीकी रिश्तेदार के घर आने की सूचना होती थी। वैसे सच्चाई तो यह थी कि हमारे गांव में निर्वंश जंगू पांड़े, विधवा पंडिताइन, पोखरे वाला उल्लू, खो खो करने वाली मरखउकी चिड़िया और मैं स्वयं, हम पांचों असली अपशकुन थे जिन्हें देख सुन कर लोगों की रूह कांप जाती थी। उधर मुर्दहिया के पलाश के टेंसू जब मुरझा कर जमीन पर गिरने लगते तो उनकी जगह सेम की चिपटी फलियों की जैसी पलाश की भी छः सात इंच लम्बी चिपटी फलियां जिन्हें दादी टेंसुल कहती थी, निकलने लगतीं। कुछ दिन बाद ये टेंसुल सूख कर गिर जाती थीं। मेरी दादी इन टेंसुलों को मुझसे घर पर लाने के लिए कहती। वह टेसुलों को फाड +कर उसी तांबे के बड़े सिक्कों डब्बल की तरह दिखाई देने वाले बीजों को निकाल कर एक बड़ी सींग में रखती। जब किसी बच्चे के पेट में केचुआ या अन्य कीडे+ पैदा हो जाते तो दादी सींग से पलाश के कुछ बीज निकाल कर देती और सिल लोढ़े से थोडे+ पानी के साथ उसका रख यानि घोल बना कर पिलाने को कहती जिससे सभी कीड़े मर कर बाहर निकल जाते थे। पलाश के बीज पेट के कीड़ों को मारने की एक अचूक दवा थे। दादी घर में बड़ी पुरानी पुरानी बैलों की बड़ी बड़ी सींगें रखे हुई थी। इन सींगों में वह हींग समेत अनेक प्रकार की खरबिरिया दवाएं रखती थी। एक सींग में वह साही नामक जानवर की सूखी हुई अतड़ियां पोटिया भी रखती थी। हमारे गांव की मुर्दहिया के जंगल में साही पायी जाती थी। कभी कभी गांव के युवक मिल जुल कर साही को ढूंढ कर दौड़ा दौड़ा कर लाठियों से मार डालते थे। साही का मीट बहुत स्वादिष्ट होता था। मैंने भी कई बार साही का मीट खाया था। जब भी साही मारी जाती, दादी उसकी अतड़ियों पोटियों को खूब साफ करवा कर पानी में धुलवा लेती और सूखने के बाद ये अतड़िया सूखी लकड़ी की तरह चटाचट टूट जातीं। दादी इन्हें सींग में भर कर रख लेती। जब किसी का पेट दर्द करता, थोड़ी सी अतड़ी पोटी तोड़ कर उसे सिल पर दो चम्मच पानी डाल कर वही रख बना कर सुतुही से पिला देती। पेट दर्द तुरंत बंद हो जाता। दालचीनी तथा बांस का सीका पीस कर ललाट पर लगाने से सिरदर्द बंद हो जाता था। दादी इस तरह एक बैद्य भी थी। वह पैसों की रेजगारी को भी सींग में रखती थी। दलित बस्ती की कुछ अन्य बुढ़िया औरतें भी इस तरह के काम के लिए सींग का इस्तेमाल करती थीं। जाहिर है मरे पशुओं का डांगर खाने वाले दिनों में दादी बड़ी बड़ी सींगों को भी मुर्दहिया से काट लाती थी। वर्षों बाद जब मैंने बौद्ध त्रिापिटक पढ़ा तो उससे पता चला कि गौतम बुद्ध के महापरिनिवार्ण के ठीक सौ साल बाद करीब चौबीस सौ वर्ष पूर्व वैशाली में विद्वान भिक्षुओं की द्वितीय महासंगीत यानि बुद्ध के उपदेशों का संगायन हुआ तो उसमें दस संशोधन किये गये थे, जिनमें पहला ही संशोधन था ÷सिडि.लोण काप्प' यानि भिक्षा के समय जानवर की एक खाली सींग में नमक भर कर ले जाना। विनय पिटक में किसी बौद्ध भिक्षु के लिए किसी भी प्रकार की खाद्य सामग्री या धनसंचय की मनाही है, किन्तु इस संशोधन से मौलिक बौद्ध नियमों का उल्लंघन हुआ। इसका मूल कारण यह था कि भिक्षा में अकसर नमक नहीं मिलता था, इसलिए भिक्षु लोग बिना नमक का ही खाना पका कर खाते थे। इस व्यावहारिक कठिनाई से बचने के लिए यह संशोघन किया गया था, ताकि नमक मांग या खरीद कर सींग में रखा जा सके। तभी से सींग में संचय की यह बौद्ध प्रथा जारी हुई। दादी द्वारा दवाएं तथा पैसा, यहां तक कि सूई डोरा भी रखना सिद्ध करता है कि हमारे खानदान वाले सदियों पूर्व कभी खांटी बौद्ध अवश्य रहे होंगे। दादी की वे सींगें इसका प्रमाणहै।