मुद्दों की तलाश में पक्ष और विपक्ष
गंगा सहाय मीणा
एसोसिएट प्रोफेसर, भारतीय भाषा केन्द्र
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
लगभग सभी दलों ने 2024 में होने वाले आम चुनावों की तैयारियां शुरू कर दी हैं। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि पक्ष और विपक्ष आगामी चुनावों को लेकर अपने मुद्दों को अंतिम रूप देने में लगे हैं। 2024 में आम चुनावों के साथ मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव होने हैं। ऐसे में यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि आखिर 2024 के चुनाव किन मुद्दों पर लड़े जाएंगे। मुद्दों की सही पहचान से विभिन्न दलों के प्रदर्शन के साथ देश का भविष्य भी तय होगा।
2024 के चुनावों के मुद्दों को समझने की दृष्टि से राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दिल्ली में हुई बैठक, कांग्रेस का रायपुर में हुआ 85वां पूर्णाधिवेशन, विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं की सिलसिलेवार बैठकें, गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की परस्पर मुलाकातें, विपक्षी नेताओं पर सीबीआई और ईडी की ताबड़तोड़ कार्यवाहियॉं महत्त्वपूर्ण घटनाऍं हैं।
राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से इस बात की संभावना तलाशी कि उनकी इस राय से लोग कितने सहमत हैं कि भाजपा और मोदी ने भारत की विविधता और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के विचार को नुकसान पहुंचाया है। भारत जोड़ो यात्रा को आम लोगों का अच्छा खासा समर्थन मिला और राहुल गांधी ने अपने कठिन परिश्रम और सुचिंतित वक्तव्यों से मीडिया द्वारा निर्मित अपनी अगंभीर छवि को सुधारने का भरपूर प्रयत्न किया। यात्रा के ठीक बाद मानहानि जैसे सामान्य से मामले में उन्हें दोषी करार दिये जाने और उनकी संसद सदस्यता रद्द किये जाने ने यह साबित कर दिया कि भारत जोड़ो यात्रा से निखरे राहुल सत्ता को गंभीर चुनौती दे सकते हैं। चाटुकार मीडिया और भाजपा एवं संघ कार्यकर्ताओं द्वारा गढी गई मोदी की भ्रष्टाचार-विरोधी पाक-साफ छवि को राहुल गांधी कई वर्षों से लक्ष्य कर रहे हैं। राफेल सौदे से लेकर अडानी के कारोबार से संबंधों तक राहुल ने बार-बार मोदी की छवि पर प्रहार किया लेकिन केन्द्र सरकार और उसके अधीन काम करने वाली एजेंसियॉं विपक्षी नेताओं पर भ्रष्टाचार के मामलों में ताबड़तोड़ कार्यवाहियां कर राहुल के अभियान को सफल नहीं होने दे रहीं। एक रिपोर्ट के मुताबिक यूपीए सरकार के दौर में ईडी द्वारा करीब 54 फीसदी मामले विपक्षी दलों के नेताओं पर दर्ज किये गए जबकि एनडीए के शासनकाल में यह प्रतिशत 95 तक पहुंच गया है। यही हाल सीबीआई का है। यूपीए के वक्त विपक्षी नेताओं पर सीबीआई केसों का आंकड़ा 60 प्रतिशत के आसपास था और अब यह 95 फीसदी पर पहुंच गया है। जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में मोदी सरकार पर अन्य कई आरोपों के साथ यह भी आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए भ्रष्टाचार कोई प्राथमिक मुद्दा नहीं है। हालांकि मीडिया में इस साक्षात्कार के बारे में एक खास प्रकार का उपेक्षा भाव देखा गया।
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक व अन्य मंचों पर भाजपा राष्ट्रवाद और विकास को मुद्दा बनाती दिख रही है। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए बने पंडाल के गेट पर लगे कट आउट में इसरो, ब्रह्मोस मिसाइल और युद्धपोत की तस्वीर भाजपा के सैन्य प्रगति के दावे को दर्शाने के लिए लगाई गई। विपक्षी दलों द्वारा राष्ट्रवाद और विकास, दोनों ही मोर्चों पर भाजपा को घेरने की कोशिश रहती है। भाजपा के राष्ट्रवाद को विपक्षी दल हिन्दू राष्ट्रवाद कहकर उसकी सीमाऍं बताते हैं और चीन द्वारा किये जा रहे अतिक्रमण के प्रयासों का जिक्र करते हैं। विकास के मुद्दे की बात आने पर विपक्षी दल सत्ताधारी दल को अडानी और महंगाई की याद दिलाते हैं। गत कुछ चुनाव परिणामों ने इस ओर संकेत जरूर किया है कि विपक्ष के तमाम प्रश्नों और आलोचनाओं के बावजूद भाजपा राष्ट्रवाद और विकास के मुद्दे पर वोट लेने में अब तक सफल रही है। समाज और राजनीति से आतंक के खात्मे का दावा भी भाजपा नेताओं द्वारा किया जाता है। इसके जवाब में विपक्षी दल भाजपा पर अल्पसंख्यकों और अपने विरोधियों को टारगेट करने का आरोप लगाते हैं।
