‘तिरस्कृत’ का महत्त्व
डॉ. गंगा सहाय मीणा
(सूरजपाल चौहान की स्मृति में उनकी आत्मकथा
के पहले हिस्से 'तिरस्कृत' का मूल्यांकन)
‘तिरस्कृत’ समकालीन हिन्दी दलित साहित्य में
महत्वपूर्ण स्थान बना चुके सूरजपाल चौहान की आत्मकथा है। ‘तिरस्कृत’
के प्रकाशन (2002) से पूर्व सूरजपाल चौहान के कई आत्मकथांश ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘हंस’, ‘युद्धरत आम आदमी’, ‘वर्तमान साहित्य’ आदि राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छप चुके थे। उनको पढ़कर कुछ पाठकों ने
सराहा तो कुछ ने नाक-भौं भी सिकोड़ी।
किसी भी साहित्यकार की आत्मकथा का महत्व उसके जीवन के
माध्यम से उसकी रचनात्मकता को समझने के लिहाज से तो होता ही है, एक दलित आत्मकथा में दलित समाज के अभाव, अपमान और
यातनापूर्ण जीवन-प्रसंगों का चित्रण भी महत्वपूर्ण होता है। ये प्रसंग आत्मकथाकार
के जीवन से संबंधित होते हैं लेकिन पढ़ने के दौरान उन प्रसंगों से साधारणीकरण की
प्रक्रिया में लेखक के साथ-साथ पाठक भी अपने अतीत में पहुँच जाता है। दलित साहित्य
के ‘लक्ष्य पाठकों’ द्वारा इस
प्रक्रिया में अपने अतीत को याद करना उस शोषक व्यवस्था को याद करना है जिसमें उन
जैसे अधिकांष लोग पले-बढ़े हैं लेकिन आज चंद सुख-सुविधाएँ पाकर उसे भूल गए हैं। उसे
याद करना करोड़ों लोगों के शोषण की ओर ध्यान देना है क्योंकि यह व्यवस्था अभी भी
बरकरार है। जाहिर है अगर उस पर ध्यान जाएगा तो उसे खत्म करने का रास्ता भी निकलेगा,
कोई विकल्प सूझेगा। इस दृष्टि से ‘तिरस्कृत’
निष्चय ही एक अद्भुत दलित आत्मकथा है। इसमें दलित जीवन के ऐसे
प्रसंग मौजूद हैं जिनकी कल्पना करना भी कुछ लोगों के लिए मुष्किल है। दलित जीवन से
संबंधित ये प्रसंग गहरे सामाजिक-आर्थिक संदर्भ लिये हुए हैं।
सूरजपाल चौहान का संबंध भारतीय समाज व्यवस्था में सबसे
नीची,
या कहें दलितों में दलित समझी जाने वाली, भंगी
जाति से है। जाहिर है कि इस जाति की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सबसे खराब है। इस जाति
का जाति व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित होना अथवा दलितों में दलित होना
इस बात की ओर संकेत करता है कि बाकी दलित जातियों की तुलना में इस जाति का शोषण
बड़े पैमाने पर हुआ है। इस शोषण-उत्पीड़न में कई जातियाँ सम्मिलित रही हैं। अगर हम
वस्तुस्थिति का जायजा लें तो पायेंगे कि इस शोषण-उत्पीड़न में सवर्ण जातियों के साथ
कुछ दलित जातियाँ (अनुसूचित जातियाँ) भी शामिल रही हैं और आज भी हैं। यह दलित समाज
की एक हृदय विदारक सच्चाई है। यह अलग बहस का विषय है कि दलितों के द्वारा दलितों
का यह शोषण कब और कैसे शुरू हुआ, लेकिन यह आज हमारे सामने
अपने नग्न रूप में खड़ा है और दलित एकता और दलित चेतना के रास्ते में एक बड़ी बाधा
के रूप में उपस्थित होकर उस पर एक साथ कई प्रष्नचिह्न लगाता है। ‘तिरस्कृत’ दलितों में जातिवाद के इस गंभीर सवाल को
प्रमुखता से उठाने वाली हिन्दी की पहली और अब तक इकलौती आत्मकथा है। दलितों में
मौजूद जातिवाद के अलावा ‘तिरस्कृत’ में
दलित समाज की अन्य विसंगतियों पर भी सूक्ष्म दृष्टि डाली गई है। इसीलिए यह आत्मकथा
‘‘एक ओर जहाँ जाति आधारित परंपरागत हिन्दू समाज की आलोचना है
वहीं ‘दलित साहित्य’ के संदर्भ में
आत्म आलोचना भी है। उसमें ‘दलित संस्कृति’ का महिमामंडन नहीं, उसकी विडंबनाओं को उजागर किया
गया है।’’1 ‘तिरस्कृत’
के लेखन में अपनाई गई आत्मालोचना की यही प्रवृत्ति इसे शेष हिन्दी
दलित आत्मकथाओं से पृथक् व महत्वपूर्ण बना देती है।
‘तिरस्कृत’ के आधार पर हम लेखक सूरजपाल चौहान के
अनुभवों को तीन भागों में बाँट सकते हैं-
1. गाँव
संबंधी अनुभव व लेखक का बचपन;
2. सरकारी
मुलाजिम के रूप में लेखक के अनुभव व देशभर में व्याप्त सवर्ण मानसिकता पर की गई
टिप्पणियाँ;
3. घर-परिवार
व रिष्तेदारी के बीच मिले अनुभव।
ये सभी अनुभव लेखक की चेतना के निर्माण, विकास और विभिन्न दिशाओं में आए बदलाव की कहानी कहते हैं।
लेखक सूरजपाल चौहान की चेतना की निर्माणभूमि मुख्यरूप से
दिल्ली शहर रहा लेकिन इस संदर्भ में दो बातें महत्वपूर्ण हैं- पहली, लेखक की चेतना के निर्माण की पृष्ठभूमि सामंती संस्कारों से परिपूर्ण
उत्तर भारत का एक गाँव ही रहा। दूसरी, लेखक बचपन में ही अपना
गाँव छोड़ पिता के साथ दिल्ली जरूर आ गया, लेकिन उसकी दिल्ली
सिमिट्री की झुग्गियों तथा नेशनल स्टेडियम की सीढ़ियों व बंद पड़े पाखानों तक सीमित
थी, वह एक सफाई कर्मचारी के बेटे की हैसियत से दिल्ली आया
था।
लेखक की चेतना के निर्माण की पृष्ठभूमि के रूप में आया
फुसावली गाँव (जिला-अलीगढ़, उत्तर प्रदेश) उत्तर भारत के
अधिकांश गाँवों की तरह ही सामंती खाके में बसा हुआ है। वही परंपरागत मूल्य व
मान्यताएँ व उनके बीच पिसता दलित जीवन। अशिक्षा, गरीबी,
शोषण व अपमान से युक्त यातनापूर्ण जीवन जैसे दलित समाज की विशेषता
हो! वहाँ कर्म का निर्धारण जन्म द्वारा होता है तभी तो बालक सूरजपाल तथा उस जैसे
कई अन्य अबोध बच्चों को विरासत की ‘निधि’ के रूप में गू-मूत उठाने का पुष्तैनी धंधा ही मिलता है। लेखक की माँ बेगार
के रूप में ठाकुरों के मुहल्ले साफ करती है। एक बार जब वह बीमारी के कारण तीन-चार
दिन तक ठाकुरों के मुहल्ले में सफाई के लिए नहीं जा पाती तो गाँव का ठाकुर प्रताप
उसे गालियाँ देता हुआ उसके घर आ जाता है। लेखक की माँ बीमारी के कारण असमर्थता
जाहिर करती है तो ठाकुर प्रताप वहाँ खडे़ बालक सूरजपाल को अपने साथ सफाई के लिए ले
जाने की जिद पर अड़ जाता है। उसकी जिद के आगे हारकर असहाय माँ बड़े अनमने मन से अपने
अबोध बालक के हाथों में झाड़ू और टोकरा थमा देती है। लेखक बताता है कि उस दिन बड़े
मैदान के झाड़ू लगाते-लगाते उसकी कमर दोहरी हो गई। नाक, कान,
सिर मिट्टी से अट गए। रोजाना इस तरह की पीड़ाओं को झेलने के कारण ही
शायद लेखक की माँ इतने दिन तक बीमार रहती होगी। स्लेट और चॉक के स्थान पर अपने बालक
को झाड़ू और टोकरा थमाना! यह दृष्य भारतीय समाज व्यवस्था की कड़ी आलोचना है। वह तो
आत्मविश्वासी और संघर्षशील सूरजपाल था जो कुछ ही दिनों में उस झाड़ू और टोकरे से
मुक्त हो गया वरना न जाने कितने सूरजपाल इसी झाड़ू और टोकरे के चक्रव्यूह में फँस
जाते हैं और फिर यही चक्रव्यूह उन्हें लील जाता है। स्वयं लेखक की माँ इसका उदाहरण
है।
उन्हीं स्लेट-चॉक पकड़ने के दिनों में बालक सूरजपाल को एक
और नया अनुभव मिला- जूठन सँकेलने का। लेखक की माँ अपने इस बालक को 7-8 वर्ष का हो
जाने पर जूठन सँकेलने में मदद के लिए उपयुक्त पाती है और राधे लोधे की लड़की के
विवाह में जूठन उठाने जाते वक्त अपने साथ ले लेती है। बालक सूरजपाल भी मन ही मन
खुश था अपने इस नए अनुभव से पूर्व। बाराती जीम रहे थे, लेखक और उसकी माँ चौखट से बाहर खड़े उनकी ओर ललचाई नजरों से देख रहे थे।
जूठन उठाने वाले की नजर ठीक उस कुत्ते की तरह मुष्तैद होती है जो उसके समानान्तर
उसका प्रतिद्वन्द्वी बनकर खड़ा होता है। एक आदमी खाना खाकर जूठी पत्तल उनकी और
फेंकता है, जिस पर लेखक की माँ और एक कुत्ता एक साथ झपटते
हैं। यह दृष्य भारतीय संस्कृति की बहुत बड़ी आलोचना है, ऐसी
संस्कृति की, जो आदमी के स्वाभिमान की हत्या कर उसे पशुओं की
श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। स्वाभिमान की हत्या का यह कार्य भूख और गरीबी
जैसे जानलेवा हथियारों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। लेखक ने ठीक ही इंगित किया है
कि ‘‘जब रूखे-सूखे निवालों के भी लाले हों और आदमी-आदमी के
हाथों नारकीय जीवन जीने को विवश हो तब वह स्वयं में और पशुओं में अंतर नहीं कर
पाता।’’2 स्वाभिमान की शर्त
पर इकट्ठी की गई इस जूठन को कई दिनों तक खाया जाता है। अधिकांश भंगी परिवारों की
यही स्थिति है। भूख और गरीबी का यह स्तर कुछ लोगों के लिए कल्पनीय हो सकता है
लेकिन यह आज भी भंगी जाति का यथार्थ है। इसीलिए लेखक की यह बात गलत नहीं है कि ‘‘जब-जब बसीठों (सवर्णों) के घरों में शादी-ब्याह का कार्यक्रम होता,
हमारे भंगी मौहल्ले में त्योहार जैसा माहौल उत्पन्न हो जाता था। ऐसा
जान पड़ता था, जैसे हमारे मौहल्ले में ही किसी के यहाँ ब्याह-बारात
हो।’’3 खेती के लिए जमीन न
होने के कारण भंगी परिवारों के लिए पेट भरने के दो तरीके थे- सवर्णों के शादी-ब्याह
के अवसर पर इकट्ठी की गई जूठन और सवर्णों के मुहल्ले में रोजाना सफाई कार्य के
बदले मिली बाजरे या मटरे की रोटी। तभी तो पुन्नी जीजा के लिए माँग-माँगकर इकट्ठे
किए गए गेहूँ के आटे की रोटियों में से एक रोटी पाने के लिए बालक सूरजपाल लालायित
रहता है लेकिन आधी रोटी हाथ लगती है। उस दिन की उस गेहूँ की आधी रोटी का स्वाद
लेखक को आज भी याद है, ‘‘वाह, वह गेहूँ
के आटे की बनी रोटी कितनी स्वादिष्ट थी। बिना सब्जी के भी वह कितनी मीठी लग रही
थी।’’4 जिसे भूख और गरीबी
का अहसास न हो, वह गेहूँ की रोटी के इस मीठेपन (मिठास) को
महसूस नहीं कर सकता।
इसके अलावा ‘तिरस्कृत’
में ग्रामीण दलित जीवन के एक-दो और ऐसे प्रसंग मौजूद हैं जो किसी भी
दलित पाठक की चेतना को झकझोर कर उसे अपने अतीत में झाँकने को मजबूर करते हैं। लेखक
ने अपने ननिहाल नौगमा के दलित जीवन का चित्रण बड़े ही यथार्थपरक ढंग से किया है।
सबसे पहले वे दलित मुहल्ले की भौगोलिक स्थिति को पाठकों के सामने रखते हैं। यानी
गाँव की सारी गंदगी के केन्द्र गंदे पोखर के किनारे छितरे भंगी और चमारों के
मुहल्ले। सामान्यतः होता यही है कि शहरों में ही नहीं, गाँवों
में भी दलित परिवार ऐसी जगहों पर रहते हैं, जो सामान्य आबादी
के रिहायशी इलाके के एक तरफ कोई गंदगीयुक्त जगह होती है। शुरू में इसका कारण
दलितों की मजबूरी रही होगी लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने इस मजबूरी को आत्मसात कर
लिया। आज बहुत से सम्पन्न दलित भी उन्हीं गंदी बस्तियों और झुग्गी-झोंपड़ियों में
रहते हैं- बिना किसी मजबूरी के, जिनमें कई ऐसे बड़े सरकारी
अधिकारी भी शामिल हैं, जिन्हें अपने विभाग की तरफ से अच्छे
क्वार्टर मिले हुए हैं। स्वयं लेखक ने आत्मकथा में इस बात का हवाला दिया है।
नौगमा के भंगी पूरे-पूरे दिन जुआ खेलने में मस्त रहते हैं।
पास में पैसे न हो तो बीड़ियों से ही जुआ सही। यह भंगी समाज के संदर्भ में
आत्मालोचना तो है ही, लेकिन भंगियों में पनप रही इस
प्रवृत्ति की जड़ (कारण) भारतीय व्यवस्था में निहित हैं। अधिकांश दलित जातियों के
लोग अपना अधिकांश समय ताश-जुए में व्यतीत करते हैं। कारण- बेगार और बेकारी। काम
(रोजगार) के अभाव में पूरे दिन घर बैठ कर क्या करें? मनोरंजन
के अन्य साधनों से वंचित होने पर दलित जातियों के लोगों द्वारा ताश-जुए को ही
टाइम-पास का साधन मान लिया जाता है। आज भी गाँवों में अनपढ़ और पढे़-लिखे, सभी, ताश और जुए के खेलों में डूबे हुए मिल जाएँगे।
अनपढ़ लोग बेकारी के कारण ऐसा करते हैं और पढ़े-लिखे पढ़ाई की ‘निस्सारता’
के कारण! इसके अलावा अभावजनित लालसा और बिना कुछ किए अमीर बन जाने
की इच्छा का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। इन ताश-जुए खेलने वालों में बी.ए., एम.ए. किए हुए लोग भी बहुतायत मिल जाएँगे। यह भारतीय राज-व्यवस्था की
विफलता है कि आज भी गाँवों में बड़े पैमाने पर शिक्षित-अशिक्षित युवा, काम के अभाव में इस तरह की लतों की गिरफ्त में हैं। वरना उनकी ऊर्जा का
सदुपयोग भी तो किया जा सकता है!
