मूल निवासियों के हित में एक जरूरी फैसला

गत 5 जनवरी को उच्चतम न्यायालय ने एक बहुत महत्वपूर्ण फैसला सुनाया. कुछ अखबारों में इसकी चर्चा इस रूप में हुई- 'एकलव्य से अंगूठा मांगना शर्मनाक', मानो मामला एकलव्य और द्रौण या गुरू-शिष्य या आस्था से जुडे किसी प्रश्न का हो. मूलतः यह मामला था- कैलास व अन्य बनाम स्टेट ऑफ महाराष्‍ट्र थ्रू तालुका पुलिस स्टेशन. 13 मई 1994 को एक भील जनजाति की महिला नंदाबाई (जो अपने पिता, विकलांग भाई और मनोरोगी बहिन के साथ रह रही थी) को एक सवर्ण पुरुष से रिश्ता रखने (जिससे उसके एक बच्ची पैदा हो चुकी थी, दूसरी संतान पेट में थी) के कारण कैलास, बालू और सुभद्रा ने लात-घूंसों से जमकर पीटा और फिर उसके कपडे फाड दिए. निर्वस्त्र करके उसे सडक पर दौडा-दौडाकर पीटा गया. एफआईआर और जांच के बाद अतिरिक्त सत्र न्यायालय, अहमदनगर ने 5 फरवरी, 1998 को भारतीय दंड संहिता की धारा 452, 354, 323, 506(2) के साथ 34 के तहत सभी अभियुक्तों को 100-100 रुपये का जुर्माना और मामूली सजा सुनाई. अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत भी मामूली जुर्माना और मामूली सजा दी गई. आरोपियों ने इसके खिलाफ बंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ में अपील की. उच्च न्यायालय ने 10 मार्च 2010 को अपने फैसले में आरोपियों को अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 से दोषमुक्त कर दिया और उनका जुर्माना 100 रुपये प्रति से बढाकर 5000 रुपये प्रति कर दिया. इसके खिलाफ आरोपियों ने उच्चतम न्यायालय में अपील की. 5 जनवरी, 2011 को न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्र की बैंच ने इस मामले में फैसला सुनाया.
यह फैसला कई मायनों में महत्व्पूर्ण और रचनात्मक है. चूंकि फैसला भील महिला नंदाबाई के पक्ष में है, इसलिए इसमें आदिवासियों के साथ इतिहास में हुए अन्यायों का जिक्र किया गया है. फैसले में बार-बार इस बात को दुहराया गया है कि 'यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि आज आदिवासी, जो कि संभवतः भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं, अब देश की कुल आबादी का लगभग 8 प्रतिशत ही बचे हैं, वे एक तरफ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, बीमारियों और भूमि‍हीनता से ग्रस्त हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या, जो कि विभिन्न अप्रवासी जातियों की वंशज है, उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है'. उच्च‍तम न्यायालय ने इस मामले को बारीकी से समझा और अपने फैसले में उत्पीडन की उस पूरी प्रक्रिया का पर्दाफाश किया है. चूंकि आरोपी सवर्ण और ताकतवर थे, इसलिए धीरे-धीरे पीडिता के पक्ष के गवाह मुकरते चले गए. एक आरोपी ने अपने बयान में नंदाबाई के घटना के दौरान फाडे गए अंतःवस्त्रों के बारे में कहा कि 'गरीबी के कारण भील ऐसे ही फटे-पुराने कपडे पहनते हैं'. न्या‍यालय ने इसे गंभीरता से लिया और कहा कि यह बयान आरोपियों की गिरी हुई सोच का परिचायक है, वे आदिवासियों को मनुष्यता का दर्जा भी नहीं देते. उच्चतम न्यावयालय ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि कैसे बंबई उच्च न्यायालय ने केवल इस आधार पर आरोपियों को अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 से मुक्त कर दिया क्योंकि जांच में शामिल पुलिस अधिकारियों ने पीडिता का जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत नहीं किया. साथ ही उच्चतम न्यायालय ने इस बात के लिए महाराष्‍ट्र सरकार को लताडा कि एक आदिवासी महिला को दिन-दहाडे निर्वस्त्र करके सडक पर अपमानजनक ढंग से घुमाया गया, यह बहुत ही शर्मनाक है, लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने आरोपियों की सजा बढाने के लिए कोई कोशिश नहीं की. इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि हमारी नजर में आरोपियों को उनके जुर्म की तुलना में दी गई सजा काफी कम है. उल्लेखनीय है कि आदिवासी समाज के साथ ऐसी ज्यादतियां सवर्ण समाज के द्वारा ही नहीं, बल्कि समाज के अन्य तबकों के द्वारा भी होती है. पिछले वर्ष इससे मिलती-जुलती एक घटना घटी. पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के बटतला गांव में एक मुस्लिम लडके से प्यार करने वाली आदिवासी लडकी सुनीता टुडु मुर्मु को तीन गांवों में 8-9 घंटे तक नग्न घुमाया गया और उसका एमएमएस भी बनाया गया. इस घटना को अंजाम देने में स्थानीय मुखिया के बेटे की अहम भूमिका थी, जिसका संबंध वामपंथी संगठन माकपा से है. इसी तरह नवंबर 2007 में गुवाहटी की सडकों पर एक संथाल (आदिवासी) लडकी को दिनभर नग्नावस्था में घुमाया गया. आदिवासी और दलित महिलाओं के साथ इस तरह की घटनाएं आए दिन होती रहती हैं. अधिकांश मामलों में पुलिस की भूमिका प्रतिकूल ही होती है. 