पूस की एक और रात
(कहानी)
गंगा सहाय मीणा
21वीं सदी का पहला दशक बीत जाने के बाद के एक बरस का पूस का
महीना।
हफ्तेभर की कोशिश के बाद आखिरकार भूरी की सरसों भराने की बारी आ गई। रामजीलाल पटेल ने मिस कॉल करके हरकेश मास्टर को बताया, ‘माड़साब, आज रात आठ बजे से तमारो नंबरअ!’
शिक्षामित्र के रूप में हरकेश जिस गाँव में काम कर रहा था, वह गंगापुर से दो सौ किलोमीटर से ज्यादा ही होगा। वह हर शनिवार शाम अपने गाँव आ जाता था और सोमवार सुबह पाँच बजे वाली बस से चला जाता था। अर्धवार्षिक परिक्षाओं की वजह से न इतनी आसानी से छुट्टी मिल सकती थी और न ही इतनी जल्दी गाँव पहुॅंचा जा सकता था। समझ नहीं पाया, हां करे या ना! दस दिन बाद सर्दी की छुट्टियों में तो गाँव जाना ही था लेकिन तब तक देर हो जाएगी।
उसने भूरी को पड़ौसी के मोबाइल पर फोन मिलाकर राय ली तो भूरी ने थोड़े संकोच के साथ ‘हां’ कर दिया। हरकेश ने अपनी जीजी से भी बात की और इस बिंदु पर सहमति बनी कि सरसों आज ही भराएँगे लेकिन कूड मोड़ने के लिए एक मजूर भी कर लेंगे।
भूरी मजूर कर आई। तीन सौ रुपये में मजूर हुआ। आधी रात के लिए।
भूरी ने दोनों बच्चों को खाना खिलाकर सुलाया। भैंस और पडिया को साँदी-पाणी दिया। दोनों, सास-बहू, ने खाना खाया। इतने में रमेश बैरवा भी आ पहुँचा। भूरी ने एक शॉल और उसकी सास ने एक पुराना कंबल लिया जो हरकेश के पिताजी कुंभ के मेले से लाये थे। एक टॉर्च और गैस लेकर तीनों बगीचे वाले खेत की ओर चले।
चार-पाँच साल पहले तक बगीचे वाले कुएँ में काम लायक पाणी हो जाता था। दस-बारह साल पहले तो यहां पाणी की कोई कमी नहीं थी। सवाई माधोपुर-करौली जिले राजस्थान में भले ही आते हों, लेकिन यहां पाणी की किल्लत नहीं रही। पाँचना बाँध से कई नहरें निकल रही थीं। ज्यादातर गाँवों में बड़े तालाब थे जो लगभग हर साल भर जाया करते थे। गंगापुर से करौली जाने वाली सड़क पर बसे, सरसों के बीज के लिए प्रसिद्ध, मीणा पहाड़ी गाँव में उन दिनों दस से पंद्रह हाथ पर कुओं में पाणी था। सब लोग लेज -बाल्टी लेकर कुओं पर नहाने जाते थे। अब गाँव में नल लग गए और कुंडे खुद गए। सब घर पर ही नहाते हैं। पूरा गाँव कीचड़भरी नाली में तब्दील हो गया है। गाँव के मुख्य रास्तों पर सीमेंट की सड़क तो बन गई लेकिन नालियां नहीं बनाई गईं। सड़क पर बढ़ रहे कीचड़ ने शहरों के बाशिंदे विभिन्न प्रजातियों के मच्छरों को न्योता दिया और लुभाया है। वैसे भी अब शहरों में मच्छरों का गुजारा इतना आसान नहीं रहा।
जब कुओं में पाणी था तो गाँव में सिंचाई भी काफी आसान थी। हर कुटुंब के हर इलाके के खेतों के साथ कुएँ हैं। बुजुर्गों ने इन कुओं को खुद ही खोदा और बाँधा था। पानी कम होने पर वे खुद ही बल्ली लगा लेते थे। बगीचे वाले कुएँ को खोदने और बाँधने में हरकेश के पिताजी ने सबसे ज्यादा काम किया था। खुद महीनेभर तक कुएँ में उतरे रहे। कुओं में ऊपर पानी होने का फायदा यह था कि साधारण इंजनों द्वारा आसानी से सिंचाई हो जाती थी जिसमें प्रतिघंटे औसतन एक लीटर डीजल जलता था। यानी किफायती और आसान। सरसों को चाहिए भी कितने पानी- एक या दो। इंजनों से पहले नाव चलाकर सिंचाई की जाती थी जो काफी मुश्किल थी। उसमें लगी मेहनत को याद कर बड़े-बूढ़े आज भी सिहर उठते हैं।
