जनसंदेश टाइम्स. 12 मार्च 2012
वंचित प्रतिभा की हत्या
गंगा सहाय मीणा
(सहायक प्रोफेसर, जेएनयू)
एम्स के 22 वर्षीय छात्र अनिल कुमार की आत्महत्या ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को कटघरे में खडा कर दिया है. अनिल राजस्थान के बारां जिले के पीपलिया चौकी गांव के एक आदिवासी किसान परिवार में पैदा हुए और उन्होंने ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट में अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में दूसरी रैंक लाकर अपनी प्रतिभा का सबूत दे दिया. फिलहाल वे भारत के सर्वश्रेष्ठ मेडिकल शिक्षा संस्थान कहे जाने वाले अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में एमबीबीसी की पढाई कर रहे थे. मीडिया ने उनकी मृत्यु की खबर कुछ इस तरह बनाई मानो उन्होंने अचानक आत्महत्या कर ली हो. आत्महत्या करने वाला कोई भी व्यक्ति एक झटके में आत्महत्या नहीं करता. वह आत्महत्या जैसा कदम एक लंबी हार के बाद तभी उठाता है जब उसे जीवन के सारे रास्ते बंद नजर आने लगते हैं, जब कोई भी उसकी परेशानी समझने और सुलझाने की कोशिश नहीं करता. जाहिर है यह एक लंबी प्रक्रिया होती है, कम से कम एक होनहार, प्रतिभाशाली छात्र के बारे में तो यह पूरे यकीन के साथ कहा जा सकता है. कई बार योजना बनती है और फिर स्वयं ही निरस्त कर दी जाती है. ऐसा क्या था जो अनिल को लगातार इस नकारात्मक कदम की ओर तब तक धकेलता रहा, जब तक उसने अनिल का जीवन लील नहीं लिया?
अनिल की मौत का जिम्मेदार एम्स का निदेशक या वे कुछ अध्यापक ही नहीं है जो अनिल की समस्या नहीं समझ पाये. जिन स्थितियों में अनिल ने आत्महत्या की, उनमें अकेला अनिल नहीं था, आज भी हजारों छात्र झूल रहे हैं उसी मनःस्थिति के इर्द-गिर्द. मीडिया इस पूरे प्रसंग में सिर्फ बालमुकुंद को याद कर रहा है जो एम्स का विद्यार्थी था और लगभग दो साल पहले स्थितियों ने उसे वही करने को मजबूर कर दिया, जैसा अनिल के साथ हुआ. इसी हिंदुस्तान में न जाने कितने अनिल और बालमुकुंद हैं, जिन्हें शिक्षण संस्थानों का दमघोंटू वातावरण लीलने की योजना बना रहा है. जो इस वातावरण में शहीद हो गए, हमारा उन्हें याद करना तभी सार्थक होगा जब हम कुछ ऐसा सोचें जिससे कल आने वाली पीढियां अनिल कुमार या बालमुकुंद की तरह शहीद होने से बच जायें और एक खुशहाल जीवन जी सकें.