अपने एक भाषण में अमित शाह ने जनवरी 2024 में राममंदिर को खोले जाने का ऐलान किया है। इससे लगता है कि राममंदिर के मुद्दे को भाजपा एक बार फिर भुनाने के लिए तैयार है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल आदि को लक्ष्य कर राजनीति में परिवारवाद के मुद्दे को भी बार-बार उठाता रहता है। हालांकि राजनीति में परिवारवाद किसी पार्टी विशेष की नहीं, पूरी भारतीय राजनीति की विशेषता है, लेकिन विपक्ष अक्सर इस मुद्दे पर रक्षात्मक भूमिका में ही दिखाई देता है।
2024 का चुनाव कांग्रेस के लिए अस्तित्व की लड़ाई की तरह है। राहुल गांधी जितनी गंभीरता और स्पष्टता के साथ अडानी के माध्यम से प्रधानमंत्री को घेरने और भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद के बरक्स भारत की सेकुलर परंपराओं की वकालत करते हैं, उससे समाज का एक तबका तो प्रभावित होता है लेकिन बड़ा तबका व्हाट्सएप्प और दरबारी मीडिया द्वारा प्रस्तुत तथ्यों और छवियों के माध्यम से ही राय बनाता दिखता है। राहुल गांधी की तरह कांग्रेस तथा विपक्षी दलों के अन्य नेताओं को इन मसलों पर गंभीरता और आक्रामता को अपनाना होगा। साथ ही अपने अभियानों में निरंतरता लानी होगी, तब ही वे मीडिया-निर्मित छद्म प्रतिमाओं का खंडन कर सकेंगे।
विपक्षी दलों के नेताओं की सिलसिलेवार बैठकें बदलाव की संभावनाऍं तो पैदा करती हैं लेकिन मुद्दों को लेकर समय रहते स्पष्टता और सहमति का अभाव विपक्षी एकता के प्रभावों को सीमित करने का ही काम करेगा। विपक्षी गठबंधन को निजी महत्वाकांक्षाओं को त्याग 2024 के लिए जल्द न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना होगा, तब ही वह मोदी की विजययात्रा के रथ को रोकने की दिशा में आगे बढ़ सकता है। इस साझे कार्यक्रम में निश्चिततौर पर बेरोजगारी और महंगाई को मुद्दा बनाना होगा जिससे बहुत बड़ी आबादी प्रभावित हो रही है। हाल ही में हुए एक अध्ययन में करीब 25 प्रतिशत लोगों ने बेरोजगारी को देश की सबसे बड़ी समस्या बताया है और महंगाई को दूसरी बड़ी समस्या। जाहिर है स्वयं का उन्मादी भीड़ में बदलना युवाओं को ज्यादा दिन तक रास नहीं आएगा। अंतत: उन्हें अपने लिए एक स्थाई रोजगार और सम्मानजनक जीवन चाहिए। देखना यह है कि विपक्षी दल अपने चुनावी घोषणा-पत्रों में युवाओं के इस सपने को कितनी जगह देते हैं और इसे पूरा करने के बारे में युवाओं को कितना भरोसा दिला पाते हैं! राहुल गांधी द्वारा हाल ही में उठाया गया जाति जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने और जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की मांग करने का मुद्दा भी देश की बहुजन जनसंख्या को आकर्षित कर सकता है। इसकी मांग काफी दिनों से हो रही है। अभी तक यह मुख्यत: ओबीसी समुदाय का मुद्दा रहा है। राहुल गांधी द्वारा उठाये जाने के बाद संभव है यह तमाम विपक्षी पार्टियों का मुद्दा बन जाए और चुनाव दशा और दिशा ही बदल दे!
इन सबके अलावा 2024 के चुनाव में क्षेत्रीय मुद्दे भी प्रभावी हो सकते हैं। मसलन झारखंड के मुख्यमंत्री डॉमिसाइल के मुद्दे को स्थानीय स्तर पर लगातार उठाते रहे हैं। ऐसे में अगर चुनाव के समय सभी गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री आम चुनावों में क्षेत्रीय मुद्दों को संबंधित राज्य में मुख्य मुद्दे बना दें तो इससे भाजपा का गणित बिगड़ सकता है। विपक्षी दलों को निश्चिततौर पर ऐसे मुद्दों से बचना होगा जिन पर स्वयं उनके बीच सहमति नहीं है और जो जनता को आकर्षित नहीं कर सकेंगे। साथ ही यह भी जरूरी है कि गठबंधन अवसरवादी न दिखे। विपक्षी दलों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हिन्दुत्व के मुद्दे में आम लोगों का आकर्षण अभी तक बना हुआ है।
2024 में भाजपा हर हाल में अपनी सत्ता कायम रखना चाहती है। अभी विपक्ष बिखरा और कमजोर महसूस हो रहा है। अगर विपक्ष मजबूत होता दिखा तो ध्रुवीकरण के लिए भाजपा यूनिफॉर्म सिविल कोड और जनसंख्या नियंत्रण कानून ला सकती है। पिछड़े वर्ग की एकता को तोड़ने के लिए ऐन वक्त पर रोहिणी आयोग की सिफारिशों को भी लागू किया जा सकता है। ऐसे में निश्चिततौर पर विपक्षी दलों द्वारा सही मुद्दों की पहचान और मुद्दा-आधारित एकता आने वाले चुनावों में निर्णायक साबित होगी।