आदिवासी साहित्‍य - डॉ. गंगा सहाय मीणा


जनसत्ता 7 फरवरी, 2013: इस बार दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले का केंद्रीय विषय है: ‘देशज आवाजें- भारत के लोक और आदिवासी साहित्य का मानचित्रण और प्रकाशन’। लिहाजा, आदिवासी साहित्य की दशा-दिशा पर विचार करने का यह उपयुक्त अवसर है। यह भारतीय समाज, राजनीति और साहित्य में उत्पीड़ित अस्मिताओं के मुक्तिकामी संघर्षों का दौर है। बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में भारत में नए सामाजिक आंदोलनों का उभार हुआ। स्त्रियों, किसानों, दलितों, आदिवासियों और जातीयताओं की ‘नई’ एकजुटता ने ऐसी मांगें और मुद्दे उठाए जो स्थापित सैद्घांतिक और राजनीतिक मुहावरों के माध्यम से आसानी से समझे और सुलझाए नहीं जा सकते थे।
इन समूहों ने अपने शोषण के लिए अपनी खास अस्मिता को कारण बताया और उस शोषण और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष के लिए उस संबंधित अस्मिता वाले समुदाय को साथ लेकर अपनी मुक्ति के लिए सामूहिक अभियान चलाया। चूंकि इस प्रक्रिया में शोषण और संघर्ष का आधार सामुदायिक पहचान है, इसलिए इसे अस्मितावाद की संज्ञा दी गई। वंचितों के शोषण के खिलाफ खड़ी हुई मुहिम में सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के अलावा साहित्यिक आंदोलन ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है। स्त्रीवादी साहित्य और दलित साहित्य उसी का प्रतिफल है। अब आदिवासी चेतना से लैस साहित्य भी साहित्य और आलोचना की दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है।
आदिवासी लोक में साहित्य सहित विविध कला-माध्यमों का विकास तथाकथित मुख्यधारा से पहले हो चुका था, लेकिन वहां साहित्य सृजन की परंपरा मूलत: मौखिक रही। जंगलों में खदेड़ दिए जाने के बाद भी आदिवासी समाज ने इस परंपरा को अनवरत जारी रखा। ठेठ जनभाषा में होने और सत्ता प्रतिष्ठानों से दूरी की वजह से यह साहित्य आदिवासी समाज की ही तरह उपेक्षा का शिकार हुआ। आज भी सैकड़ों देशज भाषाओं में आदिवासी साहित्य रचा जा रहा है, जिसमें से अधिकांश से हमारा संवाद कायम होना अभी शेष है।
मुक्त व्यापार और मुक्त बाजार के नाम पर मुनाफे और लूट का खेल आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन हथियाने से भी आगे जाकर उनके जीवन को दांव पर लगा कर खेला जा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में अकेले झारखंड राज्य में दस लाख से अधिक आदिवासी विस्थापित हुएहैं। इनमें से अधिकतर लोग दिल्ली जैसे महानगरों में घरेलू नौकर या दिहाड़ी पर काम करते हैं। विडंबना यह है कि सरकार के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मूलत: कोई आदिवासी नहीं है, इसलिए यहां की शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में आदिवासियों के लिए आरक्षण या कोई विशेष प्रावधान नहीं है। विकास के नाम पर अपने पुश्तैनी क्षेत्रों से बेदखल किए गए ये लोग जाएं तो कहां जाएं?
सरकार के पास इनके पुनर्वास की कोई योजना नहीं है। अपने जल-जंगल-जमीन से बेदखल महानगरों में शोषित-उपेक्षित आदिवासी किस आधार पर इसे अपना देश कहें? बाजार और सत्ता के गठजोड़ ने आदिवासियों के सामने अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर दी है। जो लोग आदिवासी इलाकों में बच गए, वे सरकार और उग्र वामपंथ की दोहरी हिंसा में फंसे हैं। अन्यत्र बसे आदिवासियों की स्थिति बिना जड़ के पेड़ जैसी हो गई है। नदियों, पहाड़ों, जंगलों, आदिवासी पड़ोस के बिना उनकी भाषा और संस्कृति, और उससे निर्मित होने वाली पहचान ही कहीं खोती जा रही है।
आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के लिए इतना गहरा संकट इससे पहले नहीं पैदा हुआ। जब सवाल अस्तित्व का हो तो प्रतिरोध भी स्वाभाविक है। सामाजिक और राजनीतिक प्रतिरोध के अलावा कला और साहित्य के द्वारा भी प्रतिकार की आवाजें उठीं, और वही समकालीन आदिवासी साहित्य का मुख्य स्वर हो गया।