ताऊ सरूपा की बेटी रूमाली की शादी का दिन कई दृष्टियों से
महत्वपूर्ण है। यह प्रसंग एक ओर दलित समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, कुसंस्कृति को बताते हुए उसकी आलोचना करता है, वहीं
दूसरी ओर शोषित, वंचित जीवन जी रहे दलित बच्चों की नियति व
उसके कारकों से भी पाठकों को परिचित कराता है।
रूमाली की शादी के दिन दावत के लिए एक सूअर मारा जाना था।
सूअर मारने का कार्यक्रम एक स्वयंवर की भाँति था। राजा जनक की भाँति ताऊ सरूपा
पहले उद्घोषणा करते हैं, फिर उपस्थित लोगों को उकसाते
व धिक्कारते हैं, ‘‘...शरम नाय आवत, कहूँ
जाय कै चुल्लू भर पानी में डूब मरो। इतने-इतने बलशाली पट्ठे खड़े देख रहे हैं और एक
सूअर नाय पकड़ो जातु। धिक्कार है तुम्हारे भंगी होने पर।’’5 यह सुनकर कुछ भंगियों के बाजू फड़क उठे,
जिनमें से एक ने थोड़ी ही देर में सूअर को धर दबोचा। जातिगत आधार पर
किया गया यह धिक्कार और उस पर जोशीली प्रतिक्रिया इस बात की ओर इशारा करते हैं कि
जन्माधारित कर्म निर्धारित करने वाली वर्णाश्रम धर्म वाली सामंती हिन्दू समाज
व्यवस्था का धीरे-धीरे शोषित जातियों ने भी आत्मसातीकरण कर लिया है, तभी तो एक कार्य को एक जाति की अस्मिता के साथ जोड़कर देखा गया।
भारतीय समाज कुरीतियों के लिए कुख्यात रहा है। शिक्षा का
प्रसार नहीं होने के कारण आज भी इनमें से अधिकांश कुरीतियाँ दलित समाज में
विद्यमान हैं। कुरीतियों का संबंध परंपरा और आस्था से होता है, इसलिए अनपढ़ व्यक्ति के लिए उनके खिलाफ सोचना भी काफी मुष्किल है। सूअर
प्रसंग में ऐसी ही एक कुरीति (‘अज्ञात अविवेकपूर्ण रिवाज’)
का जिक्र है, जिसके तहत विवाह के समय लड़की को
सूअर के लहू का टीका लगाया जाता है। रूमाली की शादी में उसके माथे पर भी सूअर के
खून का टीका लगाया गया।
सूअर को मारने के बाद उसकी दुनाई (भुनाई) और कटनई हुई।
बच्चों को तिक्के (सूअर की चर्बीयुक्त खाल के टुकड़े) पकड़ा दिए गए, जिन्हें बच्चे चाव से चबाते रहे। सूअर की कटनई के बाद निकली पेशाब की थैली
(यूरिन ब्लैडर) बच्चों की तरफ उछाली जाती है। लेखक उसे लपक लेता है लेकिन इस
प्रक्रिया में उसका शरीर उसमें भरे पेशाब से भीग जाता है। इस यूरिन ब्लैडर से वह
तीन-चार दिनों तक ‘फूँकना’ फुलाता रहता
है और जब फूँकना फुलाने से मन भर जाता है तो उसे डफली बना लेता है और कई दिनों तक
बजाता रहता है। ‘पैसा पास में न होने के कारण अभावों में
जीवन गुजारने के कारण बचपन में यूरिन ब्लैडर से फूँकना बनाकर खेलना उन दलित बच्चों
की नियति थी’। महत्वपूर्ण यह है कि लेखक ने पूरी बेबाकी के
साथ ऐसे प्रसंगों को पाठकों के समक्ष रखा है। लेखक ने कहीं भी अपने समाज को ‘सभ्य’ या ‘श्रेष्ठ’ बताने/बनाने की कोशिश नहीं की- जैसा है, वैसा ही
चित्रित कर दिया। सचमुच वाल्मीकि समुदाय का जितना जीवंत और आत्मीय वर्णन ‘तिरस्कृत’ में है, वह अन्यत्र
मिलना दुर्लभ है। ‘‘एक ओर जहाँ वे उस गंदगी, उस जीवन की विडम्बनाओं का करुण वर्णन करते हैं, वहीं
उसी में गुजारे गए अपने बचपन को भी बड़े लगाव और बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत करते
हैं।’’6 जूठन वाले दृष्य
में जूठन दही की मटकी फूट जाने पर माँ की आँखें द्रवित हो जाना, बेबस माँ द्वारा अपने छोटे से लाल को झाड़ू और टोकरा पकड़ा देना, सूअर के तिक्के को स्वाद ले-लेकर खाना और इस प्रक्रिया में दोनों हाथ-मुँह
चर्बी से सने रहना, उन पर मक्ख्यिँ भिनभिनाना, यूरिन ब्लैडर के पेशाब से शरीर भीगना, यूरिन ब्लैडर
से पहले फूँकना और बाद में डफली बनाकर खेलना आदि मार्मिक प्रसंग पाठक की चेतना को
झंझोड़कर उसे सोचने को मजबूर करते हैं।
दलित लेखन में तीन ऐसी जगहों को निशाना बनाया गया है जहाँ
दलितों के साथ भेदभाव सबसे ज्यादा होता है- गाँव, स्कूल
और कार्यालय। दलितेतर साहित्य में इन स्थानों की छवि काफी सकारात्मक है। दलित लेखन
में इनको नए कोण से देखा गया है और इनकी बदसूरती को रेखांकित किया गया है।7
‘तिरस्कृत’ में स्कूल के बहुत कम प्रसंग हैं,
क्योंकि लेखक को बहुत जल्दी ही गाँव छोड़ शहर के स्कूल में पढ़ने का
मौका मिल गया। शिक्षा के मामले में एक बात गौर करने लायक है कि अधिकांश दलितों को
प्रारंभिक शिक्षा देने के मामले में सरकारी स्कूलों से ज्यादा ईसाई मिशनरियों का
योगदान रहा है। विभिन्न दलित आत्मकथाओं के माध्यम से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
आखिर क्या वजह है इसकी? दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित
सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों के पढ़ने के अनुकूल स्थितियाँ ही नहीं हैं। अगर
दलित वहाँ अपने बच्चों को भेजते भी हैं तो छात्रों और अध्यापकों के भेदभावपूर्ण
व्यवहार से तंग आकर वे कुछ समय बाद पढ़ाई छुड़ा लेते हैं। ऐसे दलित बच्चे बहुत गिने-चुने
ही होते हैं जो भेदभाव सहकर संघर्ष करते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखते हैं। इसके विपरीत
ईसाई मिशनरी अपने धर्म प्रचार के समय शोषित वंचित तबके के साथ बराबरी का व्यवहार
करते हैं और उन्हें शिक्षा का महत्व समझाते हैं। सूरजपाल चौहान उनके गाँव में आने
वाले मिशनरी बाबूलाल मसीह के बारे में लिखते हैं, ‘‘आज उनके
ही अथक प्रयासों से छर्रा के आस-पास के गाँवों के दलितों में जो थोड़ी-बहुत शिक्षा
दिखाई पड़ रही है। उनके इस योगदान को नजर-अंदाज नहीं किया जा सकता.... उनकी बातों
का प्रभाव मेरे पिता पर भी पड़ा। पिता उनके कहने से ईसाई तो नहीं बने लेकिन पादरी
के बार-बार कहने से मेरा गाँव की पाठशाला में जाना शुरू हो गया।’’8 वास्तव में सरकार स्कूल खोलकर ही अपना काम
पूरा समझ लेती है- उसकी बला से उन स्कूलों में कुछ भी होता रहे, कोई पढ़े या नहीं, उसे क्या फर्क पड़ता है! कभी सरकार
ने दलितों की शिक्षा पर ठीक से ध्यान दिया ही नहीं।
गाँव में होने वाले जातिगत भेदभाव से संबंधित और कई प्रसंग
‘तिरस्कृत’ में मौजूद है। एक बार लेखक जब ठाकुर के
वीरू के साथ खेलता हुआ पाया जाता है तो ठाकुर लेखक और वीरू दोनों को पीटता है।
वीरू को पानी के छींटों द्वारा ‘पवित्र’ भी करता है। इस प्रक्रिया में वीरू का यह कहना महत्वपूर्ण है, ‘‘मो पै पानी क्यों डारि रहे हो?’’9 यानी वह नहीं जानता कि वह ‘अपवित्र’ हो चुका है! लगता है वीरू का बालमन तब तक जातिगत ऊँच-नीच से अपरिचित था
तभी तो वह एक भंगी के लड़के के साथ खेलता है और बाद में अपने बाप से छींटे देने की
वजह पूछता है। दरअसल जातिवाद एक मानसिकता है जो जन्म से नहीं, माहौल के अनुसार व्यक्ति के मन में स्थान बनाती है। यह जातिवादी परिवारों
के बच्चों में पारिवारिक संस्कारों के साथ (कभी-कभी संस्कारों के रूप में भी) धीरे-धीरे
पनपती जाती है। उनके रंगहीन मन पर मटमैला रंग बनकर चढ़ती जाती है। उदार माहौल वाले
बच्चे इस अनचाहे रंग से बच जाते हैं। कुछ बच्चे बड़े होकर अच्छा माहौल मिलने पर इस
मानसिकता को त्याग देते हैं, उनका तर्क और विवेक इस अतार्किक
मानसिकता को परास्त कर देता है। लगता है खेलने की इस घटना तक ठाकुर का वीरू इस
मानसिकता की गिरफ्त से बचा हुआ था लेकिन बाद की एक अन्य घटना तक यह मानसिकता उस पर
चढ़कर अपना रंग दिखाने लगी। लेखक को सरोई (सूअर के मांस का व्यंजन) खाते देखकर वीरू
उस पर नाक-भौं सिकोड़ता, उसे जाति का ओछापन याद दिलाता वहाँ
से चला जाता है। यह प्रसंग यह बताता है कि समाजीकरण की प्रक्रिया में बालक सचेत और
अचेत दोनों ही स्तरों पर जातिवादी मानसिकता को सीखता है।
दरअसल जाति अंततः मनुष्यों का काल्पनिक समुदायों में
विभाजन है। कोई मनुष्य जन्म से किसी जाति की विशेषताओं के साथ पैदा नहीं होता। सभी
एक ही ढंग से पैदा होते हैं। बहुत पहले ही कबीर ने इसे स्पष्ट कर दिया था, ‘जो तू बांभन बांभनी जाया/आनि बाट काहे नहीं आया।’ जाति
किन ऐतिहासिक परिस्थितियों में निर्मित हुई, हम इसके विवेचन
में फिलहाल नहीं जाएँगे, लेकिन यह तथ्य है कि वह एक साथ दो
धरातलों पर काम करती है। एक धरातल पर वह एक मानसिकता है, जो
जन्म से कुछ समूहों को ऊँचा-नीचा, पवित्र-अपवित्र के रूप में
देखती है। लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं होती है। जाति केवल मानसिकता की समस्या
नहीं है। यह मानसिकता जब आचरण में प्रकट होती है तो कुछ को श्रेष्ठ और कुछ को
घृणित मानती है तथा इस तरह सांस्कृतिक शोषण का माध्यम बनती है। दूसरी ओर यह एक तरह
का स्थिर श्रम विभाजन भी है जिससे कुछ जन्माधारित विशेषाधिकार, कुछ जन्माधारित पेशे आदि जन्म लेते हैं और इस प्रकार यह आर्थिक शोषण का भी
माध्यम बनती है।
इस प्रकार जाति एक जटिल और समग्र व्यवस्था है, जो सांस्कृतिक और आर्थिक शोषण का मूर्त रूप है। जाहिर है यह व्यवस्था किसी
एक जाति के चाहने मात्र से बनी नहीं रह सकती। वर्चस्व में रहने वाले समुदाय जहाँ
इसे बनाए रखने के लिए प्रत्यक्ष बल प्रयोग का सहारा लेते हैं, वहीं विचारधारा का भी। एक ओर जहाँ सामाजिक शक्ति के आधार पर वे अपने आपको
दैवीय व्यवस्था की इच्छा के आधार पर सर्वश्रेष्ठ होने का दावा पेश करते हैं,
वहीं अपने से कमजोर समूहों को भी यह मौका देते हैं कि वे अपने से
कमजोर समूहों को अपने से नीच मान सकें, उनका शोषण कर सकें।
लेखक
शहर जाने पर गाँव के ‘कायदे-कानून’ कुछ समय के लिए विस्मृत कर देता है और मस्ती में झूमता हुआ गैंदा लाला की
दुकान पर तेल लेने जाते समय सीधा चौंतरिया पर चढ़ जाता है। बदले में लाला से गाली
