संविधान और आदिवासी भाषाएं
जयपाल सिंह
(भारत की संविधान सभा में 14 सितंबर 1949 को दिया गया भाषण)
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद: डाॅ. गंगा सहाय मीणा)
अध्यक्ष महोदय, मुझे लगता है कि मैं अपना काम ठीक ठंग से पूरा नहीं कर रहा होऊंगा अगर मैं सदन से यह अनुरोध न करूं कि अनुसूची 7-ए में कुछ आदिवासी भाषाओं को भी शामिल किया जाए, जो थोड़े से नहीं बल्कि लाखों लोगों द्वारा बोली जाती हैं। मेरे संशोधन संख्या 272 में लिखा है:
‘‘कि प्रस्तावित नई अनुसूची 7-ए में चौथी सूची के संशोधन संख्या 65 में निम्न नई मदें जोड़ दी जाएं-
14. मुंडारी
15. गोंडी
16. उरांव’’
श्रीमान, अगर आप पिछली जनगणना में अनुसूचित जातियों की सूची देखें तो आप पायेंगे कि वहां 176 का उल्लेख है। यह सच है कि उनकी 176 भाषाएं नहीं हैं। उनमें से कुछ उपभाषाएं हो सकती हैं या कुछ विभिन्न क्षेत्रों में थोड़ी-थोड़ी अलग हो सकती हैं। आप मुझसे पूछ सकते हैं कि मैंने 176 में सिर्फ 3 को ही क्यों लिया है! महोदय, मैं नहीं चाहता कि अनुसूची में बहुत अधिक भाषाओं का भार हो, इसलिए मैंने केवल तीन महत्वपूर्ण भाषाओं को चुना है। मेरे संशोधन में उल्लिखित पहली भाषा मुंडारी के बारे में मैं कहना चाहूंगा कि मैंने संथाली का उल्लेख नहीं किया क्योंकि मुंडारी उन भाषाओं का वंशनाम है जिन्हें कभी आस्ट्रिक कहा जाता था और कभी मान-खमेर। पिछली जनगणना में यह दर्ज है कि 40 लाख लोग मुंडारी भाषा बोलते थे। मैं देखता हूं कि इस सूची में ऐसी भाषाएं शामिल की गई हैं जिन्हें बोलने वाले मुंडारी भाषियों से कम हैं।
इसी प्रकार उरांवों को रखने के पीछे मेरा मकसद है कि उरांव हमारे देश का कोई बहुत छोटा समुदाय नहीं है। यहां लगभग ग्यारह लाख उरांव हैं। हां, अगर इनकी भाषा को अनुसूची में कन्नड़ भाषा के अंतर्गत जगह मिल जाती है, अगर वास्तव में कन्नड़ अपनी भाषा में उरांव को शामिल कर लेते हैं, और मेरे मित्र बोनीफास लकड़ा, जो वह भाषा बोलते हैं, को यह संतोष हो जाता है तो मैं ‘मद 16 उरांव’ को वापस ले लूंगा।
चूंकि गोंडी बोलने वालों की संख्या 32 लाख है इसलिए मैंने मांग की है कि यह भी अनुसूची में होनी चाहिए। इन तीनों भाषाओं को अनुसूची में स्वीकार करने के सदन के समक्ष मेरे प्रस्ताव के पीछे मुख्य कारण यह है कि मुझे लगता है कि इन्हें स्वीकार करके हम प्राचीन इतिहास की खोज के कार्य को प्रोत्साहित करेंगे।
किसी न किसी रूप में सदन इस वक्त दो वर्गों में विभाजित है- शुद्ध हिंदीवादी और दूसरे जो उदारता से यह स्वीकार करते हैं कि भाषा का विकास समय पर छोड़ देना चाहिए। मैं कहना चाहता हूं कि मैं वही स्वीकार करने के लिए तैयार हूं जो सदन तय कर देगा। लेकिन मैं कई लोगों में भाषाई शुद्धता के प्रति उपजी कट्टरता के एकदम खिलाफ हूं। भाषा क्या है? भाषा वह है जो बोली जाती है। मेरे विचार से हमारा यह सोचना अवनतिसूचक है कि हम बोली जाने वाली भाषा का भावनावश सौ फीसदी संस्कृतीकरण कर उसे उन्नत बना सकते हैं। मैं संस्कृत का प्रशंसक हूं। मैं हिंदी ही बोलता हूं जैसी कि मेरे प्रांत बिहार में बोली जाती है, लेकिन वह ऐसी हिंदी नहीं है जैसी कि मेरे मित्र मुझसे यहां स्वीकार कराना चाहते हैं। वही हिंदी रखिए जो सब जगह बोली जाती है। उसे अन्य भाषाओं से शब्द लेकर उन्नति करने दीजिए। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि यदि हिंदी या हिंदुस्तानी में अन्य भाषाओं से शब्द आ जायेंगे तो वह गरीब हो जाएगी। भाषा का विकास और उन्नति तभी होती है जब उसमें अन्य भाषाओं से शब्द लेने का साहस हो। मुझे कोई आपत्ति नहीं है आप उसे हिंदुस्तानी कहिए या हिंदी। आप जो तय करेंगे, मैं उसे सीख लूंगा। आदिवासी उसे सीख लेंगे। वे द्विभाषी या त्रिभाषी होते हैं। पश्चिम बंगाल में संथाल बंगाली भी बोलते हैं और अपनी मातृभाषा भी। आप जहां जायेंगे, यही पायेंगे कि आदिवासी अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त उस क्षेत्र की भाषा को अपना लेते हैं। यहां बिहार का एक भी सदस्य नहीं है जिसे कोई आदिवासी भाषा सीखनी पड़ी हो। क्या मेरे मित्र पंडित रविशंकर शुक्ल बताने का कष्ट करेंगे कि उन्होंने गोंडी भाषा सीखने की जहमत उठाई जबकि मध्य प्रांत में 32 लाख गोंड रहते हैं? क्या किसी बिहारी ने संथाली भाषा सीखने की कोशिश की जबकि आदिवासियों को अन्य भाषाएं सीखने के लिए कहा जाता है? यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हम अन्य भाषाएं भी बोल सकते हैं।
मेरे विचार से कुछ उलट भी होना चाहिए। सभी में कुछ सहिष्णुता की भावना होनी चाहिए, हिंदीभाषी प्रांतों को एक अन्य भाषा भी सीखनी चाहिए। हमें ऐसी भावना दिखाने की जरूरत है। एक खांचें में बंधने और यह कहने से बचना चाहिए कि शेष देश को हमारी भाषा सीखनी ही होगी क्योंकि हम कुछ नहीं सीखेंगे।
महोदय, जैसा कि मैंने कहा, हमें अभी भारत के बूढ़े पुरातत्व की खोज करनी है। हमें प्राचीन भारत के बारे में बहुत कम पता है, और प्राचीन भारत के बारे में जानने का एकमात्र उपाय यही है कि उन भाषाओं को सीखा जाए जो इस देश में भारतीय-आर्यों के आने से पहले प्रचलित थीं। तभी हम जान सकेंगे कि प्राचीन काल में भारत कैसा था। मैं जानता हूं कि मेरे दोस्त मुंशीजी का खयाल है कि जब मैं ‘आदिवासी’ पद का प्रयोग करता हूं, मेरे मन में आदिवासी गणराज्यों का विचार रहता है। वे शायद सोचते हैं कि मैं इस संशोधन द्वारा तीन भाषिक गणराज्य स्थापित करने की कोशिश कर रहा हूं। महोदय, ऐसी कोई बात नहीं है। संथाली को लीजिए। यदि मेरा संशोधन स्वीकार हो जाता है तो उसका प्रभाव पश्चिम बंगाल, असम, निःसंदेह बिहार और उड़ीसा पर पड़ेगा। गोंडी को लीजिए। गोंडी मुख्यतः मध्य प्रांत में बोली जाती है लेकिन इसका विस्तार हैदराबाद तक है, थोड़ी सी मद्रास में और जरा सी बंबई