जब-जब दिकुओं ने आदिवासी जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप किया, आदिवासियों ने उसका प्रतिरोध किया है। पिछली दो सदियां आदिवासी विद्रोहों की गवाह रही हैं। इन विद्रोहों से रचनात्मक ऊर्जा भी निकली, लेकिन वह मौखिक ही अधिक रही। संचार माध्यमों के अभाव में वह राष्टÑीय रूप नहीं धारण कर सकी। समय-समय पर गैर-आदिवासी रचनाकारों ने भी आदिवासी जीवन और समाज को अभिव्यक्त किया। साहित्य में आदिवासी जीवन की प्रस्तुति की इस पूरी परंपरा को हम समकालीन आदिवासी साहित्य की पृष्ठभूमि के तौर पर रख सकते हैं।
कोई भी साहित्यिक आंदोलन किसी तिथि विशेष से अचानक शुरू नहीं हो जाता। उसके उद्भव और विकास में तमाम परिस्थितियां अपनी भूमिका निभाती हैं। समकालीन आदिवासी लेखन और विमर्श की शुरुआत हमें 1991 के बाद से माननी चाहिए। नई आर्थिक नीतियों ने आदिवासी शोषण-उत्पीड़न की प्रक्रिया तेज की, इसलिए उसका प्रतिरोध भी मुखर हुआ। प्रतिरोध का स्वरूप राष्टÑीय था, इसलिए प्रतिरोध से निकली रचनात्मक ऊर्जा देश भर में फूटी। इसमें आदिवासी और गैर-आदिवासी रचनाकार, दोनों बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। इस साहित्य का भूगोल, समाज, भाषा, संदर्भ शेष साहित्य से उसी तरह पृथक है जैसे स्वयं आदिवासी समाज, और यही पार्थक्य इसकी मुख्य विशेषता है।
यह आदिवासी साहित्य की अवधारणा के निर्माण का दौर है। आदिवासी साहित्य अस्मिता की खोज, दिकुओं द्वारा किए गए और किए जा रहे शोषण के विभिन्न रूपों के उद्घाटन और आदिवासियों पर मंडराते संकटों और उनके मद््देनजर हो रहे प्रतिरोध का साहित्य है। यह उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्मक हस्तक्षेप है जो देश के मूल   निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव का पुरजोर विरोध करती है और उनके जल, जंगल, जमीन को बचाने के हक में उनके ‘आत्मनिर्णय’ के अधिकार के साथ खड़ी होती है।
हालांकि यह समकालीन आदिवासी लेखन और विमर्श का आरंभिक दौर है लेकिन इसके बावजूद यह सुखद है कि इसमें अभी तक ‘स्वानुभूति बनाम सहानुभूति’ जैसी छद्म बहसें केंद्र से दूर परिधि के इर्दगिर्द ही घूम रही हैं। आखिर स्वानुभूति या

अनुभूति की प्रामाणिकता को केंद्रीय महत्त्व मिले भी क्यों? निश्चय ही अनुभूति की प्रामाणिकता की जगह अभिव्यक्ति की प्रामाणिकता अधिक महत्त्वपूर्ण है और होनी भी चाहिए। यह सच है कि लंबे अनुभव, निकट संपर्क और संवेदनशीलता के बिना प्रामाणिक अभिव्यक्ति संभव नहीं है, खासकर आदिवासी संदर्भ में, लेकिन इसके बावजूद स्वानुभूति को एकमात्र आधार नहीं बनाया जा सकता।
आदिवासी साहित्य विमर्श के मुद्दे अभी आकार ले रहे हैं। ‘आदिवासी कौन है’ से शुरू होकर आदिवासी समाज, इतिहास, संस्कृति, भाषा आदि पर पिछले एक दशक में कुछ बातें हुई हैं। हर साहित्यिक आंदोलन की शुरुआत और उसे आगे बढ़ाने में पत्रिकाओं की अहम भूमिका होती है। आदिवासी मुद्दों को उठाने, उनसे जुड़े सृजनात्मक साहित्य को प्रोत्साहन देने में इन पत्रिकाओं ने अहम योगदान दिया है- ‘युद्घरत आम आदमी’ (दिल्ली, हजारीबाग; संपादक रमणिका गुप्ता), ‘अरावली उद्घोष’ (उदयपुर, सं. बीपी वर्मा ‘पथिक’), ‘झारखंडी भाषा साहित्य, संस्कृति अखड़ा’ (रांची, सं.वंदना टेटे), ‘आदिवासी सत्ता’ (दुर्ग, छत्तीसगढ़; सं. केआर शाह) आदि।
इनके अलावा ‘तरंग भारती’ के माध्यम से पुष्पा टेटे, ‘देशज स्वर’ के माध्यम से सुनील मिंज और सांध्य दैनिक ‘झारखंड न्यू्ज लाइन’ के माध्यम से शिशिर टुडु आदिवासी विमर्श को बढ़ाने में लगे हैं। बड़ी संख्या में मुख्यधारा की पत्रिकाओं ने आदिवासी विशेषांक निकाल कर आदिवासी विमर्श को आगे बढ़ाने में मदद की है, जैसे- ‘समकालीन जनमत’ (2003), ‘दस्तक’ (2004), ‘कथाक्रम’(2012), ‘इस्पातिका’ (2012) आदि। शुरू में हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं ने आदिवासी मुद्दों को छापने में उतनी रुचि नहीं दिखाई लेकिन अब विमर्श की बढ़ती स्वीकारोक्ति के साथ ही इन पत्रिकाओं में आदिवासी जीवन को जगह मिलने लगी है। छोटी पत्रिकाओं में आदिवासी लेखकों को पर्याप्त जगह मिल रही है।