और संटी खाता है।
ऐसे प्रसंगों में लेखक भेदभाव, छुआछूत बरतने वाले इन सवर्णों की पोल खोलता चलता है। जो गैंदा लाला लेखक
से भंगी होने के कारण छूत बरतता है, उसी लाला का भाई रामसरन,
जो गूँगा और बहरा था, सारे दिन भंगी मुहल्ले
में पड़ा रोटियाँ तोड़ता रहता था। ‘‘छोटा भाई होने के कारण
कहीं रामसरन जमीन जायदाद से हिस्सा न माँग ले। इसलिए गैंदा ने उसका विवाह नहीं
किया, उल्टा रामसरन को गैंदा और उसके परिवार वालों ने पागल
घोषित कर दिया था। एक बार वह गूँगा-बहरा इतना बीमार पड़ा कि हमारे मौहल्ले में उसने
दम तोड़ दिया। गैंदा बनिये ने रूपया खर्च होने के डर से उसका इलाज तक नहीं कराया।’’10 इससे पता चलता है कि जाति कोई ऐसा अटल नियम
नहीं है, जिसका पालन हर स्थिति में किया जाता हो। असल में तो
जाति व्यवस्था की सफलता का सबसे बड़ा कारण ही यही है कि इसमें अद्भुत लचीलापन और
व्यावहारिकता है। ताकतवर जातियाँ समयानुकूल नियमों और ‘आपदधर्मों’
की व्याख्या और व्यवस्था करती रहती हैं। जहाँ सामाजिक श्रेष्ठता का
सवाल हो, वहाँ छुआछूत याद आएगी और जहाँ भाई की जिम्मेदारी का
सवाल हो, वहाँ उसे उन्हीं ‘अछूत’
भंगियों के बीच में मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा। इससे यह भी पता
चलता है कि सामाजिक व पारिवारिक संबंधों में ‘अर्थ’ बड़े ही महत्व की वस्तु है। निष्चय ही ‘अर्थ’ पारिवारिक संबंधों को भी प्रभावित करता है। रामसरन गूँगा और बहरा होने के
कारण कमाने में समर्थ नहीं था और वह जायदाद में हिस्सा भी माँग सकता था इसलिए
गैंदा लाला ने सगा भाई होने के बावजूद उसकी परवाह नहीं की।
अर्थ अर्जित करने की क्षमता का सामाजिक प्रतिष्ठा पर कितना
गहरा असर पड़ता है, यह स्वयं आत्मकथाकार भली-भाँति
जानता है। उसने शादी के बाद बेरोजगारी में जिल्लत भरा जीवन जिया, लोगों के ताने सुने व उसकी पढ़ाई के स्तर पर संदेह किया गया। कुछ समय बाद
जब लेखक को नौकरी मिल गई तो अपने ससुर को -जो उसे निकम्मा मानते थे- वह सबसे अच्छा
और समझदार दामाद नजर आ रहा था। ‘‘नौकरी लगते ही सब मेरा आदर
और सम्मान करने लग गए थे।’’11 यानी आर्थिक स्थिति किसी भी व्यक्ति के सम्मान और योग्यता के निर्धारण
में अहम भूमिका निभाती है। इस बात को हमें दलितों के संदर्भ में भी लगातार ध्यान
में रखना होगा। सिर्फ जाति और वर्ण पर ध्यान देकर दलितों की समस्याओं को पूरी तरह
नहीं समझा जा सकता।
अपने गाँव के सवर्णां की पोल खोलते वक्त सूरजपाल चौहान
भगवन्ती ठकुराइन को नहीं भूलते। लेखक के अनुसार वह ठकुराइन अन्य दलितों से छूत
बरतती है,
लेकिन लेखक के चाचा गुलफान के साथ अरहर के खेत में उलझी पड़ी रहती
है। एक दिन जब लेखक उन दोनों को आपत्तिजनक अवस्था में देख लेता है तो वह अपनी पोल
खुलने के भय से लेखक से छूत करना बंद कर देती है। लेखक ने इस प्रसंग को स्त्री-पुरुष
संबंधों की जटिलता की दृष्टि से देखने के बजाय सिर्फ दलित नजरिए से देखा है इसीलिए
लेखक के अनुसार भगवंती ठकुराइन उसके ‘युवा चाचा गुलफान का
भरपूर फायदा उठा रही थी’। परस्पर सहमति से बनने वाले संबंधों
को जातिवादी नजरिए से समझना मुष्किल है। इस तरह के संबंध बनाते समय इस बात की परवाह
नहीं की जाती कि संबंधित पुरूष/महिला किस जाति अथवा धर्म का/की है। यह बात सवर्ण
और दलित पुरुषों/महिलाओं पर समान रूप से लागू होती है। ‘‘यह
पूरे अस्मितावादी विमर्श की ही समस्या है कि उसे अपनी अस्मिता का ही ध्यान रहता है
तथा वही हमेशा उत्पीड़ित नजर आती है।’’12 इस प्रसंग पर किसी लेखिका का नजरिया सूरजपाल चौहान के नजरिए से निष्चय ही
भिन्न होगा।
कहा जा चुका है कि दलित समाज और साहित्य के संदर्भ में ‘तिरस्कृत’ आत्मालोचना भी है। आत्मालोचन की इस
प्रवृत्ति को लेखक शुरू से आखिर तक लेकर चलता है। आत्मकथा के शुरू में ही लेखक ने
इस बात को रेखांकित किया है कि अशिक्षा के कारण दलित समाज आज भी किस तरह अंधविश्वासों
में बुरी तरह जकड़ा हुआ है। ताऊ सरूपा की बेटी की शादी के दिन सूअर की हत्या और
उसके खून से रूमाली के माथे पर तिलक लगाये जाने के अलावा लेखक ने एक अन्य उदाहरण
अपनी माँ की बीमारी का दिया है। लेखक की माँ के बीमार होने पर उसके पिता डाक्टरी
इलाज के बजाय उसके ऊपर भक्तावल शुरू करवा देते हैं। विभिन्न जानवरों व दारू की
भेंटों से युक्त ‘ढोंग प्रक्रिया’ शुरू
हो जाती है बीमारी दूर करने के लिए। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि ‘भंगी भक्त सूअर के मांस के साथ लेखक की माँ के शेष बचे जीवन को लील नहीं
जाते’। आज भी दलित समाज में ऐसे मौकों पर झाड़-फूँक को ही
वरीयता दी जाती है। इसके मुख्य रूप से दो कारण नजर आते हैं- पहला, दलितों का अभी भी शिक्षा से वंचित होना जिससे वे वैज्ञानिकता के बजाय
चमत्कारों में अधिक विष्वास करते हैं। दूसरा, डाक्टरी इलाज
आज भी पर्याप्त महंगा है और हर जगह सुलभ भी नहीं है। लेकिन यह मानना एक बड़ी भूल
होगी कि यह समस्या केवल दलितों में है, जो आर्थिक समृद्धि
तथा शिक्षा के विकास के साथ-साथ समाप्त हो जाएगी। अव्वल तो यह समस्या लगभग पूरे
देश में है, कम या ज्यादा। हमें ऐसे ढेर सारे उदाहरण मिल
जाएँगे जब आर्थिक रूप से समृद्ध लोग अथवा ऊँची जातियाँ इस तरह के इलाज को
प्राथमिकता देती हैं। न सिर्फ यह आर्थिक समृद्धि से एक तरह की सापेक्ष स्वतंत्रता
रखता है बल्कि स्वयं शिक्षा से भी। बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग तो एक साथ दोनों ही
इलाज चलाते रहते हैं। कुछ तो इन पर विष्वास करने के कारण, और
कुछ सामाजिक दबाव के कारण। बहरहाल यह समस्या हमारे सामाजिक तंत्र और हमारी पूरी
शिक्षा व्यवस्था की असफलता को उजागर करती है। दरअसल पुस्तकीय शिक्षा के समानान्तर अमूर्त
रूप में एक सामाजिक शिक्षण पद्धति भी चल रही होती है। जहाँ इन दोनों तरह की
शिक्षाओं में स्वस्थ संवाद का अभाव होता है वहाँ समुदाय के मनुष्यों में एक तरह का
दुहरा चरित्र विकसित होता है। किताबों की बात करते समय वे तर्क का इस्तेमाल करते
हैं और अपने निजी जीवन में आस्था का। कहना न होगा कि व्यक्ति के जीवन को यह आस्था
कहीं ज्यादा प्रभावित करती है।
‘तिरस्कृत’ का खचेरा-प्रसंग जहाँ एक ओर दलितों द्वारा
थोड़े से लाभ के लिए व्यवस्था के आत्मसातीकरण को उजागर कर उसकी आलोचना करता है,
वहीं दूसरी ओर सवर्णों द्वारा दलितों को आपस में लड़ाकर उन्हें कमजोर
बनाए रखने तथा इस कार्य में पुलिस-प्रशासन द्वारा उनकी मदद की पोल खोलता है।
दलितों में आ रही प्रतिरोध की चेतना की झलक भी इस प्रसंग में देखी जा सकती है।
लेखक के ताऊ खचेरा की स्थिति गाँव के बाकी दलितों से भिन्न
थी। उसे न तो दूसरे दलितों की तरह ठाकुर की बेगार करनी पड़ती और न ही उसके घर में
खाने के लाले थे। ऐसा नहीं है कि वह प्रतिरोध करके उस शोषणकारी व्यवस्था से मुक्त
हो गया था बल्कि इसके विपरीत वह स्वार्थवश व्यवस्था का आत्मसातीकरण करके उसका पालक-पोषक
बन गया था। वह ठाकुरों के लिए भेदिए का काम करता था, यानी
दलितों के मन में चल रही सारी बातों की सूचना ठाकुर-ब्राह्मणों को जाकर देता था
जिससे व्यवस्था बरकरार रह सके; अगर कोई उसे बदलने की कोशिश
भी करे तो उसे दबाया जा सके। गाँव के जाटव बेगार की कुप्रथा के प्रति अपना
प्रतिरोध व्यक्त कर चुके थे। उन्होंने मरे जानवर उठाना भी बंद कर दिया था। उनका यह
प्रतिरोध महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा, बहुत दंश झेलने पड़े। उनकी बहन-बेटियों का घरों से निकलना दूभर हो गया। जब
जाटवों ने मरे जानवर उठाना बंद कर दिया तो सवर्णों ने इस काम के लिए भंगियों को
राजी कर लिया। कैसे? ‘‘दो रोटी और सेर भर अतिरिक्त अनाज
देकर। गाँव के भंगी फूले नहीं समाये थे उस दिन। जाटव कल्लन चाचा ने गाँव के
भंगियों को बहुत समझाया था कि मरे जानवर उठाने को तैयार न हो। लेकिन गाँव के भंगी
नहीं माने।’’13 असल में
चमारों में शिक्षा आदि के कारण अपनी स्थिति के प्रति जागरूकता पहले आनी शुरू हो गई
थी और अगर भंगी उनके साथ मिल जाते तो वे सवर्णों से एक मुकम्मल लड़ाई लड़ सकते थे
लेकिन ‘‘उनकी लड़ाई को कमजोर करने के लिए बसीठों ने उनके
खिलाफ भंगियों का इस्तेमाल किया और भंगी इसके लिए राजी हो गए क्योंकि चमारों के
साथ भी उनके संबंध बराबरी और मित्रता के नहीं थे।’’14 यहाँ स्पष्ट देखा जा सकता है कि गाँव के जाटव जहाँ प्रतिरोध की राह पर
हैं, वहीं ताऊ खचेरा तथा कुछ अन्य भंगी अपनी जड़ चेतना और
विपन्नता जनित लालच के कारण व्यवस्था के आत्मसातीकरण की राह पर हैं। किसी भी तरह
की गुलामी की लम्बी अवधि गुलामों में उनके मालिकों के श्रेष्ठ होने का विष्वास भर
देती है। ऐसी स्थिति में हीनता बोध से ग्रस्त गुलाम अपने मालिक की निकटता, उसकी कृपा पाने को अपना भाग्य समझता है। जिन व्यक्तियों को मालिकों की
कृपा प्राप्त होती है वे अपने आप को अपने शेष समुदाय से ऊँचा समझने लगते हैं और
मालिकों के आदेश अथवा अपने थोड़े से लाभ के लिए वे पूरे समुदाय को बड़े से बड़ा
नुकसान पहुँचाने से नहीं हिचकते।
कोई भी अन्यायपरक व्यवस्था केवल प्रत्यक्ष हिंसा के बल पर
बहुत लम्बे समय तक कायम नहीं रखी जा सकती बल्कि प्रत्यक्ष हिंसा तो असंतोष और
विद्रोह को सीधे तौर पर आमंत्रित करती है। इसीलिए अन्यायपरक व्यवस्थाएँ एक तरह की
विचारधारात्मक प्रक्रिया का भी सहारा लेती हैं जिसे आत्मसातीकरण कहते हैं। वर्चस्व
की विचारधारा अपने हित का पोषण करने वाले कुछ मूल्यों, व्यवहारों को श्रेष्ठता की पहचान बना देती है, उन्हें