मुर्दहिया के संदर्भ में सन् 1957 का ÷भादों' का महीना मेरे जीवन का एक विशेष यादगार वाला महीना है। उस समय हिन्दू धर्म के अनुसार ÷खरवांस' यानि बहुत अपशकुन वाला महीना था। इस बीच मेरे पिता जी जिस सुदेस्सर नामक ब्राह्मण की हरवाही करते थे, उनकी बुढ़िया मां मर गयी। उनके ही पट्टीदार अमिका पांड़े ने ÷पतरा' देख कर बताया कि अभी पंद्रह दिन खरवांस है, इसलिए मृत मां का दाह संस्कार नहीं हो सकता। यदि ऐसा किया गया तो माता जी नर्क भोगेंगी। उन्होंने सुझाव दिया कि माता जी की लाश को मुर्दहिया में एक जगह कब्र खोद कर गाड़ दिया जाय, तथा पंद्रह दिन बाद निकाल कर लाश को जला कर दाह संस्कार हिन्दू रीति से किया जाय। मेरे पिता जी मुझे लेकर मुर्दहिया पर कब्र खोदने गये। वे फावड़े से कब्र खोदते रहे और मैं मिट्टी हटाता रहा। जब कब्र तैयार हो गयी तो सुदेस्सर पांड़े अपने पट्टीदारों के साथ लाश को लाकर उस कब्र में डाल दिये। तुरंत उसको मिट्टी से पाट दिया गया। दफनाने से पहले टोटकावश सुदेस्सर पांडे ने कफन के एक कोने में सोने की मुनरी गठिया दी थी। एक अंधविश्वास के अनुसार किसी लाश के कफन में सोना बांधने से वह जल्दी नहीं सड़ेगी। ऐसा ही ब्राह्मणों के सुझाव पर किया था। पिता जी ने कुछ कटीली अकोल्ह की झाड़ियां काट कर कब्र के उपर डाल दी थीं, ताकि लाश को सियारों से बचाया जा सके। ऐसा करके सभी अपने घर लौट आये। सुदेस्सर पांड़े रोज मेरे पिता जी को मुर्दहिया पर भेजते कि वे कब्र को देख आवें, क्योंकि सियारों द्वारा खोद कर लाश को खा जाने की आशंका हमेशा बनी रहती थी. पिता जी काम में व्यस्तता के कारण दो चार दिन बाद स्वयं न जाकर मुझे कब्र देखने के लिए शाम के समय स्कूल से लौटते हुए मुर्दहिया पर जाने की हिदायत देते रहे। मैं वैसा ही करता था किन्तु कब्र के नजदीक नहीं जाता। थोड़ा दूर से ही देख लेता। वैसे स्कूल का रास्ता भी मुर्दहिया के पास से ही गुजरता था। इस तरह पंद्रह दिन जैसेतैसे बीत गये और पिता जी के साथ मेरी भी कब्र की रखवाली की अवधि समाप्त हो गयी साथ ही खरवांस भी गुजर गया। अब बारी थी पांड़े की माता जी को कब्र से बाहर निकाल कर उनकी लाश को जलाने की। मेरे पिता जी उन पंद्रह दिनों के दौरान प्रायः यह कहते थे कि कहीं कोई चोर डाकू उस सोने की मुनरी के लालच में कब्र खोद कर लाश को बाहर न कर दे। यदि ऐसा हुआ तो बड़ा अनर्थ होगा। सुदेस्सर पांड़े की हरवाही से पिता जी का इतना लगाव था कि वे उनकी माता जी की लाश को लेकर पांड़े से कहीं ज्यादा चिन्तित रहते थे। आखिर लाश निकालने का समय अमिका पांड़े के उस दैवी पतरा के अनुसार निर्धारित किया गया। सुदेस्सर पांड़े दो चार फावड़ा मिट्टी हटा कर दूर खड़े हो गये। सड़ांध आने के डर से उनके पट्टीदार भी दूर भाग गये। पिता जी कब्र की मिट्टी फावड़े से हटाते रहे। किनारे लायी गयी भुरभुरी मिट्टी फिर से कब्र में न गिरने पावे इसके लिए पिता जी मुझे मिट्टी पीछे ठेलने के लिए कहते रहे। मैं वैसा ही करता रहा। अंततोगत्वा कब्र में कफन वाला सफेद कपड़ा दिखाई देने लगा। यकायक उस सड़ी लाश की दुर्गन्ध से सारा वातावरण डगमगा गया। सुदेस्सर पांड़े भी मुंह पर गमछा बांधे दूर भाग गये, और वहीं से पिता जी से कहते रहे कि वे सोने वाली मुनरी को पहले ढूंढ कर कफन से निकाल लें। यह एक अजीब स्थिति थी। उस दिन मेरे मन में पहली बार यह बात समझ में आयी थी कि किसी के लिए मां की लाश की अपेक्षा सोना कितना प्रिय था। पिता जी ने मुझे भी गमछा मुंह पर बांध लेने को कहा। मैंने वैसा ही कर लिया। उस समय सारे ब्राह्मण वहां से चम्पत हो गये। सुदेस्सर पांड़े भी दूर ही खड़े रहे। पिता जी ने जैसे तैसे सड़ी लाश को पैर की तरफ से उठा कर मेरे हाथों में पकड़ा दिया और स्वयं सिर की तरफ से पकड़ लिया। आपार दुर्गन्ध और घृणा से मजबूर हम दोनों ने उस