में भी है। इनमें से कोई भी इलाका अलग-थलग नहीं है। वे दूरस्थ प्रांतों तक फैले हुए हैं। कुल मिलाकर मैं केवल यही कहना चाहता हूं कि इन भाषाओं को प्रोत्साहित और विकसित किया जाए जिससे कि वे स्वयं उन्नत बनें और अपनी उन्नति से वे देश की राष्ट्रभाषा को भी उन्नत बना सकें। मैं नहीं चाहता कि हम भाषाई साम्राज्यवाद के शिकार हो जाएं। मैं जहां भी गया, वहां की भाषा को सीखने में मुझे आनंद आया।
जहां तक लिपि का प्रश्न है, मेरे बहुत स्पष्ट विचार हैं और उनके कारण भी हैं। मुझे लगता है कि हम देवनागरी को स्वीकार करके गलत कर रहे हैं। मैं उस विचार का समर्थक हूं, पिछले तीस वर्षों से डाॅ. सुनीति कुमार चटर्जी जिसकी वकालत कर रहे हैं कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय ध्वनि-प्रणाली होनी चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय ध्वनि-प्रणाली का अर्थ यह है कि मैं तमिल वैसे ही बोल सकता हूं जैसे कोई तमिलभाषी बोलता है। मैं कन्नड़ भी वैसे ही उच्चारित कर सकता हूं जैसे कोई कन्नड़भाषी उच्चारित करता है। किसी भाषा को जाने बिना ही मैं उसे पढ़ सकता हूं और उसका वैसा ही उच्चारण कर सकता हूं जैसा उस भाषा वाला करता है। लेकिन मैं जानता हूं कि सदन इसे स्वीकार नहीं करेगा। जब तक मेरे मित्रों में भय-बोध है, मुझे डर है कि उनसे ऐसी लिपि स्वीकार करने का अनुरोध करना बेकार है जो दूसरों को सिखाने के लिए ही नहीं, खुद सीखने के लिए भी व्यावहारिक हो।
इसका वाणिज्यिक पहलू भी है। यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि देवनागरी लिपि छपाई मशीन से जुड़े लोगों के लिए एक सरदर्द रही है। जितने समय में आप अंग्रेजी में पंद्रह-बीस हजार प्रतियां छाप सकते हैं उतने समय में आप देवनागरी में इसका दसवां हिस्सा भी नहीं छाप सकते। यह इस मामले का वाणिज्यिक और व्यावहारिक पहलू है। मैं भावुकता की बात नहीं कर रहा। मेरे विचार से देश के लिए ऐसी कोई बात करना समझदारी नहीं है जो इसकी प्रगति में बाधक हो। देवनागरी स्वीकार करके हम अपना रास्ता खुद रोक रहे हैं; हम तब तक तेज गति से आगे नहीं बढ़ सकेंगे जब तक कि मेरे मित्र ऐसी मशीनें नहीं बना लें जो अंतर्राष्ट्रीय वर्णमाला के जैसे तेज गति से चले या उससे जरा ही कम गति से चले।
महोदय, ज्यादा कुछ नहीं कहना है। मुझे बस यही अनुरोध करना है कि देश के प्राचीनतम लोगों की भाषाओं को इस अनुसूची में सम्मानित स्थान मिले। मुझे ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। मैं दोनों ओर के सदस्यों को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मैं इस भाषा और लिपि के झगड़े में नहीं पड़ना चाहता। सदन जो भी स्वीकार करेगा, मैं और मेरे लोग उसे अपना लेंगे, और इसी भावना से मैं सदन से कहता हूं कि मेरे संशोधन को स्वीकार कर सहिष्णुता दिखाए।
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