नैतिकता के नियम बना देती है। गुलाम जनसमुदाय लम्बे समय तक इन नियमों से शोषित
होते-होते इन्हें नैतिकता के अटल नियम मानने लग जाता है। ऐसी स्थिति में उनसे
विद्रोह करना तो दूर की बात, वह स्वयं उनका पालन करने में श्रेष्ठता
महसूस करने लगता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास ने भारतीय जाति
व्यवस्था के प्रसंग में इस प्रक्रिया को सांस्कृतिकरण का नाम दिया है।15
व्यवस्था के आत्मसातीकरण का मतलब है- शोषितों द्वारा ही
शोषण की व्यवस्था को अच्छा मानकर उसे पल्लवित, पोषित करना।
ताऊ खचेरा यही करता है। उसकी शिकायत पर जाटव कल्लन चाचा की आवाज दबा दी जाती है।
यह ऐसा मौका था जब मरे जानवर उठाने व बेगार जैसी शोषक कुप्रथाओं का खात्मा किया जा
सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका और इसका हर्जाना बाद में सभी
दलितों को भरना पड़ा। पहले तो सुमरू जाटव को भरी पंचायत में बे-वजह जूते खाने पड़े,
बाद में इस प्रकरण को लेकर वाल्मीकि-जाटव आपस में भिड़ पड़े। दोनों को
भिड़ाने वाले सवर्ण मजा ले-लेकर तमाशा देखते रहे। उन्हीं में से किसी ने पुलिस को
सूचना दे दी। दोनों पक्षों पर पुलिस-केस हो गया और उस केस ने दोनों पक्षों को
बर्बाद कर दिया। उन बर्बाद होने वालों में सवर्णां का ‘चहेता’
खचेरा भी था। जिस ठाकुर लटूरी के लिए वह भेदिए का काम करता था तथा
जिसके कहने पर वह अपने ही निर्दोष भाइयों पर जूता लेकर पिल पड़ता था, उसी ठाकुर ने पुलिस के सामने उसके खिलाफ बयान दिया। लेकिन अब खचेरा के पास
प्रायष्चित्त के लिए वक्त नहीं बचा था। गाँव के कर्ता-धर्ता ठाकुरों से मिले हुए
पुलिस-प्रशासन ने उसे तथा अन्य को आजीवन सुनवाई के लिए केस में उलझा दिया था।
भारतीय न्याय-व्यवस्था की सच्चाई यही है कि इसमें वादी-प्रतिवादी फैसले का इंतजार
करते-करते मर जाते हैं, लेकिन फैसला नहीं होता। सुनवाई पर
सुनवाई, तारीख पर तारीख, उन्हें और
उनके परिवार को बर्बाद कर देती है। ताऊ खचेरा इसका एक अच्छा उदाहरण है। ऐसी न्याय
व्यवस्था से न्याय की उम्मीद करना बेकार है। इस प्रसंग में लेखक पंचायत और उसके ‘न्याय’ की अप्रासंगिकता की ओर भी इशारा करता है। वह
पंचायत बेगार की समर्थक है। बेगार न करने पर उसमें दलितों के लिए दण्ड का विधान
है। बिना गुनाह के दलितों को भरी पंचायत में जूता लगवाना, उनकी
मूँछ का बाल उखाड़ना, काला मुँह करना, मुँह
पर थूकना आदि इसके दण्ड प्रावधान हैं। ये सभी अप्रत्यक्ष रूप से दलितों के
स्वाभिमान और आत्मसम्मान को तोड़ने की कोशिश हैं। इस प्रक्रिया में विडम्बना यह थी
कि जूता खाने वाला भी एक दलित होता और जूता लगाने वाला भी एक दलित होता। ऐसा न
सिर्फ दलितों का आत्मसम्मान खत्म करने की नीयत से किया जाता है, बल्कि उनमें एक-दूसरे के प्रति संदेह और फूट पैदा करने का यह बहुत बढ़िया
तरीका होता है।
इस संदर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि इस घटना से गाँव के
दलित सीख लेते हैं। इस घटना के 20-25 बरस बाद जब लेखक अपने पिता कि इच्छा पूरी
करने के लिए गाँव में एक पक्का मकान बनाना शुरू करता है तो गाँव के सवर्ण जाटवों
को उनके (भंगियां के) खिलाफ भड़काते हैं। लेखक के पिता रोहनलाल द्वारा गाँव में
कच्ची फूस की बनी कुठरिया की जगह पक्का मकान बनाना और अपने बेटे को पढ़ा-लिखा लेना
प्रतीकात्मक रूप से अपनी स्थिति में परिवर्तन की आकांक्षा को व्यक्त करता है।
इसीलिए यथास्थितिवादी सवर्ण तबका इस बात से परेशान होकर जाटवों को रोहनलाल के
प्रति उकसाता है। लेकिन वे उसके बहकावे में नहीं आते और उन्हें दिखा देते हैं कि
वे उनके कहे अनुसार कुछ भी करने को तैयार नहीं है। ठाकुर लटूरी को संबोधित करते
हुए जाटव कल्लन चाचा कड़े शब्दों में उनकी (सवर्णों की) निंदा करता है और धमकी भरे
स्वर में उन्हें वापस जाने को कहता है। कल्लन चाचा का रुख सचमुच अविष्वसनीय व
रोमांचित कर देने वाला तथा दलित चेतना में आए बदलाव को रेखांकित करने वाला है।
गाँव के इस घुटनभरे माहौल को छोड़ लेखक अपने पिता के साथ
शहर (दिल्ली) आ जाता है। शहर में रहकर व पढ़कर उसे अपने व्यक्तित्व निर्माण का एक
अच्छा अवसर मिलता है। यह सच है कि शहर में गरीबों का जीवन पूँजीवादी शोषण का शिकार
होता है,
लेकिन वहाँ उन्हें सामंती शोषण से मुक्ति मिल जाती है। पूँजीवादी
व्यवस्था का परम लक्ष्य मुनाफा हासिल करना होता है, इसीलिए
उसे मजदूर की जाति से नहीं, उसके श्रम से मतलब होता है। उसे
श्रेष्ठ जाति की नहीं, श्रेष्ठ कामगार की जरूरत होती है।
पूँजीवाद मूलतः श्रम के शोषण पर टिका होता है, जबकि सामंती
शोषण में मानसिक गुलामी भी शामिल होती है। लेखक कहता भी है कि ‘षहर आना मेरे भविष्य के लिए अच्छा ही रहा’। इसीलिए ‘तिरस्कृत’ के कुछ समीक्षकों ने इसे लेखक के जीवन में
आया ‘टर्निंग प्वाइंट’ कहा है। वैसे
जिन बातों ने लेखक के जीवन की दशा और दिशा बदली, उनमें
प्रमुख है-
-पिता का बाबूलाल मसीह की बातों का असर और लेखक का गाँव की
पाठशाला में जाना शुरू होना।
-पिता के साथ शहर आना। गाँव की पाठशाला में प्रवेश अवष्य
ले लिया था लेकिन वहाँ दलित बच्चों की पढ़ाई के अनुकूल माहौल नहीं था, इसलिए वहाँ चाहकर भी पढ़ पाना संभव न था।
-जीवन बीमा निगम के खजांची पी. कुमार की लेखक को पढ़ाने के
लिए लेखक के पिता को सलाह- ‘‘पाँच रुपये कमाने के
चक्कर में बच्चे का जीवन बर्बाद मत करो, इसे खूब पढ़ाओ-लिखाओ...।’’16
-बाबूराम गुप्ता, राजेन्द्र
सिंह जैसे अच्छे सवर्ण अध्यापक तथा श्रीप्रकाश व उनकी पत्नी जैसे अच्छे लोग,
जो अपने अच्छे व्यवहार व प्रोत्साहन द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप
से मदद करते हैं।
-पढ़ाई के बाद अच्छी नौकरी मिलना, जिससे आर्थिक स्थिति सुधरी और मान-सम्मान होने लगा।
नौकरी लग जाने के बाद लेखक ने आत्मकथा में दो चीजों पर
ध्यान केन्द्रित किया है- कार्यालय तथा अन्य स्थानों पर जातिगत भेदभाव व अपमान
द्वारा सवर्णों व ‘ऊँची जाति के दलितों’ द्वारा मिले दंश; दूसरे, अपने
परिवार व नाते-रिष्तेदारों की हरकतों से मिला दुख और अपमान। यहीं से लेखक के मन
में दलित समाज के संदर्भ में आत्मालोचना की प्रक्रिया भी शुरू होती है।
कार्यालय में लेखक की कार्यदक्षता व कुशल व्यवहार से सभी
सहकर्मी प्रभावित रहते हैं और वे भी लेखक के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। लेकिन यह
कब तक?
जब तक कि लेखक की जाति पता नहीं चल जाती। लेखक की जाति तथा यह पता
चलने पर कि वह उसी रोहन लाल का बेटा है जो पहले इस ऑफिस में सफाईकर्मी था, अधिकारियों का व्यवहार ही बदल जाता है। उनके व्यवहार में जातिवाद की बू
आने लगती है। उनकी द्वेष-भावना यहाँ तक बढ़ती है कि वे लेखक का ट्रांसफर ही कर देते
हैं। नौकरशाही में भी एक तरह का स्तरीकरण होता है, लेकिन यह
किसी मनुष्य को जन्मना श्रेष्ठ या घृणित बनाने की क्षमता नहीं रखता। जाति का पता
लग जाने के बाद जहाँ व्यक्ति की योग्यता के बावजूद उससे निचले स्तर के अधिकारी
अपने आपको उससे ऊँचा समझने के ‘अधिकारी’ हो जाते हैं, वहीं वरिष्ठ अधिकारियों का
श्रेष्ठताबोध और बढ़ जाता है। वे व्यक्ति को अपना मातहत नहीं बल्कि जन्मजात गुलाम
मानने लग जाते हैं। लेखक को इन सबसे तो आघात पहुँचता ही है लेकिन उसे सबसे ज्यादा
आघात पहुँचता है ऑफिस के साथी सरदार एन. एस. उप्पल की कृतघ्नता और दलितों के प्रति
उसके घृणित नजरिए से। वह लेखक के सामने ही दलितों के बारे में कहता है, ‘‘ऐ साले चूहड़े-चमार किन्ने गन्दे होंदे हन, मैंने तो
ओसे दिन जाना यार... बिना नाहे-धोए साले आ जांदे हन वोट पाण नू.... चूहड़े तो चूहड़े
ही होंदे हन।’’17 यह उसी
सरदार एन. एस. उप्पल का कथन है जिसे 84 के दंगों में एक चूहड़े यानी लेखक तथा उसके
साथियों ने दंगाइयों से बचाया था। वही उप्पल अपनी कृतघ्ना का परिचय देते हुए सीधे
कहता है, ‘‘ओ तू कौन होन्दा है बचान वाला, बचान वाला तो रब होन्दा है।’’18
यह उदाहरण यह भी संकेत करता है कि जाति भले ही हिन्दू धर्म
की अपनी उपज रही हो लेकिन उसने दूसरे अन्य धर्मों -जो कि समतावादी होने का दावा
करते हैं- में भी अपना विस्तार कर लिया है। यह एक अलग अध्ययन का विषय है कि इन
धर्मों में जाति जैसी कोई चीज मौजूद है या नहीं लेकिन इतना तो तय है कि वे भी
सामने वाले की जाति के अनुसार उसके साथ व्यवहार करते हैं।
अपने सहकर्मियों की संकीर्ण मानसिकता का परिचय लेखक को
अपने गुजरात प्रवास के दौरान भी मिलता है। ऑफिस का काम होने की वजह से सारे
अधिकारी एक ही जगह ठहरते हैं। साथ रहने पर ही व्यक्ति की मानसिकता धीरे-धीरे खुलती
है। जी. डी. शर्मा द्वारा सब्जी अलग ढक्कन में लेकर खाने का कारण शीघ्र पता चल
जाता है। शाखा प्रबंधक (गांधीधाम) आर. पी. गोयल व उनकी पत्नी की कहानी बड़ी रोचक
है। उन दोनों की बातों से लगता है कि वे जाति-पाँति, छुआछूत
आदि में विष्वास नहीं करते, इन सबसे ऊपर उठ चुके हैं। लेकिन
वस्तुस्थिति कुछ और ही होती है। गोयल दंपति रामनवमी का व्रत करती है। व्रत खोलने
से पूर्व उन्हें पाँच कन्याओं को जिमाना होता है। उनका ड्राईवर झाला चार कन्याएँ
ही ला पाता है और वे जब पाँचवी कन्या के लिए चिंतित हो रहे होते हैं तो उन्हें
अपने घर के बाहर एक आठ-नौ वर्ष की लड़की दिखाई पड़ती है। जिसे देखकर दोनों पति-पत्नी
बड़े प्रसन्न होते हुए कहते हैं, ‘‘भगवान ने हमारी सुन ली,...