लाश को बाहर निकाल कर पहले से ही पास में सजायी चिता पर रख दिया। कफन से छुड़ा कर उस सोने की मुनरी को धूल से रगड़ कर पिता जी ने सुदेस्सर पांड़े के हवाले कर दिया। वे बड़ी मुश्किल से मुंह नाक बांध लाश के पास आये और आग जला कर चिता को जला दिये। पांड़े पुनः भाग कर दूर चले गये। वहां सिर्फ मैं और पिता जी खड़े रहे और लाश को जलाते रहे। इस बीच आग कम होती देख कर पिता जी ने पलाश की डालियां तोड़ कर चिता में डाल दीं। उधर सूरज डूबने वाला था। धीरे धीरे अंधेरा फैल रहा था। बड़ा डर लगने लगा जैसे तैसे लाश जलायी गयी और हम घर फावड़ा लेकर वापस आ गये। हमारे घर के पीछे एक छोटी सी पोखरी थी। हम उसमें जाकर खूब नहाये। पिता जी ने नहाने के बाद उसी अपने द्वारा लगाये गये पीपल के पेड़ की जड़ के पास घी का दीया जला कर पूजा की। पूजा की विधि उनकी वही चिर परिचित रो रो कर किसी से बाते करने वाली जैसी उस दिन भी रही। मुर्दहिया न जाने कितने वर्षों से अनगितन लोगों के दुख दर्द को जला कर राख करती आ रही थी। और न जाने कितने लोगों के दुख को अपनी धरती में दफना लिया था। और आगे भी इन दुखों को जलाती दफनाती रहेगी। उस दिन मुझे भी बड़ी गहराई से अनुभूति हुई थी कि मेरे भी अंदर एक मुर्दहिया जन्म ले चुकी थी, जिसमें भविष्य के न जाने कितने ही दुख दर्द जलने और दफ्न होने वाले थे। जब मैं पंद्रह वर्ष की अवस्था में हाई स्कूल पास करने के बाद पढ़ाई छूट जाने के कारण घर से 1964 में भागा तो उसी मुर्दहिया से होकर अंतिम बार गुजरा था। वैसे तो मैं अकेला ही था, किन्तु हकीकत तो यही थी कि चल पड़ी थी मेरे साथ मुर्दहिया भी। जब मुझे यह मालूम हुआ कि दुनिया में दुख है, दुख का कारण है और उसका निवारण भी, तो ऐसा लगा कि इस सत्य को ढूंढने से पहले तथागत गौतम बुद्ध कभी न कभी मेरी मुर्दहिया से अवश्य गुजरे होंगे।
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Vikas Mogha भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरूतियों का चिठ्ठा खोलता प्रो. तुलसी राम की आत्मकथा 'मुर्दहिया' का यह अंश अत्यधिक आकर्षक हैं ! निसंदेह उनकी पुस्तक भी अत्यधिक आकर्षक होगी ! मेरी असंख्य शुभकामनाएं प्रो. तुलसी राम की आत्मकथा 'मुर्दहिया' के लिए !
आपका सादर धन्यवाद् !!!
16 hours ago · Like · 3 people
Anil Tiwari Aye dil kinare ko kinara na samajh,
Aye dil sahare ko sahara na samajh,
Barish aane par kinare toot jate hain,
Musibat aane par sahare chooth jate hain… GM
10 hours ago · Like
Uday Prakash विलक्षण स्मृतिसंपन्न गद्य...। इतने विवरणों से भरा-पूरा, अपने में बांध लेने वाला ऐसा संस्मरण एक सचमुच विरल अनुभव है। तुलसीराम जी के साथ बिताये गये दिन बहुत याद आये। हास्टल का उनका कमरा और उनका पकाया गोश्त आज तक स्मृति में है। उन्होंने हिंदी गद्य का जो 'अखन्हा' यहां बांधा है, उसमें हिंदी भाषा के छोटे-मोटे चिनगे-कतले-मांगुर कूद-कूद कर मरेंगे!
वाह..! इसे शेयर करने के लिए आभार!
8 hours ago · Like · 3 people
Rajeev Kumar beech beech kahi kahi me mujhe apne gaon ka seen yaad jata bilkul usi tarah ke and-vishwash wahi dhakosalebazi bahut sahi likha. mai to ek baar me pad gaya. Meena Ji aap ka saadar dhanyabad tag karne ke lie.!!!!!!
4 hours ago · Like
Chandra Prabha mai bhi ese padh ke kuch aisa hi ehsas kr rahi thi ki mai aapne gaav aa gai hu..aisi kai rudhiya humare yhan bhi hai..nisandeh ye pustak behtareen hoge..meri dher sari shubhkamnaye unke liye:)
2 hours ago · Like · 1 person
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