सरकार (लघुकथा) -गंगा सहाय मीणा

मैं 14-15 साल का हो गया था लेकिन मैंने कभी सरकार को नहीं देखा. मैं किताबों-अखबारों में पढकर और लोगों से सुन-सुनकर तंग आ गया था कि सरकार ये कर रही है, वो कर रही है, सरकार ने ये कहा, वो कहा. आखिर सरकार है कौन, कैसी दिखती है? बोतल से निकले जिन/भूत की तरह तो नहीं? ये सवाल मुझे उन दिनों बहुत परेशान करता था.

अंततः एक दिन मेरा भाग्य जागा और मुझे सरकार के दर्शन हो गए. मैं अपने पिताजी के साथ पास के शहर गया, वहां मुझे सरकार एक तिराहे पर खडी दिखी. सरकार एक जीप की शक्ल में थी, जिसमें 3-4 पुलिसवाले थे. जीप पर सरकार का नाम लिखा हुआ था- राजस्थान सरकार. सरकार को जीप के रूप में देखकर पहले तो आश्‍चर्य हुआ लेकिन बाद में सोच लिया कि लोग कहते हैं कि सरकार सर्वशक्तिशाली है, इसलिए बहुरूपिया भी होगी. अपनी आवश्यतकतानुसार रूप बदल लेती होगी.

सरकार तिराहे पर जीप की शक्ल में आकर रुकी. उसे देखते ही आसपास के माहौल में सक्रियता आ गई. पुलिस वाले भी जीप में से उतर कर सक्रिय हो गए. वहां खडे ऑटो रिक्शों की हवा निकालने लगे और रिक्शा चालकों को गाली और थप्पड मारने लगे. रिक्शेवाले हवारहित ट्यूब वाले रिक्शों को भी लेकर भी दौड पडे.

सरकार को मैंने पहली बार देखा था. सारी घटना का कुछ कार्य-कारण समझ में नहीं आया. लेकिन उसे देखकर मुझे भी डर लगने लगा

4 Responses to “सरकार (लघुकथा) -गंगा सहाय मीणा”

दीपक बाबा ने कहा…

ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है..... अच्छा व्यंग लिखा है. बधाई.....

सेटिंग में जाकर कमेंट्स में word verification हटा देवे... टिपण्णी देने में दिक्कत होती है..

SANSKRITJAGAT ने कहा…

ब्‍लाग जगत पर संस्‍कृत की कक्ष्‍या चल रही है ।

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धन्‍यवाद

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…
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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

काफी तीखा व्यंग्य. सही बात है — 'सरकार' का रूप सरकार के कर्मचारियों के किये व्यवहार से ही निर्मित होता है. सरकारी लोगों को अन्याय करता देख उनसे डरना लाजिमी है.

 
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