देवी मैया स्वयं कन्या रूप धर कर हमारे आंगन में खड़ी है... सच्चे मन
से की गई प्रार्थना को भगवान अवष्य सुनते हैं।’’19 मिसेज गोयल उस लड़की के सिर पर हाथ फेरने लगती है। लेकिन जैसे ही यह पता
चलता है कि यह ‘पाँचवी कन्या’ मेहतरानी
कैलाश बहन की लड़की है तो उसके होश उड़ जाते हैं। जो थोड़ी देर पहले गोयल दंपति के
लिए देवी मैया थी, उसी को छू जाने मात्र के कारण मिसेज गोयल
दोबारा नहाती है। अंततः गोयल दंपति चार कन्याएँ जिमवाकर ही अपनी पूजा पूर्ण कर
लेती है। पाँचवी कन्या का हिस्सा गाय को खिलाने के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है।
यह प्रसंग जहाँ एक ओर सवर्णों के दोगले जातिवादी संकीर्ण चेहरे के आगे से नकाब
हटाता है वहीं दूसरी ओर सवर्ण मानसिकता के इस पक्ष को उजागर करता है कि उनके लिए
एक (दलित) व्यक्ति से ज्यादा महत्व एक जानवर का होता है। झज्जर कांड इसका ताजा
उदाहरण है, जिसमें एक गाय को मारने के आरोप में कई दलितों की
हत्या कर दी गई। सूरजपाल चौहान ने सही ही सवाल उठाया है कि ‘‘कुत्ते, बिल्लियों और जंगली जानवरों की पूजा करने
वाले हिन्दू दलितों के विषय में संकीर्ण मानसिकता क्यों पाले हैं?’’20
यह जातिवादी मानसिकता सिर्फ उच्च पदों पर आसीन या सम्पन्न
सवर्ण तबके में ही नहीं, गरीब व विपन्न सवर्णों में भी
उसी मात्रा में पाई जाती है। गाँधीधाम की कामवाली पुष्पा का उदाहरण हमारे सामने
है। वह गोस्वामी, सिंधी ब्राह्मण है और इसका उसे अभिमान है
इसलिए वह 150 रुपये के स्थान पर 250 रुपये लेती है। विपन्नता में भी उसका जातिगत
अहम साथ नहीं छोड़ता, ‘‘नौकरानी हूँ तो क्या हुआ? हूँ तो ब्राह्मण।’’21 उसके इस जातिगत अहम को जानते
हुए भी पति की बीमारी में लेखक उसकी आर्थिक मदद करता है। इस प्रसंग में रेखांकित
करने वाली बात यह है कि उस मदद से पुष्पा का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह लेखक
से अपने व्यवहार के लिए माफी माँगने स्टेषन तक पहुँच जाती है और फफक-फफक कर रो
पड़ती है। जाति जानकर भी वह लेखक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसकी प्रशंसा करती
है। यह दृष्य बदलाव की संभावना की ओर हमारा ध्यान खींचता है। इसी तरह एक अन्य
चरित्र है- बी.एस. शर्मा, जो लेखक के साथ किशोर कौशल के गाँव
जाता है और बिना संकोच एक कोरी के घर खाता है- यह जानते हुए भी कि अगर उसके
रिष्तेदारों को इस बारे में पता चल जाएगा तो वे उसे अपमानित कर घर से बाहर निकाल
देंगे। परिवर्तन की इस तरह की संभावनाओं को रेखांकित करना बहुत महत्वपूर्ण है
क्योंकि ‘‘उत्पीड़क व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करते समय अगर
आप मनुष्य में परिवर्तन की संभावना को नकार दें तो स्वयं आपके संघर्ष की सार्थकता
ही संदिग्ध हो उठती है।’’22
साहित्य और मीडिया में सवर्णों का वर्चस्व होने के कारण
किस तरह साहित्यिक सम्मेलनों और मीडिया की बहसों/परिचर्चाओं को ‘हिंदुत्व’ के प्रचार का माध्यम बनाया जाता है इसको
लेखक ने विभिन्न उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया है। 1994 में आगरा में हुए अखिल
भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में बहस के लिए विषय तो बड़े अच्छे चुने जाते हैं
लेकिन वास्तव में उन पर चर्चा होने के बजाय सम्मेलन में सिर्फ हिन्दू धर्म का
गुणगान होता है। दलितों से संबंधित सवाल पूछने पर अध्यक्ष, आयोजक
चिढ़ते हैं। वस्तुतः वह हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बजाय हिन्दू साहित्य सम्मेलन
अधिक था। इसका प्रमाण यह भी है कि उसमें ‘संघ’ के नामी कार्यकर्त्ता भी मौजूद थे। दूसरे, उसमें
वक्ताओं का लक्ष्य भारतीय मुस्लिम समाज था। हर व्यक्ति के सीने पर ‘जय श्री राम’ के बिल्ले लगाए जा रहे थे। यानी
हिन्दुत्ववादी साहित्यकारों ने साहित्यिक सम्मेलन को पूरी तरह धार्मिक सम्मेलन में
तब्दील कर दिया। इस प्रसंग में लेखक ने देश के जाने-माने साहित्यकारों व
मीडियाकर्मियों का असली चेहरा उघाड़कर पाठकों के सामने रख दिया है।
इसी क्रम में लेखक ने आकाशवाणी के लिए एक कार्यक्रम
रिकॉर्डिंग का हवाला देते हुए बताया है कि किस तरह आकाशवाणी और दूरदर्शन पर
परिचर्चाओं की रिकॉर्डिंग के लिए सांख्यिकी के अनुसार वार्ताकारों और श्रोता/दर्शक
प्रतिनिधियों को बुलाया जाता है। कोई भी व्यक्ति एक से अधिक सवाल नहीं पूछ सकता और
अगर कोई व्यक्ति व्यवस्था पर सवाल करता है तो उसे दबाने की कोशिश होती है। अगर किसी
तरह वह अपना सवाल पूछ भी लेता है तो प्रसारण के वक्त उसको काट दिया जाता है। ये
सारी सीमाएँ एक सरकारी संस्थान/प्रतिष्ठान की सीमाएँ होती हैं। शासन-सत्ता से जुड़े
हुए किसी भी प्रतिष्ठान के द्वारा सत्ता और उसकी विचारधारा का अतिक्रमण मुष्किल
है।
इस संदर्भ में आत्मकथाकार सूरजपाल चौहान ने एक रोचक बात
स्वीकार की है कि उनका दलित चेतना से जुड़ाव बाद में हुआ। पहले उनकी रचनाएँ
आर.एस.एस. के मंचों से गूँजती थीं। आगरा का हिन्दी(हिन्दू!) साहित्य सम्मेलन इसका
प्रमाण है ही। उन्होंने स्वीकार किया है कि उनके लेखन में ‘टर्निंग प्वाइंट’ प्रसिद्ध दलित साहित्यकार ओमप्रकाश
वाल्मीकि से मिलने के बाद आया। इससे पहले वे ‘शिवस्तुति’
तथा भजन आदि लिखा करते थे। इससे पता चलता है कि किस तरह वर्चस्व की
विचारधारा अपने शोषण के शिकारों से भी समर्थन हासिल करती है। केवल दलित हो जाने भर
से दलित चेतना अपने आप प्राप्त नहीं हो जाती बल्कि उसे सचेत ढंग से अपने संस्कारों
के खिलाफ लड़ते हुए अर्जित करना पड़ता है।
इस प्रसंग पर बजरंग बिहारी तिवारी की यह टिप्पणी बिल्कुल सही है कि ‘‘शिवस्तुति से सामाजिक
परिवर्तन के अम्बेडकर-दर्शन की यात्रा कठिन आत्मसंघर्ष से गुजरी होगी। दलित चिंतन
के लिए आत्मसंघर्ष कर यह प्रक्रिया मूल्यवान है। दुर्भाग्य से, लेखक अपनी आत्मकथा में इस प्रक्रिया पर चलताऊ टिप्पणी करके रह जाता है।
अपने आत्मसंघर्ष का अपेक्षाकृत विस्तृत, अंतरंग और ब्यौरेवार
चित्र नहीं खींचता। वह ऐसा करता तो आत्मकथा की सार्थकता और विष्वसनीयता में इजाफा
ही होता।’’23 लेखक की
संबद्धता आर.एस.एस. जैसे जातिवाद के पोषक संगठन से रही है लेकिन उसने ‘तिरस्कृत’ में आर.एस.एस. की रणनीति, कार्यप्रणाली और उसके कार्यक्रमों के अप्रकट आशयों पर कुछ खास नहीं लिखा।
नौकरी लगने के बाद आत्मकथा में जिस चीज पर लेखक की नजर
सबसे ज्यादा टिकी, वह है- दलितों में पनप रहा
जातिवाद तथा अन्य विसंगतियाँ। इन्हीं ने लेखक को सर्वाधिक मानसिक आघात पहुँचाया।
लेखक बात शुरू विवाह से करता है। विवाह के संबंध में वह स्वीकार करता है कि ‘‘दलित समाज में वैसे तो कई कुरीतियाँ हैं लेकिन जो सबसे भयंकर और गंभीर
बुराई है कि इस समाज में बच्चों का शादी-ब्याह गुड्डा-गुड़िया का खेल समझकर बचपन
में ही कर दिया जाता है जिसके कारण वे जीवन संग्राम में पिछड़ जाते हैं।’’24 विवाह वास्तव में जीवन का सबसे अहम मोड़
होता है। विवाह के वक्त ही आदमी के जीवन की दिशा लगभग तय हो जाती है। लेखक का
विवाह बचपन में होने से तो बच गया लेकिन उसकी बेरोजगारी में उसका विवाह हो गया।
जिसका परिणाम यह हुआ कि उसे न केवल जिल्लत उठानी पड़ी बल्कि कुछ ही दिनों में पिता
से खटपट शुरू हो गई। इस सब से मुक्ति के लिए लेखक ने कई बार आत्महत्या तक की सोच
ली। संयोग से लेखक को शीघ्र नौकरी मिल गई, वरना जो लोग लम्बे
समय तक बेरोजगारी के चलते आर्थिक संकट झेलते हैं
उनमें से बहुत से लोग आत्महत्या की बात सोचते ही नहीं, कर भी लेते हैं। याद आती है 9 मार्च, 2005 को दिल्ली
में घटी एक घटना, जिसमें एक मैकेनिक ने आर्थिक परेशानियों से
तंग आकर पहले अपने दो मासूम बच्चों को मारा और बाद में पत्नी सहित स्वयं ने पंखे
से लटक कर आत्महत्या कर ली। समसामयिक जगत में ऐसी ढेरों घटनाएँ देखने को मिल
जाएँगी।
दलितों का शोषण जारी रहने का एक कारण है- दलितों में
आत्मसम्मान की कमी और फिर धीरे-धीरे शोषण का आत्मसातीकरण। लेखक ने इस सवाल को बड़ी
गहराई के साथ उठाया है। दलितों की समस्या सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों ही है।
प्रायः सभी दलित जातियाँ किसी न किसी वंशानुगत पेशे से जुड़ी रही हैं। इन पेषों के
अनुसार ही उन जातियों का स्तर भी तय होता है। जो जाति जितना ही अधिक मेहनत का अथवा
अधिक असुरक्षित या अस्वास्थकर काम करती रही है उसे उतना ही निम्न और घृणित माना
जाता रहा है। लेकिन जाति-व्यवस्था की सफलता का एक बहुत बड़ा आधार इन वंशानुगत पेषों
की सुरक्षा भी रही है। जाति के किसी सदस्य के लिए उसका पैतृक पेशा और उसका हुनर
विरासत में मिल जाया करता था। यह एक तरह की अलिखित आरक्षण व्यवस्था थी। जाहिर है
कि इस व्यवस्था में सुविधाजनक और सम्मानजनक पेषों का आरक्षण सवर्ण जातियों ने अपने
लिए करा रखा था। जिन दलित जातियों में शिक्षा आदि के कारण चेतना आती गई उन्होंने
धीरे-धीरे अपमानजनक और आर्थिक रूप से अलाभदायक पेषों से विद्रोह किया और दूसरे
क्षेत्रों में चले गए, लेकिन जो जातियाँ जाति
व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर थीं और जिनका आत्मसम्मान पूरी तरह कुचल दिया
गया था, वे दूसरे क्षेत्रों में जाने के लिए संघर्ष करने के