मीणा पहाड़ी के दक्षिण पूर्व में एक पहाड़ी थी और उसके थोड़ा आगे लंबा डूँगर। डूँगर, गाँव और खेतों से निकलने वाले बारिश के पानी के सारे रास्ते आपस में मिलते हुए तालाब पर पहुँचते थे। इससे लगभग एक किलोमीटर लंबा-चैड़ा तालाब हर साल भर जाता था। एक बार तो तालाब टूटने की नौबत आ गई। आधी रात को जाकर गाँव वालों ने समय रहते कोने वाली मोरी खोल दी और तालाब टूटने से बचा लिया।
धीरे-धीरे इस जनजाति बहुल गाँव में भी लोगों में स्वार्थपरता घर करती गई और उन्होंने अपने खेत के पास से गुजरने वाले बरसाती नाले की तरफ अपने-अपने खेतों को बढ़ाना शुरू किया, अपने खेतों का पानी मजबूत डौड़ बनाकर अपने खेतों में ही रोक लिया तथा जिन लोगों के खेतों में होकर पानी बड़े तालाब तक पहुँचता था, उन्होंने भी डौड़ कर दी। फलस्वरूप तालाब का भरना बंद हो गया। जिससे पूरे गाँव में जलस्तर नीचे जाता रहा और एक दशक से भी कम समय में भरे रहने वाले कुएँ हमेशा के लिए सूख गए।
इसके बाद गाँव के बड़े किसानों ने बोरिंग करना शुरू किया। बोरिंग से सिंचाई महँगी हुई और मुश्किल भी। एक बोर करने में तीन-चार लाख तक का खर्च सामान्य था। उस पर बोर फेल होने का खतरा अलग।
परिणाम यह हुआ कि बोर मालिकों ने दूसरे किसानों के खेतों में सिंचाई कर इस खर्च को निकालना शुरू कर दिया। गाँव में कुल मिलाकर आधा दर्जन ही बोर थे इसलिए किसानों की भी मजबूरी थी उनसे महॅंगी रेट पर पाणी लेने की। बोर मालिक दिन में अपने खेतों को भराते थे और रात में दूसरे किसानों को पाणी देते। हरकेश और रामजीलाल के बीच चार सौ रुपये प्रतिघंटे की रेट तय हुई थी।
हरकेश के पिताजी को गुजरे 15 साल हो गए थे। पिताजी के जाने के बाद जीजी भी तेजी से बूढ़ी हुई। उनके पास कुल साढ़े पाँच बीघा जमीन थी। बहन की शादी करने में चार लाख से ऊपर कर्ज हो गया था। दो रुपया सैंकड़ा की कटतीमिती की ब्याज दर ने पूरे परिवार का हाजमा खराब कर रखा था। जमीन में गुजारा संभव नहीं था, इसलिए पहले हरकेश की जीजी और अब भूरी मिस्टाॅल पर काम करती थी। दोनों ने मजूरी भी खूब की है। जीजी का शरीर अब मजूरी करने लायक नहीं रहा। वह थोड़ा-बहुत बच्चों और घर का काम देख लेती थी। छोटे भाई को हरकेश ने बी.ए. के बाद जयपुर तैयारी करने भेज दिया। घर में आदमी कम होने की वजह से बीच-बीच में हरकेश के परिवार को भी मजूर की जरूरत पड़ जाती थी। खासतौर पर लावणी के दिनों में।
बगीचे वाला खेत एक बीघा से कुछ कम ही था। हरकेश सबको पौण बीघा बताता। नाप के हिसाब से यह सौलह बिसवा था।
