भ्रष्‍टाचार और आरक्षण - गंगा सहाय मीणा

भ्रष्टाचार और आरक्षण

गंगा सहाय मीणा

भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू

आरक्षण के मुद्दे पर आकर भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई स्थगित हो गई है। इस प्रक्रिया में टीम अन्ना से लेकर सरकार सहित तमाम राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष के निहितार्थ भी धीरे-धीरे जनता के सामने आ गए हैं। 2011 में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में आरक्षण का मुद्दा कभी दूर, कभी पास लेकिन साथ-साथ चलता रहा। अन्ना टीम के सदस्य मेरिटवाद में अपना विास जताते रहे हैं और उनके विरोधी उनकी मेरिट और ईमानदारी की पोल खोलते रहे हैं। इस पूरे आंदोलन के कुछ उपेक्षित पहलू भी हैं, जिन पर गौर करना जरूरी है। सबसे अहम बात तो यह है कि इस पूरे आंदोलन में भ्रष्टाचार को सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार तक सीमित कर दिया है। ‘भ्रष्टाचार’ शब्द बहुत व्यापक अर्थ लिए हुए है। इसका वास्तविक अर्थ है- सामाजिक जीवन में स्वीकृत मूल्यों व वैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध आचरण। इसके तहत व्यक्ति का हर वह काम आ जाता है, जिसमें वह किसी भी प्रकार की गड़बड़ी करता है। उदाहरण के लिए परिवारवाद/वंशवाद या किसी भी प्रकार का पक्षपात, वैधानिक नियमों की धज्जियां उड़ाना (नियमों का विरोध करना नहीं), परीक्षार्थी का गलत मूल्यांकन करना आदि भ्रष्टाचार है। लेकिन भारत में आर्थिक भ्रष्टाचार के बढ़ते मामले प्रचारित होने के कारण उसे ही भ्रष्टाचार का एकमात्र रूप मान लिया गया है।

भ्रष्टाचार के सारे पहलुओं पर चोट की जाए एक उदाहरण द्वारा इस बात को समझना चाहिए। चूंकि आरक्षण के मुद्दे पर भ्रष्टाचार विरोधी विधान अटका है, इसलिए आरक्षण पर ही बात करते हैं। भारतीय संविधान (और उसके संशोधनों) के अनुसार शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, विकलांग, महिलाएं और अब से (अन्य पिछड़ा वर्ग) में मुसलमानों के लिए निर्धारित आरक्षण का प्रावधान किया गया है। तथ्य बताते हैं कि इस आरक्षण को ठीक प्रकार से लागू नहीं किया जा सका है। बहुत से महकमे ऐसे हैं जहां आरक्षण के निर्धारित प्रतिशत के आधे पद भी नहीं भरे गए हैं। अगर कोई उच्च अधिकारी जान- बूझकर आरक्षण को लागू करने की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करता है तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है? निश्चित तौर पर यह भ्रष्टाचार है क्योंकि वह संविधानसम्मत नियमों का पालन नहीं कर रहा। वह सायास किसी वंचित तबके को आगे बढ़ने से रोक रहा है। समझ में नहीं आता, यह आर्थिक भ्रष्टाचार से कैसे कम महत्त्वपूर्ण मसला है!

आर्थिक भ्रष्टाचार ही क्यों अपराध है। भ्रष्टाचार के दूसरे रूप क्यों नहीं! अगर भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो पहले उसके व्यापक अर्थों में स्वीकार करना होगा और इसके लिए आचरण की शुद्धता और ईमानदारी पर बल देना होगा। सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाकर भ्रष्टाचार को खत्म करना मुमकिन नहीं है। उदारीकरण के पिछले दो दशकों से पहले भारतीय राजनीति तक में ऐसे लोगों की बड़ी तादाद थी, जो राजनीतिक-सामाजिक जीवन में नैतिकता व शुचिता को बड़ा महत्त्व देते थे। इस वजह से आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों की संख्या भी सीमित थी। (कुछ लोगों का मानना है कि तब व्यवस्था में आज के समान पारदर्शिता नहीं थी और सूचना का अधिकार जैसे कानून नहीं थे। अत: भ्रष्टाचार के मामले खुल ही नहीं पाते थे)

आरक्षण से निगरानी संस्था विविधतापूर्ण होगी आज जब आर्थिक भ्रष्टाचार विकराल रूप धारण कर चुका है और उसका सामना करने के लिए एक मजबूत लोकपाल बनाया जा रहा है, तो सवाल उठ रहा है कि इसमें आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए या नहीं। आरक्षण के सिद्धांत की समाज-वैज्ञानिक उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि अगर भ्रष्टाचार से पीड़ित व्यवस्था में आरक्षण का आधार रहा है अर्थात विधायिका-कार्यपालिका में आरक्षण है तो उसकी निगरानी करने वाली व्यवस्था में आरक्षण करने में कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए। इससे निगरानी करने वाली शक्ति का सामाजिक चरित्र ज्यादा विविधतापूर्ण होगा। आज आरक्षण की मदद से विभिन्न वंचित समूह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक रूप से विकास की दौड़ में कदम से कदम मिलाने की स्थिति में आ रहे हैं। व्यवस्था से उनका अलगाव कम हो रहा है। अगर उन्हें दूसरी जगहों की तरह लोकपाल में प्रतिनिधित्व मिलता है तो वे भी इस नए बन रहे भारत को बनाने और बचाने में योगदान के लिए अपना कर्त्तव्य महसूस करेंगे। साथ ही अपने समुदाय के साथ अन्याय की आशंका से मुक्त रहेंगे। दुनिया भर में फैलती लोकतांत्रिक सोच के समय में सभी को साथ लेकर चलने की व्यवस्था ही सफल हो सकती है।

कोटा : सामाजिक उत्थान के सफल प्रयोग यह बात सही है कि आरक्षण का विधान समानता और प्रतिनिधित्व की गारंटी नहीं देता लेकिन यह भी काबिलेगौर है कि जब तक सदियों से वंचित, शोषित तबकों को आगे बढ़ाने और समाज में समानता के लिए समुचित प्रयास नहीं किए जाते और उनके माध्यम से अधिकतम संभव समानता सुनिश्चित नहीं की जाती, हमें आरक्षण की व्यवस्था में विास जताना होगा क्योंकि यह तथ्य है कि दुनिया भर में वंचित तबकों के सामाजिक उत्थान के लिए की गई व्यवस्थाओं में आरक्षण सर्वाधिक सफल प्रयोग है। अगर लोकपाल में स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों का प्रतिबिंबन करने के लिए उचित व्यवस्था की जाएगी तो शायद हम एक-दूसरे को सहारा देते हुए या एक-दूसरे को अंकुशित करते हुए लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति के पीछे की मंशा को पूरा करने में सफल हो सकेंगे। और अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह एक मायने में ताकतवर वर्ग का जनसाधारण के लिए एक नियामक मंडल बनेगा जिसमें देश और विदेश के सर्वोच्च शिक्षा संस्थानों से विधि और प्रशासन की विशेषज्ञता हासिल करने वाले लोग आएंगे, जिनके बदलने की कोई गारंटी नहीं होगी। अगर हमारा लोकतंत्र में विास बचा है तो हमें भ्रष्टाचार विरोधी विधान (लोकपाल) में सभी वर्गों का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना ही होगा। साथ ही स्वयं भ्रष्टाचार को व्यापक अर्थ में ग्रहण करने की जरूरत है। हस्‍तक्षेप (राष्‍ट्रीय सहारा), 7 जनवरी, 2011
 
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