बजाय उन्हीं पारंपरिक क्षेत्रों में लगी रहीं। अन्य जातियों से तुलना करते हुए
सूरजपाल चौहान भंगी जाति के बारे में लिखते हैं, ‘‘दूसरी
जाति के लोग अनपढ़ होते हुए भी सफाई कर्मचारी का काम नहीं करते। वे कोई भी दूसरा
धंधा करके अपना पेट भर लेते हैं, लेकिन भंगी जाति के पढ़े-लिखे
लोग थोड़ी सी परेशानी सामने आते ही झाडू़ लगाना स्वीकार कर लेते हैं। बचपन से ही
उनके मन में यह बात बैठा दी जाती है कि यदि कोई दूसरा काम नहीं मिला तो क्या है,
झाडू़ लगाने का काम तो मिल ही जाएगा। मेरे समाज के लोग इस काम को
अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान बैठे हैं। उनमें आत्म सम्मान की कमी है।’’25 इस तरह देखा जाए तो जन्म आधारित पेषों का
यह ‘आरक्षण’ वास्तव में उनके लिए
अभिशाप की तरह है, क्योंकि ‘‘ऐसी
स्थिति में यह ‘जन्मसिद्ध अधिकार’ जन्मसिद्ध
कर्त्तव्य में बदल जाता है।’’26
लेखक दलितों में आत्मसम्मान की कमी का उदाहरण देते हुए
बताता है कि बी.ए. करने के बाद जब वह स्वयं बेरोजगार था और नौकरी की तलाश में चिंतित
था तो कई नाते-रिश्तेदारों ने उसे सफाई कर्मचारी का काम करने तक की सलाह दे दी।
लेखक ने दलित समाज के ऐसे लोगों के बारे में भी बताया है जो भारत सरकार के
कार्यालयों में अच्छे पदों पर कार्य करते हैं, जिन्हें
ऑफिस की ओर से अच्छे सरकारी मकान/क्वार्टर मिले हुए हैं लेकिन वे उन मकानों को
किराये पर देकर झुग्गी बस्तियों में रह रहे हैं। यह उनमें आत्मसम्मान की कमी का
परिचायक है। स्वयं लेखक के ससुर ऐसे लोगों में से थे। इतना ही नहीं, वे (लेखक के ससुर) अच्छी नौकरी होने के बावजूद अपनी बूढ़ी माँ से झाड़ू
लगाने का काम कराते थे।
ऐसे ही एक सज्जन हैं भोलाराम, जो दिल्ली में पर्सनल मैनेजर के पद पर कार्यरत थे। वे लेखक को अपने घर
बुलाते हैं। लेखक उनके घर जाकर जो देखता है, वह स्वयं लेखक के शब्दों में,
‘‘उस समय वह महोदय दारू पीकर टुल थे। पूरा घर अस्त-व्यस्त पड़ा था।
घर की खिड़की-दरवाजों पर लटके पर्दे मैल से इतने कीचट हो गए थे कि उनका असली रंग तक
नहीं पहचाना जा सकता था। दारू पीकर उसने माँस भी खाया था- चूसी हड्डियों के टुकड़े
मेज पर और कुछ फर्श पर बिखरे पड़े थे। घर के बाहर चारों ओर सूअर ढों-ढों करते घूम
रहे थे।’’27 इस भोलाराम के माध्यम से लेखक उन सभी दलितों की
तरफ इशारा करता है जो अधिकारी तो बन गए हैं लेकिन उन्होंने अपनी आदतें और रहन-सहन
नहीं बदला है। शिक्षा और सुविधा पा लेने के बाद भी उनके अंदर न तो मनुष्य होने की
चेतना आई है और न ही अपनी गरिमा का बोध हुआ है। शायद इसीलिए वे तथा उनके साथ दूसरे
दलित अधिकारी अपने-अपने कार्यालयों में उपेक्षा और भेदभाव का शिकार होते हैं।
भोलाराम जैसा ही एक अन्य चरित्र आत्मकथा में आया है- लेखक
का चचिया ससुर मदनलाल। होने को वह भारतीय जल सेना में मास्टर चीफ पैटी ऑफिसर के पद
पर कार्यरत था लेकिन विचार और व्यवहार दोनों से ही एकदम गिरा हुआ। लेखक के ससुर के
मरने पर उस मदनलाल को कुछ रुपये देकर अंतिम क्रिया के लिए कफन, अर्थी आदि लाने भेजा जाता है। जब वह दो-तीन घंटे तक वापस नहीं आता तो सभी
लोग चिंतित व परेशान हो जाते हैं। कुछ समय बाद वह सीधे श्मशान घाट पहुँचता है शराब
पिए हुए। कफन, अर्थी आदि के लिए दिए गए रुपयों की वह शराब पी
चुका था। एक बेहूदी हरकत करते हुए बोतल में बची हुई शराब वह जलती हुई चिता में डाल
देता है। उसके क्रियाकलापों से याद आती है प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ और उस पर उठा विवाद। लगता है ‘तिरस्कृत’ में आया यह मदनलाल प्रसंग उस ‘कफन विवाद’ पर लेखक की राय है। यानी जब मदनलाल जैसा
पढ़ा-लिखा, सम्पन्न अधिकारी अपने ममेरे भाई के कफ़न, अर्थी आदि के पैसों की शराब पी सकता है तो घोर विपन्नता का जीवन जी रहे
अनपढ़ घीसू और माधव ‘कफ़न’ के पैसों का
क्यों नहीं पकवान युक्त भरपेट भोजन कर सकते? हमारे समकालीन
समाज में लेखक का यह अनुभव बताता है कि ‘कफ़न’ में दलित जीवन की विडम्बनापूर्ण स्थिति का मनगढंत नहीं, वास्तविक चित्रण हुआ है।
शिक्षित होने के बावजूद मदनलाल का दलित चेतना से दूर-दूर
तक कोई रिष्ता नहीं है। वह अपने फुफुरे भाई और लेखक के ससुर शेरसिंह के तेरहवें के
लिए सूअर के मांस और दारू का प्रस्ताव रखता है। सभी लोग तेरहवें में इसी सब के आदी
थे;
इसलिए अधिकांश उसकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। इसका विरोध करते हुए जब
लेखक अम्बेडकर और उनकी शिक्षाओं की बात करता है तो उस पर मदन की टिप्पणी होती है,
‘‘यह जंवाई का बच्चा किसी चमार की औलाद लगता है। अरे महामूर्ख!
हमारे गुरू तो महर्षि वाल्मीकि हैं, हमें अम्बेडकर से क्या
लेना-देना। बंद कर अपनी बकवास, इतनी देर से चमार राग अलापे
जा रहा है।’’28 लेखक मदनलाल
को समझाता रहता है और मदन लेखक को अपमानित करता रहता है, यहाँ
तक कि वह गाली-गलौज और मारपीट पर उतर आता है। हिन्दी क्षेत्र में सभी दलित जातियों
में दलित चेतना का विकास समान रूप से नहीं हुआ, इसके प्रमुख
कारणों में एक कारण यह भी रहा है कि यहाँ अम्बेडकर को पूरे दलित समाज के बजाय एक
जाति विशेष से जोड़कर देखा गया। उस जाति ने अंबेडकर की शिक्षाओं पर अधिक ध्यान दिया
और वह आगे निकल गई। यह सच है कि महाराष्ट्र में भी अम्बेडकर को एक जाति विशेष से
जोड़ने की कोशिश हुई लेकिन वहाँ इस विसंगति को दूर करने के प्रयास भी इसके समानांतर
होते रहे।
बताया जा चुका है कि दलितों में पनप रहा जातिवाद दलित
चेतना के रास्ते में बहुत बड़ी बाधा है और उस पर प्रष्नचिह्न भी लगाता है। चाहे
गाँव हो या शहर, शिक्षित हों या अशिक्षित- हर कहीं दलितों
में फैल रहे इस जातिवाद के जहर के असर को देखा जा सकता है। गाँव में फैले इस जहर
का प्रतिनिधित्व भूदेवा चमार का लड़का करता है जिसे पत्नी सहित धूप में पैदल जाते
देख लेखक अपने किए हुए इक्के में बैठाता है लेकिन लेखक की जाति पता चलते ही वे
दोनों झट से इक्के से उतर जाते हैं।
चूँकि लेखक को गाँव के बजाय शहरी जीवन के अधिक अनुभव हैं, इसलिए उसने इस संदर्भ में शहरी शिक्षित दलितों के अधिक उदाहरण प्रस्तुत
किए हैं। शहरों में रह रहे शिक्षित दलितों को दलित चेतना का केन्द्र माना जाता है
इसलिए उनकी हकीकत से रूबरू कराने की मंशा से भी लेखक ने अपनी नजर उन पर केन्द्रित
की है। ऐसे लोगां में एक है- युवा कवि किशोर ‘कौशल’, जो मूलतः हरियाणा के एक गाँव का रहने वाला है लेकिन दिल्ली में लेखक के ही
ऑफिस में कार्यरत था। वह एक दलित है लेकिन सिद्धान्तों से आर्यसमाजी है। आर्यसमाज
का प्रभाव उसके ऊपर इतना है कि वह न तो दलित आंदोलन में विष्वास करता है न दलित
साहित्य में। वह लेखक से भी दलितों की समस्याओं पर लिखने को मना करता है क्योंकि
उसके अनुसार यह साहित्य की ‘मुख्यधारा’ से अलग संकुचित विचारधारा है। इतना ही नहीं, वह अपने
गाँव को छुआछूत और भेदभाव से मुक्त आदर्श गाँव बताता है। लेकिन उसकी और उसके ‘आदर्श गाँव’ की पोल धीरे-धीरे खुल जाती है। वह
वस्तुतः जातिवादी दलित था। बहस के दौरान लेखक से कहा हुआ उसका यह वाक्य उसकी
विचारधारा को सामने रख देता है, ‘‘आपके बाल कविता पाठ की
रिकॉर्डिंग मेरे छोटे भाई और मेरी पत्नी ने मिलकर की है, यह
जानते हुए भी कि आप वाल्मीकि जाति के हैं।’’29 संयोग से एक कार्यक्रम में लेखक को किशोर ‘कौशल’
के ‘आदर्श गाँव’ जाने का
मौका मिल जाता है। उस गाँव में घुसते ही गली के एक कोने में गंदी नाली के पास जूठन
उठाने के लिए भंगिन बैठी हुई थी। शादी-समारोह में खाने का वही पुराना ट्रेंड- ‘पत्तल पर खाओ और उठाकर भंगिन के समीप फेंक दो’। सबसे
बड़ी बात तो यह कि यह नजारा किसी ब्राह्मण या अन्य सवर्ण के घर का नहीं, कोरी जाति के एक दलित किशोर ‘कौशल’ के घर का था। यानी ‘‘एक दलित द्वारा बजबजाती जूठन
फेंकने पर दूसरा दलित उसे सँकेलने के लिए तैयार!’’30 इस प्रसंग के माध्यम से लेखक ने न केवल दलित समाज की विसंगतियों को उजागर
किया है बल्कि आर्य समाज व उसके खोखले सिद्धांतों की हकीकत को तार-तार करके रख
दिया है। आर्य समाज की शिक्षाओं के अनुसार ‘हमारी श्रेष्ठ
संस्कृति में बहुत कुछ श्रेष्ठ है’, लेखक ने उस ‘श्रेष्ठ’ को उघाड़कर पाठकों के सामने रख दिया है।
शिक्षित दलितों की जिन संस्थाओं/संगठनों को लोग दलित चेतना
के वाहक के रूप में जानते हैं, उन संस्थाओं/संगठनों में
भी यह दलितों के अंदर का जातिवाद मौजूद है, इसका प्रमाण है ‘स्कैन’। ‘स्कैन’, यानी शैड्यूल्ड कास्ट एसोसिएशन, नोएडा। यह संस्था
नोएडा में रहने वाले दलित डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर, अध्यापक आदि
सरकारी/अर्द्धसरकारी कर्मचारियों ने बना रखी थी। दुर्भाग्यपूर्ण बात इस संस्था के
सदस्यता फॉर्म में ‘उपजाति’ का कॉलम
होना थी। इस कॉलम का होना संस्था की मानसिकता को प्रकट कर देता है। उस फॉर्म के
माध्यम से जब संस्था के सदस्यों को लेखक की जाति पता चलती है तो सभी आष्चर्य
व्यक्त करते हैं कि एक वाल्मीकि सरकारी अधिकारी कैसे हो गया? लेखक के सामने अपनी व संस्था की सफाई देने के लिए एक सदस्य कहता है,
‘‘अरे हम किसी भी तरह की छुआछूत नहीं मानते..., हम अपने घर के आंगन में भंगिन तक को बैठाकर चाय व नाष्ता करवा देते हैं...