शिक्षण संस्थानों में दो ऐसे तत्व हैं जो पिछडे तबकों के विद्यार्थियों को प्रतिकूल प्रतीत होते हैं- साथी विद्यार्थियों-अध्यापकों का जातिवादी रवैया और अंग्रेजी माध्यम. प्रवेश की प्रक्रिया में ही जातिवादी टिप्पणियों की शुरूआत हो जाती है. साक्षात्कार के दौरान जातिसूचक उपनाम को लेकर 'विद्वान' और 'विशेषज्ञ' प्रोफेसरों द्वारा जातिवादी टिप्पणियां तथा नकारात्मक मूल्यांकन इसका पहला चरण है. इसे पार कर अगर विद्यार्थी प्रवेश लेने में सफल हुआ तो आरक्षित वर्ग से संबंधित होने के कारण सवर्ण सहपाठियों और अध्यापकों की आंखों में वह चुभता रहता है. यह चुभन जाने-अनजाने प्रकट होती रहती है. यह चुभन पिछडे तबके से आए विद्यार्थी के दिमाग में अवसाद का बीज बोती है. अंग्रेजी भाषा उसे हवा-पानी देने का काम करती है. भाषा को लेकर प्रोफेसरों के मन में इतना हीनताबोध और श्रेष्ठताबोध होता है कि भारतीय भाषा भाषी होने पर ही अंग्रेजी में पढाते हैं और अंग्रेजी में बात करने को प्राथमिकता देते हैं. गैर-तकनीकी विषयों का भी यही हाल है. पिछडे तबकों और दूर-दराज से आने वाले विद्यार्थी सामान्यतौर पर क्षेत्रीय भाषाओं में अपनी प्राथमिक शिक्षा लेते हैं. भाषाविज्ञानियों की माने तो वे ठीक ही करते हैं. अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर वे तथाकथित श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश भी ले लेते हैं. अपने विषयज्ञान में बेहतर होने पर भी वे अंग्रेजी की वजह से अपनी सत्रीय परिक्षाओं में अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाते और कई बार फेल भी हो जाते हैं. अध्यापकों द्वारा उनके लिए अतिरिक्त कक्षाएं तो छोड दें, नियमित कक्षाओं में भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता. जिसकी वजह से वे अवसाद के शिकार हो जाते हैं. उनके लिए फेल होना उस सबसे बडे सपने का टूटना है जिसे तमाम परिजनों और दोस्तों ने मिलकर बुना था.
जब यूजीसी के अध्यक्ष प्रो. सुखदेव थोराट थे तो उन्होंने शिक्षण संस्थानों को पिछडे तबकों से आए विद्यार्थियों के लिए विशेष सहायता कक्षाओं का आयोजन करने के निर्देश दिए थे. शिक्षण संस्थानों एक-दो साल तो इस आदेश की खानापूर्ति की लेकिन बहुत जल्द यह भी अन्य कई बातों की तरह फाइलों में दबा रह गया. प्रशासन और अध्यापक चाहते ही नहीं कि कमजोर तबकों के विद्यार्थी बराबरी में आएं.
मूल सवाल इससे भी बडा है. सवाल यह है कि अच्छा डॉक्टर बनने के लिए विषयज्ञान (चिकित्सा विज्ञान) जरूरी है या भाषाज्ञान (अंग्रेजी ज्ञान)? अंग्रेजीदां लोगों ने एक भ्रांत धारणा का प्रचार किया है कि अंग्रेजी ज्ञान और विकास की भाषा है. हकीकत यह है कि ज्ञान और विकास का किसी भाषा विशेष से कोई संबंध नहीं होता और भाषाज्ञान की तुलना में विषयज्ञान ज्यादा जरूरी चीज है.
जहां तक आरक्षण और उससे उपजी ईर्ष्या और घृणा का संबंध है, आरक्षण किसी की दया पर आधारित नहीं है. यह भारतीय संविधान प्रदत्त एक अधिकार है. यह देखने में आ रहा है कि जब से शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में केन्द्र सरकार ने ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया है, सवर्ण जातियों की आरक्षण के प्रति घृणा में इजाफा हुआ है. देशभर से भेदभाव और अपमान की खबरें आ रही हैं. आईआईटी, एम्स, जेएनयू जैसे संस्थान भी इससे मुक्त नहीं हैं.
मुद्दा यह है कि कैसे जाति आधारित यह शोषण और अपमान रोका जाए? इसके लिए सबसे जरूरी है पिछडे तबकों की उचित भागीदारी. यानी अध्यापकों और कर्मचारियों की खाली सीटें भरी जाएं जिससे प्रशासन और अध्यापकों के बीच में डायवर्सिटी की स्थापना हो. जब उन तबकों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होगा तो निश्चिततौर पर इन तबकों से आए विद्यार्थियों को एक संबल मिलेगा. उनके साथ अपरिचय और असंवेदनशीलता की स्थिति नहीं आएगी.
अगर हमें और अनिल नहीं चाहिए तो शिक्षण संस्थानों के वातावरण में डायवर्सिटी लागू करनी होगी और संस्थानों का माहौल सहयोगी बनाना होगा. भाषाज्ञान की जगह विषयज्ञान को महत्व देना होगा और भाषा सुधारने के लिए अवसर उपलब्ध कराने होंगे.
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