भूरी पहुँचते ही झम्मन को पाणी चालू करने के लिए कह आई। रामजीलाल पटेल ने बोर पर झम्मन को रखा हुआ था। झम्मन के पिताजी ने रामजीलाल पटेल से बेटी की शादी और छोटे बेटे को बी. एड. कराने के लिए कर्ज लिया था, जो वह अभी तक चुका नहीं पाया था।
भूरी की सास खेत किनारे बगीचे की डौड़ पर कंबल ओढ़कर बैठ गई। साढे नौ बजे बोर चालू हुआ। भूरी ने गैस क्यारी के पास वाली डौड़ पर रख दिया। भूरी और रमेश सरसों के खेत में कूड मोड़ने लगे।
उतरते पूस की काली रात थी। थोड़ा कोहरा भी था। ठंड जोरों पर थी। शाम से पर्वाई पौन चल रही थी। भूरी पानी में उतरी हुई थी। उसकी सास बीच-बीच में मठार देती थी। भूरी रमेश से कहती, ‘रमेश, देखतो रह्ज्यो। हड़ाई भर जाय तो बता दीज्यौ। मैं पाणी दूसरी हड़ाई में मोड़ दूंगी।’
दो घंटे में लगभग आधा खेत भर गया। रमेश बीच-बीच में बीड़ी जलाकर सर्दी से टक्कर ले रहा था। भूरी सलवार कुर्ते में थी जो उसने हरकेश के साथ नौकरी पर जाने के लिए सिलवाये थे। उसकी सलवार घुटने से थोड़ा ऊपर तक भीगी हुई थी। उसने टाॅर्च गले में लटका रखी थी।
सहसा भूरी को महसूस हुआ कि ये वाली क्यारी भरने में कुछ ज्यादा वक्त लग रहा है। उसने रमेश से कहा कि ‘देख कहीं पाणी फूट्यो तो नीय’? रमेश ने हर तरफ देखा लेकिन कहीं पाणी फूटा नहीं मिला।
भूरी रमेश के जवाब से संतुष्ट नहीं हुई। टाॅर्च से उसने खुद जाँच की। पाणी कहीं फूटा नहीं था। उसने गौर से बरे का भी निरीक्षण किया। वह भी नहीं फूटा था। फिर उसने पाइप के मुँह पर टाॅर्च डालकर देखा। वह देखकर सन्न रह गई। उसने देखा कि पानी की चाल आधी से कम हो गई है। उसे ये झम्मन की शरारत महसूस हुई। वह पाणी पर रमेश को लगाकर सीधे रास्ते से दौड़ती हुई बोर पर गई। देखा, झम्मन कमरेनुमा तिवारे में सो रहा था और बोर में पानी पूरा आ रहा था।
भूरी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था और कुल पलों तक वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़ी रही। अचानक उसके दिमाग में कुछ कौंधा। उसने पाइप के साथ-साथ खेत की ओर चलना शुरू किया। बोर से खेत की दूरी एक किलोमीटर से ऊपर ही थी। भूरी पाइप के किनारे-किनारे चलती गई और बीच-बीच में पाइप को छूकर देखती रही। पानी पूरा आ रहा था।
भूरी ने जर्सी पहनी हुई थी और शाॅल लपेटा हुआ था लेकिन ठिठुरनभरी हवा ने उसे कँपकँपाना शुरू कर दिया। घुटने से ऊपर तक भीगी सलवार पर लग रही हवा शीत का क्षेत्र विस्तार कर रही थी। वह खेत के एकदम करीब पहुंच गई लेकिन उसे पाइप में कोई दिक्कत नहीं मिली।
‘छपाक’ की आवाज के साथ अचानक उसका पाँव पाणी में पड़ा। वह रुकी। उसने टाॅर्च जलाकर देखा। भैरो के खेत में पाणी भरा हुआ था। उसको समझते देर नहीं लगी। थोड़ी आगे पाइप फटा हुआ था। भूरी समझ नहीं पाई कि पाइप कैसे फटा होगा और कैसे बहते पाणी को रोके! एक बार तो उसने सोचा वापस जाकर झम्मन को जगाए और पाणी बंद करने के लिए कहे। लेकिन अगले ही पल उसे खयाल आया कि पाणी बंद करवा दिया तो उनका खेत कैसे भरेगा! और पता चला फिर नंबर ही न आए!