1977 में महाराष्ट्र की एक आदिवासी लड़की का थाने में ही बलात्कार हुआ था, तब निचली अदालत ने आरोपी सिपाहियों को बरी करते हुए मथुरा नाम की उस आदिवासी लड़की को ही बदचलन करार दे दिया था। इस फैसले पर खूब हंगामा हुआ और बाद में हाईकोर्ट ने दोनों बलात्कारी सिपाहियों को आजीवन कारावास की सजा दी. ऐसी घटनाओं में से कुछ ही मीडिया तक पहुंच पाती हैं. छोटी-छोटी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर जंतर-मंतर पहुंच जाने वाले बुद्धिजीवियों की इस तरह की बडी घटनाओं पर चुप्पी का क्या अर्थ समझा जाए?
ऐसी स्थिति में 5 जनवरी का फैसला सुकून देने वाला है. फैसले में संदर्भों के साथ विस्तार से इस बात की चर्चा की गई है कि भारत के असली मूलनिवासी कौन हैं- द्रविड या उनसे पहले से रह रहे आदिवासी! सारी बहसों को सामने रखते हुए 'द कैंब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया' (वॉल्यूम-1) के माध्यम से यही साबित किया गया है कि द्रविडों के आने से पहले भी यहां पर आदिवासी रहते थे और वर्तमान मुंडा, भील आदि उनके ही वंशज हैं. द्रविडों के बाहर से आने का प्रमाण है- ब्राहुई. ब्राहुई द्रविड प्रजाति के उन समुदायों को कहते हैं जो बलूचिस्तान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान आदि में रहते हैं. ब्राहुइयों का भारत के उत्तर-‍पश्चिम में मिलना दो संभावनाएं छोड जाता है- एक, द्रविड उसी दिशा से भारत आए थे और दूसरी यह कि भारत से द्रविड उस दिशा में गए थे. चूंकि भारत से किसी जाति के बाहर जाने के प्रमाण बहुत कम मिलते हैं, इसलिए पहली संभावना ही सच के अधिक करीब लगती है. 'ब्राहुई' के बारे में जानने के लिए फैसले में लिखा हुआ है- इसके बारे में गूगल से देखें. 'वर्ल्डर डायरेक्ट री ऑफ मायनरिटीज एण्डे इंडिजिनस प्यु पिल- भारतः आदिवासी' लेख से भीलों का गौरवशाली इतिहास बताया गया है कि शौर्य के धनी भीलों को 17वीं सदी में निर्दयता से कुचला गया. इनको अपराधी के रूप में पकडकर तुरंत मार दिया जाता. इनका सफाया करने की भरपूर कोशिश की गई. कुछ भील जहां-तहां जंगलों और कंदराओं में छिप गए.
इसके बाद फैसले में इस पर विचार किया गया है कि कैसे विभिन्न प्रजातियों के लोग भारत आते चले गए. भाषिक आधार पर कैसे यहां के मूलनिवासियों को विजेताओं की भाषा अपनानी पडी. इसके बावजूद मुंडारी आदि भाषाएं सबसे प्राचीन सिद्ध होती हैं. फैसले में दोहराया गया है कि आज का भारत मूलतः बाहर से आई हुई जातियों के वंशजों का देश है, इसीलिए इसमें इतनी विविधता है. इसी क्रम में फिराक गोरखपुरी का ये शेर उद्धृत किया गया है-
सर जमीन-ए-हिंद पर अक्वाधम-ए-आलम के फिराक,
काफिले गुजरते गए हिंदुस्तान बनता गया. इसके बाद प्रस्तुत फैसले में उपेक्षित, वंचित आदिवासी समाज के उत्थान के लिए संविधान में किये गए प्रावधानों का जिक्र किया गया है. 'ऐतिहासिक रूप से वंचित तबकों को विशेष सुरक्षा और अवसर दिए जाने चाहिए ताकि वे खुद को ऊपर उठा सकें. इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 15(4), 15(5), 16(4), 16(4ए), 46 आदि में विशेष प्रावधान किये गए हैं'. फैसले का पूरा जोर इस पर है कि चूंकि आदिवासी यहां के मूल निवासियों के वंशज हैं, इसलिए उन्हें पर्याप्त सम्मान दिया जाना चाहिए. इसी क्रम में इतिहास में आदिवासियों के साथ हुए अन्यायों का जिक्र करते हुए लिखा गया है कि 'इसका सर्वाधिक ख्यात उदाहरण महाभारत के आदिपर्व में उल्लिखित एकलव्य प्रसंग है. एकलव्य धनुर्विद्या सीखना चाहता था, लेकिन द्रोणाचार्य ने उसे सिखाने से मना कर दिया क्योंकि वह नीची जाति में पैदा हुआ था. तब एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई और धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू किया. वह शायद द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया, इसलिए द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा में उसका दाएं हाथ का अंगूठा मांग लिया. एकलव्य ने अपने सरल स्वभाव के कारण वह दे दिया.' फैसले में आगे बिंदु क्रमांक 38 के तहत लिखा है, 'यह द्रोणाचार्य की ओर से एक शर्मनाक कार्य था. जबकि उसने एकलव्य को सिखाया भी नहीं, फिर उसने किस आधार पर एकलव्य से गुरु दक्षिणा मांग ली, और वह भी उसके दाएं हाथ का अंगूठा, जिससे कि वह उसके शिष्य अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर न बन सके?'