तुम वाल्मीकि हो तो क्या हुआ?’’31 जितनी सहजता से वे किसी भंगिन को आँगन में बिठाकर चाय पिलाने को अपनी
दरियादिली का सबूत मानते हैं, वह यह स्पष्ट करने के लिए काफी
है कि उनके लिए किसी भंगी के साथ ऐसा व्यवहार करना कोई महान काम है। ‘स्कैन’ के इन महान सदस्यों की उपरोक्त सफाई से उनकी
मानसिकता का पता चल जाता है।
यह मानसिकता सरकारी कार्यालयों में भर्ती के समय भी काम
करती है। दक्षिण का अधिकारी डी. वेणु ड्राइवर पद के लिए एक ज्यादा योग्यताधारी
भंगी की जगह कम योग्यताधारी जाटव का चयन केवल इसलिए करता है क्योंकि वह उसकी जाति
का है। यह मानसिकता इन संस्थाओं, कार्यालयों तक सीमित
नहीं है, उन अधिकारी लोगां के घरों में भी है और परिवार के
लोगों के मानस पर छाई हुई है जिसका प्रमाण लेखक के एक जाटव मित्र की पत्नी का यह
बयान है, ‘‘... हम शैड्यूल्ड कास्ट तो हैं, पर ऊँची जाति वाले शैड्यूल्ड कास्ट हैं।’’32 यह मामला ऊँची और नीची जाति के शैड्यूल्ड कास्ट तक सीमित नहीं रहता,
उससे भी आगे उपजाति की उपजाति ‘सूअर खटीक’
और ‘बकर खटीक’ तक जाता
है। इतना ही नहीं दलितों में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पड़ोस में अपनी जाति छिपाकर
रहते हैं। लेकिन जब इनका भेद खुलता है तो उन्हें आत्मग्लानि के अलावा कुछ नहीं
मिलता। ‘‘कैसी विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि सवर्णों के हाथों
जिस कौम को सदियों अपमान का जहर पीना पड़ा, तिरस्कार के जूते
खाने पड़े, आज उसी दलित समाज में जातिवादी मानसिकता के कीड़े
कुलबुला रहे हैं और वही लोग ऊँच और नीच, भंगी और चमार,
सूअर खटीक और बकर खटीक बनकर एक दूसरे का अपमान करके मानसिक परितोष
का अनुभव कर रहे हैं... क्या यही डॉ. अम्बेडकर का संदेश था? शिक्षित
बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो- आज
दलितों में फूट क्यों पड़ रही है? संगठन के स्थान पर वे बिखर
क्यों रहे हैं? एक दलित दूसरे दलित से अपनी जूठन क्यों उठवा
रहा है? ... आपसी भेदभाव की नीति क्या उन्हें किसी ऊँचे शिखर
पर पहुँचा सकेगी? बाबा साहिब के सारे प्रयत्नों पर पानी फिर
जाएगा।’’33
जिस बेबाकी के साथ सूरजपाल चौहान ने अपनी आत्मकथा में दलित
समाज की विसंगतियों को रखा है, वह अन्यत्र मिलना
मुष्किल है। उन्हें यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि ‘‘देश के तथाकथित सवर्ण तो हमेशा से हमसे घृणा करते आ रहे हैं, पर हम दलित भी आपस में घृणा फैलाने में कम नहीं रहे हैं... हम पढ़े-लिखे
दलितों ने अपने समाज की गाँठें सुलझाने में कोई रुचि नहीं दिखाई है सभी अपने-अपने
स्वार्थों को पूरा करने में मग्न दिखाई दे रहे हैं... जातपांत के विरोध में बोलते
अवष्य हैं लेकिन भीतर से उसी व्यवस्था को अपनाए हुए हैं।’’34 इसके अलावा भी इस मामले में उन्होंने
आत्मकथा में बहुत लिखा है। लगता है ‘तिरस्कृत’ में उठाई गई केन्द्रीय समस्या दलित समाज की विसंगतियाँ व दलितों में
जातपाँत व श्रेष्ठता-भाव के अहम के रूप में पनप रहा जातिवाद है। आत्मकथाओं को छोड़
दिया जाए तो सबसे पहले इस समस्या को ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘शवयात्रा’ में उठाया गया है। ‘शवयात्रा’
पर दलित साहित्यकारों-चिंतकों में बहुत विवाद हुआ। किसी ने उसे ‘चमार विरोधी’ कहानी कहा तो किसी ने दलितों को बाँटने
वाली कहानी। उस विवाद को संक्षेप में ‘तिरस्कृत’ में उद्धृत किया गया है। बहुत लोगों ने उस कहानी पर नाक-भौं सिकोड़ी लेकिन
निष्चय ही वह कहानी दलित समाज की हकीकत है। बहुत संभव है कि उस कहानी ने सूरजपाल
चौहान का ध्यान इस ओर खींचा हो। उन्होंने उस विवाद के संदर्भ में लिखा है कि इस
कहानी को ‘‘चमार विरोधी कहानी करार देने के पीछे यही जातपांत
और श्रेष्ठता-भाव का अहम है, जिससे दलित भी अछूते नहीं हैं
और दलित चेतना सिर्फ एक नारा भर रह जाती है।’’35 चौहान द्वारा इतनी बेबाकी से दलित समाज की विसंगतियों को सामने लाने के
पीछे यही मंशा रही होगी कि ये विसंगतियाँ दलित समाज की ही नहीं, दलित आंदोलन की विसंगतियाँ भी हैं, और अगर इनको
सामने लाकर इन पर गंभीर विचार नहीं किया गया तो फिर सचमुच दलित चेतना के खोखले
नारे का कोई महत्व नहीं है।
‘तिरस्कृत’ में जो चीज सबसे ज्यादा खटकती है, वह है 10-12 पृष्ठ का जयप्रकाश प्रसंग। इस प्रसंग में लेखक ने अपनी
तटस्थता खो दी है और नतीजतन ऐसा लगता है जैसे कि उसका लक्ष्य दत्तक पुत्र जयप्रकाश,
पत्नी विमला, साढू किशनपाल आदि को दोषी साबित
करना है। लेखक द्वारा आधे-अधूरे तथ्य दिए जाने के कारण वे तो दोषी साबित नहीं होते,
उलटे स्वयं लेखक की स्थिति संदिग्ध हो जाती है।
लेखक की पत्नी विमला का व्यक्तित्व इस प्रसंग के अलावा
आत्मकथा में दो जगह सामने आया है- पहला, ‘टिल्लू का
पोता’ प्रसंग में और दूसरे, आशारानी
व्होरा द्वारा पत्रिका लौटाने के प्रसंग में। दोनों ही जगह विमला का व्यक्तित्व
स्वाभिमान और दलित चेतना से ओतप्रोत है। गाँव के बूढे़ जमींदार द्वारा अपमान के
समय एक पढ़ा-लिखा आदमी, दलित आंदोलन का सिपाही (?) उसे आँखों से समझाता है कि ‘चुप रहने में ही भलाई है’। इसके बावजूद वह प्रतिरोध करती है और जता देती है कि व्यक्ति का सम्मान
दलित आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य है और वह शोषण और अपमान के आत्मसातीकरण से नहीं,
उसके प्रतिरोध से हासिल होगा। वह इस उदाहरण द्वारा बताती है कि इसी
तरह सभी दलितों को अपनी गरिमा की रक्षा करनी होगी और अपने अंदर स्वाभिमान पैदा
करना होगा।
दूसरे प्रसंग में जब लेखिका आशारानी व्होरा अपने घर आए
दलित पत्रिका ‘शम्बूक’ के अंकों को
अपने नौकर के हाथ लेखक के घर भेज देती है तो लेखक सबकुछ समझते हुए भी मौन धारण कर
लेता है लेकिन लेखक की पत्नी विमला पत्रिका भिजवाने के पीछे की आशारानी व्होरा की
मानसिकता को ताड़ते हुए नाराजगी के साथ लेखक से कहती है, ‘‘देखा
इस महिला की मानसिकता को... पुस्तकों से स्नेह रखने वाली महिला ने ‘शम्बूक’ पत्रिका के ये दोनों अंक इसलिए हमारे घर
भिजवा दिए कि यह दलित पत्रिका है..., आप इन दोनों पत्रिकाओं
को दोबारा उसके यहाँ पहुँचा कर आओ।’’36
कहने की आवष्यकता नहीं कि उपर्युक्त दोनों प्रकरणों में
लेखक के बजाय उसकी पत्नी विमला का चरित्र ज्यादा विद्रोही है। इस बात को ध्यान में
रखते हुए ही हम जयप्रकाश प्रसंग की सही समीक्षा कर सकते हैं।
गौर करने योग्य बात है कि आत्मकथा में आए बाकी चरित्रों से
भिन्न सूरजपाल चौहान ने जयप्रकाश, विमला और किशनपाल के
चरित्र-चित्रण में उल्टी नीति अपनाई है। उन्होंने पहले यह तय कर लिया है कि ये सभी
लोग गलत हैं, इसके बाद इनके बारे में लिखा है। हाँ, इस प्रसंग में स्वयं को पाक-साफ रखते हुए कहीं भी अपनी कोई भूल नहीं
स्वीकारी है। इस प्रकरण में सारी समस्याओं की जड़ जयप्रकाश का पूनम के साथ अनमेल विवाह
है जो अंततः असफल होता है और उस विवाह को कराने वाले थे- सूरजपाल चौहान। वे लिखते
हैं, ‘‘बडे़े भाई सुनहरी के पास रहकर उसका (जयप्रकाश का)
विवाह इतने अच्छे और पढ़े-लिखे परिवार में हरगिज न होता। चंद्रा साहब ने मेरे ऊपर
विष्वास करके ही अपनी बेटी पूनम का हाथ जय के हाथ में दिया था।’’37 ये दोनों बातें रेखांकन योग्य हैं। पहली
बात लेखक की आत्मतुष्टि मात्र है। शादी के वक्त जयप्रकाश एम.बी.ए. कर चुका था और
एक एम.बी.ए. लड़के की शादी आसानी से अच्छे घर में हो सकती है। दूसरी बात जो कि उस
विवाह की असफलता का कारण बनी, विवाह जय और पूनम की आपसी
समझदारी से नहीं, चंद्रा साहब के लेखक पर विष्वास से सम्पन्न
हुआ था। यद्यपि लेखक सूरजपाल चौहान पढे-लिखे, सभ्य और आधुनिक
समाज के सदस्य हैं लेकिन समझ में नहीं आता कि उन्होंने जय की शादी में सामंती
मिजाज क्यों अपनाया! खासकर तब जबकि स्वयं वे अपने पिता द्वारा अपना विवाह
बेरोजगारी की स्थिति में कर दिए जाने से खासे असंतुष्ट रहे हैं।38 वे
जय के अंग्रेजीदाँ व्यवहार से भली-भाँति परिचित थे, फिर
उन्होंने सुंदर, सुशील तथा अंग्रेजी नहीं जानने वाली लड़की
पूनम से उसकी शादी क्यों कराई? एक एम.बी.ए. कर रहा लड़का या
पीएच.डी. कर रही लड़की अपना जीवन साथी स्वयं चुन सकते हैं, इस
मामले में उनके बीच में टाँग अड़ाना पितृसत्तात्मक अहम या बेवकूफी ही कहलाएगा।
आमतौर पर कई बार लोग अपने मित्रों के साथ अपने संबंधों को और प्रगाढ़ तथा स्थाई
बनाने के लिए अपने बच्चों की शादी उनकी मर्जी के बगैर करा डालते हैं। कहना मुष्किल
है कि एस.डी.एम. चंद्रा साहब की लड़की से जयप्रकाश की शादी कराने के पीछे की
वास्तविकता क्या थी।
आमतौर पर नवमध्यवर्गीय चरित्र बड़े-बड़े लोगों से परिचय
बनाने में अपनी इज्जत समझता है और कई बार विवाह-कार्यक्रम को इसका माध्यम बनाया
जाता है। जयप्रकाश की शादी में उसके बाबा तथा लेखक के पिता रोहनलाल व जय के असली
पिता सुनहरी लाल कहाँ थे? उनके बारे में एक वाक्य भी
नहीं लिखा गया। लेखक ने उन्हें बुलाया था या नहीं! इस संदर्भ में दयाशंकर ने एक
रोचक बात लिखी है, ‘‘जयप्रकाश की शादी का शुभारंभ रोहनलाल और
सुनहरी लाल के ‘खुरदरे हाथों’ के बदले
ओमप्रकाश वाल्मीकि के ‘कर कमलों’ से
कराने के पीछे मध्यवर्गीय बड़प्पन की चाह के सिवा क्या है जबकि वाल्मीकि पारिवारिक
रिष्ते और उम्र में भी रोहनलाल और सुनहरी लाल से सगे और बड़े न थे।’’39
लेखक जयप्रकाश प्रसंग में जयप्रकाश की बुराइयाँ एक-एक करके
गिनाता है और कई बार अपमानजनक शब्दों जैसे- काला अंग्रेज, महामूर्ख आदि का प्रयोग करता है। पूरी आत्मकथा में लेखक यह नहीं बताता कि
जब उसका (लेखक का) विवाह उसकी मर्जी के विरुद्ध हुआ था और शुरुआती दिन काफी जिल्लत
में गुजरे थे तो उस समय उसकी पत्नी से उसके संबंध कैसे थे। लेखक जिस तरह जयप्रकाश
के साथ पत्नी विमला के गहरे दल-दल में फँस जाने की सूचना देता है, उससे लगता है कि जैसे यह सब कुछ एकाएक हुआ, जबकि
स्वयं जयप्रकाश उनके साथ लम्बे समय से रह रहा था। इस प्रसंग का अंत जिस तरह होता
है, उससे आष्चर्य होता है कि लेखक सर्वगुणसम्पन्न था,
उसने पत्नी के साथ कभी दुर्व्यवहार नहीं किया था तो उसकी पत्नी घर
छोड़कर एक असुरक्षित भविष्य की ओर क्यों चली जाती है? यह भी
स्पष्ट नहीं हो पाता कि जय और विमला की आत्मकथा में दी गई हरकतें सचमुच उनका ‘चारित्रिक पतन’ था या पारस्परिक खुलापन और स्नेह?