उसने सिर और कानों को ढककर ओढ़ा हुआ शाॅल उतारा और टूटा पाइप बांधने में जुट गई। बाँधने की प्रक्रिया में पाणी की पिचकारियाँ उसको भिगो रही थी। उसने कुछ मिनटों की मशक्कत के बाद टूटे हुए पाइप को कुछ इस तरह से बाँध दिया कि उसमें से पानी बहना लगभग बंद हो गया। बस शाॅल में से रिस-रिसकर थोड़ा पानी निकल रहा था।
जब पाइप की मरम्मत हो गई तो भूरी को अहसास हुआ, वह पूरी तरह भीग चुकी थी। वह ज्यों-ज्यों खेत की तरफ बढ़ रही थी, पर्वाई पौन उसकी हड्डियों तक पहुँचती चली जा रही थी। जर्सी भीग चुकी थी और बालों में भी पाणी पहुँच चुका था। उसने खेत में पहुँचकर देखा, पाणी की चाल ठीक थी।
भूरी की बूढ़ी सास खुद को जगाए रखने के लिए आग जलाकर बैठी थी और कोई मीणावाटी गीत गुनगुना रही थी। रमेश बीड़ी पी रहा था। उसे रमेश पर गुस्सा आया कि पैसे तो पूरे ले लेगा लेकिन ठीक से कूड नहीं मोड़ रहा।
आधी से ज्यादा रात जा चुकी थी। जब भूरी को असहनीय ठंड महसूस
हुई तो वह अपनी सास के पास आग तापने पहुंच गई। अब खेत थोड़ा ही बचा था। लेकिन शीत
खाल, माँस और हड्डियों को चीरता हुआ बदन के आर-पार हो रहा था। सास के पास सुलगती आग
में उसे सुकून महसूस होने लगा। उसे याद आई वे तमाम रातें जो उसने और हरकेश ने
खेतों पर कूड मोड़ते हुए बिताई थी, दोनों ने एक-दूसरे को गरम किया था और सुबह संतुष्ट होकर घर
लौटे थे।
आग के पास बैठने से भूरी को थोड़ी राहत जरूर मिली लेकिन इससे उसके शरीर में आलस छाने लगा। उसकी हाथों और पाँवों की अंगुलियाँ सूज गई थी। उनमें खून जम गया। उसने आग में अपने हाथ-पाँव इतने करीब से सेंके कि ऊपर से खाल जलने को हो गई और अंदर खून बर्फ बना हुआ था, जैसे गीले आटे की रोटी को तेज आँच पर सेंकने पर होता है।
उसका दोबारा पानी में उतरने का साहस नहीं हो रहा था लेकिन जैसे ही उसे चार सौ रुपये घंटे का अहसास हुआ, वह पानी में उतर गई और किसी युद्ध में अपने पक्ष के बचे आखिरी योद्धा की भाँति तब तक कूड मोड़ती रही जब तक खेत भर नहीं गया।
लगभग तीन बजे थे। उसकी बूढ़ी सास बुझ चुके अलाव के पास आम
के पेड़ से पीठ लगाकर ऊँघ रही थी। रमेश ने घर लौटने की तैयारी के रूप में आखिरी
बीड़ी जला ली थी। भूरी भीगे कपड़ों में पाणी बंद कराने के लिए बोर की तरफ बढ़ी चली
जा रही थी।
(साभार- परिकथा (नवलेखन अंक) जनवरी-फरवरी 2015)
3 Responses to “पूस की एक और रात (कहानी)”
LAJAWAB SIR.........APNI DEKHI OR MAHSUS KI HUI KAHANI KABHI PANNO PE AAYEGI VISWAS NAHI THA................LIKHNE KE LIYE DANYWAD SIR...........
LAJAWAB SIR......APNI DEKHI HUI KAHANI KABHI PANNO PER AAYEGI VISWAS NAHI THA........PANNE PER UTARNE KE LIYE DANYAWAD SIR......
हृदयस्पर्शी ! किसान की जिन्दगी ही ऐसी होती है ...मैंने भी काफी महसूस किया है.
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