इसके बाद फैसले में आदिवासियों को अन्य नागरिकों से श्रेष्‍ठ बताया गया है. कहा गया है कि वे सामान्यतः अन्य नागरिकों से ईमानदार और चरित्रवान होते हैं. यही वह समय है कि हम इतिहास में उनके साथ हुए अन्याय को दुरुस्त कर सकें. और आखिर में इसके तरीके के रूप में प्रस्तुत घटना की निंदा और आरोपियों की अपील को खारिज करते हुए उन्हें कठोर दण्ड की वकालत की गई है. इस फैसले से नंदाबाई को साढे सोलह साल बाद न्याय मिल पाया है. अगर फैसले का गहराई से अध्ययन करें तो यह फैसला पूरे आदिवासी समाज के पक्ष में है. फैसले की हर पंक्ति में आदिवासियों के दुख-दर्दों का ध्यान रखा गया है. आज हम देख सकते हैं कि अपने साथ 'प्रगतिशील' विशेषण जोड लेने वाला गठबंधन देश के मूलनिवासियों को उनके जल, जंगल और जमीन से खदेडने पर उतारू है. आदिवासियों के जंगल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ बेचे जा रहे हैं. विरोध किये जाने पर सरकार किसी को भी नक्सली घोषित कर सकती है. आम आदिवासी नक्सली और सरकारी हिंसा के बीच पिस रहा है. चूंकि न्यायपालिका में आदिवासियों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, इसलिए इस फैसले और इसमें निहित व्याख्या को आदिवासी हित में मील का पत्थर माना जाना चाहिए.
इस तरह यह फैसला अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिए गए देश के मूलनिवासियों के वंशज आदिवासियों के पक्ष में तो है ही, साथ में काफी बौद्धिक और रचनात्मजक फैसला भी कहा जा सकता है. न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू इस तरह के फैसलों के लिए जाने जाते हैं. उनके फैसलों में न्याय की गहरी समझ के साथ एक तरह की क्रिएटिविटी होती है. नवंबर 2010 में जस्टिस काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्र की पीठ ने ही अपने एक फैसले में कहा कि ' शेक्सपीयर ने हैमलेट में कहा था कि डेनमार्क राज्य में कुछ सड़ा हुआ है। ठीक इसी तरह कहा जा सकता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी कुछ सड़ा हुआ है।'
वर्तमान फैसले के बारे में कुछ लोग कह रहे है कि इसमें बेवजह मिथकों का प्रयोग किया गया है. जबकि वास्तकविकता यह है कि यह फैसला मिथकों के आधार पर नहीं, घटना के तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर दिया गया है. केवल घटना के कार्य-कारण को समझने में मदद के लिए मूलतः इतिहास और अंशतः मिथकों का प्रयोग किया गया है. मिथकों के आधार पर फैसला देने की विधिवत शुरूआत पिछले दिनों इलाहाबाद उच्चय न्यायालय ने अयोध्‍या मसले पर यह कहकर की कि 'चूंकि सभी हिन्दुओं की आस्था कहती है कि राम अयोध्या में पैदा हुए, इसलिए हमें यह मान लेना चाहिए'. हिंदूवादी संगठनों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले की काफी तारीफ की. अगर उन्हें मिथकों से इतना ही लगाव है तो अब बारी है शंबूक, हिरण्यकश्यप, बालि आदि की हत्या तथा शूर्पणखा आदि पर हमले के केस खोलने की. आशा है सबके परिणाम दिलचस्प होंगे. (जनसत्‍ता, 19 जनवरी, 2011 में प्रकाशित लेख की असंपादित प्रति)
 
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