असल में स्त्री-पुरुष संबंधों में इतनी जटिलता होती है कि
उसमें प्रत्येक पक्ष को अपने ही ठगे जाने का विष्वास होता है जबकि अक्सर इसमें
दोनों की ही कम या अधिक भूमिका होती है। पुरुष वर्चस्व पर आधारित समाज में बोलने
(या लिखने) का अधिकार प्रायः पुरुष को ही होता है। इसीलिए इस एकपक्षीय गवाही से
किसी भी निर्णय पर पहुँचना काफी कठिन है। इस प्रसंग में यह भी पता नहीं चलता कि
लेखक के ‘स्वर्ग समान निकेतन के खण्डहर’ होने के बाद जय,
विमला और भानु कहाँ चले गए? क्या वे साथ रहने
लगे? अगर लेखक का आरोप सही है तो यह समझ में नहीं आता कि ‘चरित्रहीन’ माँ और पिता को गाली देने वाले जयप्रकाष
के साथ लेखक का पुत्र भानु कैसे चला गया?
बहरहाल यह प्रसंग एक बहुत गंभीर सवाल उठाता है। स्त्री और
दलित दोनों ही उत्पीड़ित अस्मिताएँ हैं। दलित साहित्य में इस सवाल का सामना अभी तक
नहीं किया गया है कि एक उत्पीड़ित अस्मिता का दूसरी उत्पीड़ित अस्मिता से किस तरह का
संबंध होना चाहिए। आमतौर पर दलित लेखक स्त्रियों की बेवफाई और अनैतिकता की शिकायत
करते रहते हैं, दूसरी ओर स्वयं दलित महिला लेखकों का कहना
है कि जाति के बावजूद दलित पुरुष अंततः उनके लिए पुरुष ही रहता है और इस लिहाज से
एक दलित स्त्री को ‘दोहरा अभिशाप’ भोगना
पड़ता है।
इसके अलावा भी इस आत्मकथा की कुछ अन्य सीमाएँ/समस्याएँ
हैं-
लेखक ने दलितों द्वारा अपनी जाति छिपाने तथा उनमें
आत्मसम्मान की कमी के विरोध में खूब लिखा है लेकिन वह भूल जाता है कि इस मामले में
वह स्वयं समझौता करता है। वह अपने कॉलेज के साथियों के समक्ष अपनी जाति छिपाने व
स्वयं को ठाकुर/राजपूत जताने के लिए नाम के साथ अपना गोत्र ‘चौहान’ लिखना शुरू कर देता है। इसका भेद खुलने पर वह
अनुपम जैन के सामने झेंपकर रह जाता है, लेकिन विडम्बना यह है
कि ‘चौहान’ उपनाम उनके नाम के साथ आज
भी जुड़ा हुआ है।
हालाँकि आत्मकथा में दलित समाज और साहित्य के मामले में
खूब आत्मालोचन की प्रवृत्ति मिलती है लेकिन पूरी आत्मकथा में वास्तविक आत्मालोचना
यानी स्वयं की आलोचना शायद कहीं नहीं है। हर जगह लेखक द्वारा या तो अपनी पीड़ा का
बयान किया गया है या ‘हीरो’ बनने
की कोशिश हुई है। कई प्रसंगों में अपनी परंपरावादी मानसिकता को जस्टीफाई करने की
कोशिष तक की है।
आत्मकथा में लेखक गाँव के दलितों की 30-40 साल पुरानी
स्थिति बताकर रह जाता है, उनकी वर्तमान स्थिति नहीं
बताता। इस बड़े अंतराल में दलितों की स्थिति में क्या परिवर्तन आए तथा उन
परिवर्तनों के कारक क्या थे, इसका ब्यौरा आत्मकथा में नहीं
मिलता। यह बात दलित चेतना और उसमें आए परिवर्तन को समझने में बाधक सिद्ध होती है।
नए गाँव की सिर्फ एक झलक तब भंगी-चमार एकता के रूप में दिखती है जब लेखक और उसका
बाप पक्का मकान बनाने के लिए गाँव में जाते हैं। यह एकता दलित चेतना में एक नया
बदलाव था। अगर लेखक इस तरह के कुछ और प्रसंग उठाता तो दलित चेतना को और बेहतर ढंग
से समझा जा सकता था। लेकिन यह प्रसंग भी इतना रोमांचक है कि अतिरंजित लगता है।
जाटव कल्लन चाचा द्वारा लटूरी ठाकुर को दी गई यह धमकी दलित चेतना की नहीं बल्कि
लेखक की कल्पना की उपज अधिक लगती है, ‘‘ठाकुर तुमने हमें
क्या खचेरा समझ रखा है। तुम खचेरा को ही तरह-तरह के लालच देकर बहका सकते थे,
बहुत लड़ाया है तुमने हमें आपस में! हम अपनी जिन्दगी जीना सीख गए हैं,
अब तुम्हारी बातों में आने वाले नहीं...., अपना
भला चाहते हो तो चले जाओ यहाँ से, वरना ठीक न होगा।’’40 ऐसी धमकी तभी दी जा सकती है जब कोई जाति न
सिर्फ मानसिक गुलामी से आजाद हो जाए बल्कि आर्थिक गुलामी से भी आजाद हो जाए।
बहरहाल अपनी इन सीमाओं के बावजूद ‘तिरस्कृत’ एक अद्वितीय दलित आत्मकथा है, इसमें कोई संदेह नहीं। ‘तिरस्कृत’ का महत्व इस बात में नहीं है कि उसमें दलितों, उनके
संघर्ष और उनकी एकता को गौरवान्वित किया गया है बल्कि इसके ठीक उल्टे उसका महत्व
इस बात में निहित है कि वह दलित एकता के सामने मौजूद समस्याओं और खतरों को बहुत
बेबाकी से सामने रखती है। दलित समाज में मौजूद समस्याओं को सामने रखने के कारण ‘तिरस्कृत’ की आलोचना भी काफी हुई है लेकिन इस बात पर
ध्यान दिया जाना चाहिए कि एकता निर्मित करने की राह में मौजूद समस्याओं की पहचान करना
भी उतना ही जरूरी होता है जितना कि स्वयं एकता निर्मित करना। अगर अपने समाज में
अंतर्विरोध हैं तो उन पर बात न करना शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपनी गर्दन छुपाकर
यह महसूस करना है कि हम दुष्मन की निगाह से बचे हुए हैं। ‘‘अगर
अंतर्विरोध हैं तो दुष्मन उसका फायदा उठाने की कोशिश जरूर करेगा। दुश्मन की इस
कोशिश को नाकाम करने का बस, एक ही रास्ता है- इन
अंतर्विरोधों को खुले में लाया जाए और ईमानदारी से उनको हल करने का प्रयास किया
जाए।’’41
‘तिरस्कृत’ में कई ऐसे प्रसंग हैं जिनके बारे में ‘तिरस्कृत’ के कई समीक्षकों ने सवाल उठाया है कि दलित
आंदोलन से उनका क्या लेना-देना है, लेकिन जैसा कि हमने अपने
अध्ययन में दिखाने की कोशिश की है- असल में ये वे सवाल हैं, जिन्हें
अभी तक दलित आंदोलन ने नजरअंदाज किया था जबकि वे दलित एकता और उनके आंदोलन के
कार्यान्वयन की राह में बहुत बड़ी बाधा हैं। दलित और स्त्री अस्मिता के संबंध का
प्रष्न हो या दलितों के भीतर जातिवाद की समस्या, ये ऐसे सवाल
हैं जिन्हें न तो अपवाद कहकर टाला जा सकता है और न ही भविष्य में हल करने के नाम
पर छोड़ा जा सकता है। इन समस्याओं को अपना अंदरूनी मामला कहकर दबाया भी नहीं जाना
चाहिए, हालांकि ऐसी कोशिशें देखने को मिली हैं।
जातिवाद के संबंध में ‘तिरस्कृत’
ने जिस प्रष्न को उठाया है, अगर उसे समझने की
कोशिश की जाय तो हमें इस प्रष्न का उत्तर तलाशने को विवश होना पड़ेगा कि जब जातिवाद
पूरे हिन्दू समाज (दलितों समेत) की विशेषता है, तो सवर्ण और
दलित के बीच की वास्तविक विभाजन रेखा क्या है? ऐसी कोई
विभाजन रेखा है भी या नहीं? अगर जाति-श्रेष्ठता की भावना सभी
जातियों में विद्यमान है तो सभी के लिए ‘ब्राह्मणवाद’
शब्द का प्रयोग कहाँ तक उचित है, पृथक्-पृथक्
ब्राह्मणवाद, क्षत्रियवाद, भंगीवाद,
चमारवाद का इस्तेमाल क्यों न किया जाए? इसके
अलावा यह आत्मकथा सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों तरह के शोषण को उजागर करते हुए इस
सवाल को बहुत षिद्दत के साथ उठाती है कि वर्ग और वर्ण का संबंध क्या है, क्या आर्थिक प्रष्नों से जूझे बिना केवल दलित चेतना जागृत करके दलितों की
स्थिति में बुनियादी परिवर्तन लाना संभव है?
संक्षेप
में कहें तो ‘तिरस्कृत’ का महत्व
सवालों का गंभीर जवाब देने की दृष्टि से उतना नहीं है जितना कि स्वयं गंभीर सवाल
उठाने के कारण है। अपने इसी मौलिक योगदान के कारण ‘तिरस्कृत’
समकालीन हिन्दी दलित साहित्य में मील के पत्थर की हैसियत रखती है।
संदर्भ-सूची
1. आत्मालोचना
की एक कोशिश- कवितेन्द्र ‘इंदु’, अपेक्षा-4,
पृष्ठ-170
2. ‘तिरस्कृत’-सूरजपाल चौहान, पृष्ठ-16
3. वही, पृष्ठ-17
4. वही, पृष्ठ-18
5. वही, पृष्ठ-23
6. आत्मालोचना
की एक कोशिश, अपेक्षा-4, पृष्ठ-168
7. दलित आत्मकथा
लेखन की परंपरा- बजरंग बिहारी तिवारी, अपेक्षा-4,
पृष्ठ-31
8. ‘तिरस्कृत’, पृष्ठ-28-29
9. वही, पृष्ठ-30
10. वही, पृष्ठ-34
11. वही, पृष्ठ-52
12. दर्शन का
बलात्कार- गंगासहाय मीणा, युद्धरत आम आदमी, जनवरी-मार्च, 2004, पृष्ठ-61
13. वही, पृष्ठ-40
14. दलित साहित्य
के बढ़ते कदम-वीर भारत तलवार, युद्धरत आम आदमी,
अक्टू.-दिस. 2002, पृष्ठ-53
15. श्रीनिवास
ने जाति व्यवस्था का अध्ययन करते हुए यह पाया कि कोई जाति जब सामाजिक रूप से कुछ
शक्तिशाली हो जाती है तो वह अपने से ऊँची जातियों के कर्मकांडों, व्यवहारों को अपनाने लगती है और कुछ समय बाद वह स्वयं ऊँची जाति होने का
दावा पेश करने लगती है। हम इतना जोड़ सकते हैं कि ऊँची जाति होने का दावा किए बिना
भी जातियाँ अपने से ऊपर मानी जाने वाली जातियों का अनुकरण करती रहती हैं। देखें-
आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन - एम. एन. श्रीनिवास, राजकमल
प्रकाशन, 2005
16. ‘तिरस्कृत’, पृष्ठ-49
17. वही, पृष्ठ-65
18. वही, पृष्ठ-66
19. वही, पृष्ठ-145
20. वही, पृष्ठ-151
21. वही, पृष्ठ-82
22. आत्मालोचना
की एक कोशिश, अपेक्षा-4, पृष्ठ-171
23. दलित
आत्मकथा लेखन की परंपरा, अपेक्षा-4, पृष्ठ-39
24. ‘तिरस्कृत’, पृष्ठ-49-50
25. वही, पृष्ठ-52
26. आत्मालोचना
की एक कोशिश, अपेक्षा-4, पृष्ठ-170
27. वही, पृष्ठ-53
28. वही, पृष्ठ-70
29. वही, पृष्ठ-97
30. वही, पृष्ठ-101
31. वही, पृष्ठ-124
32. वही, पृष्ठ-125
33. समाज को
बदलने का हौसला- नगमा जावेद, कथाक्रम, अक्टूबर-दिसम्बर, 2004, पृष्ठ-106-07
34. ‘तिरस्कृत’, पृष्ठ-127
35. वही, पृष्ठ-127
36. वही, पृष्ठ-133
37. वही, पृष्ठ-103
38. वही, पृष्ठ-51-52
39. दयाशंकर, पल-प्रतिपल, सितम्बर-दिसम्बर, 2003,
पृष्ठ-188
40. ‘तिरस्कृत’, पृष्ठ-47
41. दलित
साहित्य के बढ़ते कदम- डॉ. वीरभारत तलवार, युद्धरत आम
आदमी, अक्टू.-दिस. 2002, पृष्ठ-53