समृद्घ मौखिक साहित्य परंपरा का लाभ आदिवासी रचनाकारों को मिला है। आदिवासी साहित्य की उस तरह कोई केंद्रीय विधा नहीं है, जिस तरह स्त्री लेखन और दलित साहित्य की आत्मकथात्मक लेखन की है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, सभी प्रमुख विधाओं में आदिवासी और गैर-आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी जीवन समाज की प्रस्तुति की है। आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संघर्ष में कविता को अपना मुख्य हथियार बनाया है। आदिवासी लेखन में आत्मकथात्मक लेखन केंद्रीय स्थान नहीं बना सका, क्योंकि स्वयं आदिवासी समाज ‘आत्म’ से अधिक समूह में विश्वास करता है। अधिकतर आदिवासी समुदायों में काफी बाद तक भी निजी और निजता की धारणाएं घर नहीं कर पार्इं। परंपरा, संस्कृति, इतिहास से लेकर शोषण और उसका प्रतिरोध- सबकुछ सामूहिक है। समूह की बात आत्मकथा में नहीं, जनकविता में ज्यादा अच्छे से व्यक्त हो सकती है।
आदिवासी साहित्य में आर्इं आदिवासियों की समस्याओं को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है- उपनिवेश काल में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के गठजोड़ से पैदा हुई समस्याएं, और दूसरे, आजादी के बाद शासन की जनविरोधी नीतियों और उदारवाद के बाद की समस्याएं। आदिवासी कलम तेजी से अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रही है। आजादी से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएं वनोपज पर प्रतिबंध, तरह-तरह के लगान, महाजनी शोषण, पुलिस-प्रशासन की ज्यादतियां आदि हैं, जबकि आजादी के बाद भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के मॉडल ने आदिवासियों से उनके जल, जंगल और जमीन छीन कर उन्हें बेदखल कर दिया। विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गई। इस प्रक्रिया में एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे छूट रही है, दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है, इसलिए आज का आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है।
दलित और स्त्री साहित्य से भिन्न आदिवासी साहित्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति इसमें अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के प्रति सहयोगी भाव है। स्त्रीवादी साहित्य ने जाति के प्रश्न को नहीं समझा और दलित साहित्य ने स्त्री के सवालों को तरजीह नहीं दी, जिसके फलस्वरूप ‘दलित स्त्री विमर्श’ अस्तित्व में आया। चूंकि आदिवासी समाज में श्रम में भागीदारी के कारण स्त्री अपेक्षया बेहतर स्थिति में रही है, इसलिए साहित्य में भी बड़ी संख्या में स्त्री रचनाकारों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उनके और अन्य रचनाकारों के माध्यम से आदिवासी साहित्य में स्त्री के सवालों को पर्याप्त जगह मिल रही है। आदिवासी साहित्य अपने दायरे में अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के प्रति संवेदनशील है।
चूंकि आदिवासी साहित्य अपनी रचनात्मक ऊर्जा आदिवासी विद्रोहों की परंपरा से लेता है, इसलिए उन आंदोलनों की भाषा और भूगोल भी महत्त्वपूर्ण रहा है। हिंदी अधिकांश आदिवासियों की भाषा नहीं है। मुंडारी, संथाली, हो, भीलोरी, ओड़िया, गारो आदि उनकी भाषाएं हैं। आदिवासी रचनाकारों का   मूल साहित्य उनकी इन्हीं भाषाओं में है। हिंदी में मौजूद साहित्य देशज भाषाओं में उपस्थित साहित्य की इसी समृद्घ परंपरा से प्रभावित है। कुछ साहित्य का अनुवाद और रूपांतरण भी हुआ है। भारत की तमाम आदिवासी भाषाओं में लिखा जा रहा साहित्य हिंदी, बांग्ला, तमिल जैसी बड़ी भाषाओं में अनूदित और रूपांतरित होकर एक राष्टÑीय स्वरूप ग्रहण कर रहा है।
आदिवासी साहित्य की मूल विशेषता इसका पार्थक्य है, इसलिए इसके मूल्यांकन के लिए एक नए सौंदर्यशास्त्र की आवश्यकता होगी। आदिवासी साहित्य पाठक के अनुभव का विस्तार कर उसे उस भूगोल, समाज और इतिहास में ले जाता है, जिससे अधिकतर पाठक अपरिचित हैं। इसमें आई प्रकृति, परंपरागत प्रकृति चित्रण से भिन्न है। यह आदिवासी जीवन और संस्कृति का मूलाधार है। आदिवासी साहित्य जीवन-जगत के प्रति एक अलग नजरिया पेश करता है, इसलिए इसके मूल्यांकन में सतर्कता बरतनी होगी और साथ ही साथ इसे साहित्य की राजनीति से भी बचाना होगा। आदिवासी साहित्य के प्रति पत्रिकाओं, प्रकाशकों, और सबसे ज्यादा पाठकों का बढ़ता रुझान आशान्वित करता है।


साभार- जनसत्‍ता
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/38367-2013-02-07-05-28-28
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