संविधान और आदिवासी भाषाएं

संविधान और आदिवासी भाषाएं
जयपाल सिंह
(भारत की संविधान सभा में 14 सितंबर 1949 को दिया गया भाषण)
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद: डाॅ. गंगा सहाय मीणा)

अध्यक्ष महोदय, मुझे लगता है कि मैं अपना काम ठीक ठंग से पूरा नहीं कर रहा होऊंगा अगर मैं सदन से यह अनुरोध न करूं कि अनुसूची 7-ए में कुछ आदिवासी भाषाओं को भी शामिल किया जाए, जो थोड़े से नहीं बल्कि लाखों लोगों द्वारा बोली जाती हैं। मेरे संशोधन संख्या 272 में लिखा है:
‘‘कि प्रस्तावित नई अनुसूची 7-ए में चौथी सूची के संशोधन संख्या 65 में निम्न नई मदें जोड़ दी जाएं-
14. मुंडारी
15. गोंडी
16. उरांव’’
श्रीमान, अगर आप पिछली जनगणना में अनुसूचित जातियों की सूची देखें तो आप पायेंगे कि वहां 176 का उल्लेख है। यह सच है कि उनकी 176 भाषाएं नहीं हैं। उनमें से कुछ उपभाषाएं हो सकती हैं या कुछ विभिन्न क्षेत्रों में थोड़ी-थोड़ी अलग हो सकती हैं। आप मुझसे पूछ सकते हैं कि मैंने 176 में सिर्फ 3 को ही क्यों लिया है! महोदय, मैं नहीं चाहता कि अनुसूची में बहुत अधिक भाषाओं का भार हो, इसलिए मैंने केवल तीन महत्वपूर्ण भाषाओं को चुना है। मेरे संशोधन में उल्लिखित पहली भाषा मुंडारी के बारे में मैं कहना चाहूंगा कि मैंने संथाली का उल्लेख नहीं किया क्योंकि मुंडारी उन भाषाओं का वंशनाम है जिन्हें कभी आस्ट्रिक कहा जाता था और कभी मान-खमेर। पिछली जनगणना में यह दर्ज है कि 40 लाख लोग मुंडारी भाषा बोलते थे। मैं देखता हूं कि इस सूची में ऐसी भाषाएं शामिल की गई हैं जिन्हें बोलने वाले मुंडारी भाषियों से कम हैं।
इसी प्रकार उरांवों को रखने के पीछे मेरा मकसद है कि उरांव हमारे देश का कोई बहुत छोटा समुदाय नहीं है। यहां लगभग ग्यारह लाख उरांव हैं। हां, अगर इनकी भाषा को अनुसूची में कन्नड़ भाषा के अंतर्गत जगह मिल जाती है, अगर वास्तव में कन्‍नड़ अपनी भाषा में उरांव को शामिल कर लेते हैं, और मेरे मित्र बोनीफास लकड़ा, जो वह भाषा बोलते हैं, को यह संतोष हो जाता है तो मैं ‘मद 16 उरांव’ को वापस ले लूंगा।
चूंकि गोंडी बोलने वालों की संख्या 32 लाख है इसलिए मैंने मांग की है कि यह भी अनुसूची में होनी चाहिए। इन तीनों भाषाओं को अनुसूची में स्वीकार करने के सदन के समक्ष मेरे प्रस्ताव के पीछे मुख्य कारण यह है कि मुझे लगता है कि इन्हें स्वीकार करके हम प्राचीन इतिहास की खोज के कार्य को प्रोत्साहित करेंगे। 
किसी न किसी रूप में सदन इस वक्त दो वर्गों में विभाजित है- शुद्ध हिंदीवादी और दूसरे जो उदारता से यह स्वीकार करते हैं कि भाषा का विकास समय पर छोड़ देना चाहिए। मैं कहना चाहता हूं कि मैं वही स्वीकार करने के लिए तैयार हूं जो सदन तय कर देगा। लेकिन मैं कई लोगों में भाषाई शुद्धता के प्रति उपजी कट्टरता के एकदम खिलाफ हूं। भाषा क्या है? भाषा वह है जो बोली जाती है। मेरे विचार से हमारा यह सोचना अवनतिसूचक है कि हम बोली जाने वाली भाषा का भावनावश सौ फीसदी संस्कृतीकरण कर उसे उन्नत बना सकते हैं। मैं संस्कृत का प्रशंसक हूं। मैं हिंदी ही बोलता हूं जैसी कि मेरे प्रांत बिहार में बोली जाती है, लेकिन वह ऐसी हिंदी नहीं है जैसी कि मेरे मित्र मुझसे यहां स्वीकार कराना चाहते हैं। वही हिंदी रखिए जो सब जगह बोली जाती है। उसे अन्य भाषाओं से शब्द लेकर उन्नति करने दीजिए। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि यदि हिंदी या हिंदुस्तानी में अन्य भाषाओं से शब्द आ जायेंगे तो वह गरीब हो जाएगी। भाषा का विकास और उन्नति तभी होती है जब उसमें अन्य भाषाओं से शब्द लेने का साहस हो। मुझे कोई आपत्ति नहीं है आप उसे हिंदुस्तानी कहिए या हिंदी। आप जो तय करेंगे, मैं उसे सीख लूंगा। आदिवासी उसे सीख लेंगे। वे द्विभाषी या त्रिभाषी होते हैं। पश्चिम बंगाल में संथाल बंगाली भी बोलते हैं और अपनी मातृभाषा भी। आप जहां जायेंगे, यही पायेंगे कि आदिवासी अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त उस क्षेत्र की भाषा को अपना लेते हैं। यहां बिहार का एक भी सदस्य नहीं है जिसे कोई आदिवासी भाषा सीखनी पड़ी हो। क्या मेरे मित्र पंडित रविशंकर शुक्ल बताने का कष्ट करेंगे कि उन्होंने गोंडी भाषा सीखने की जहमत उठाई जबकि मध्य प्रांत में 32 लाख गोंड रहते हैं? क्या किसी बिहारी ने संथाली भाषा सीखने की कोशिश की जबकि आदिवासियों को अन्य भाषाएं सीखने के लिए कहा जाता है? यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हम अन्य भाषाएं भी बोल सकते हैं।
मेरे विचार से कुछ उलट भी होना चाहिए। सभी में कुछ सहिष्णुता की भावना होनी चाहिए, हिंदीभाषी प्रांतों को एक अन्य भाषा भी सीखनी चाहिए। हमें ऐसी भावना दिखाने की जरूरत है। एक खांचें में बंधने और यह कहने से बचना चाहिए कि शेष देश को हमारी भाषा सीखनी ही होगी क्योंकि हम कुछ नहीं सीखेंगे।
महोदय, जैसा कि मैंने कहा, हमें अभी भारत के बूढ़े पुरातत्व की खोज करनी है। हमें प्राचीन भारत के बारे में बहुत कम पता है, और प्राचीन भारत के बारे में जानने का एकमात्र उपाय यही है कि उन भाषाओं को सीखा जाए जो इस देश में भारतीय-आर्यों के आने से पहले प्रचलित थीं। तभी हम जान सकेंगे कि प्राचीन काल में भारत कैसा था। मैं जानता हूं कि मेरे दोस्त मुंशीजी का खयाल है कि जब मैं ‘आदिवासी’ पद का प्रयोग करता हूं, मेरे मन में आदिवासी गणराज्यों का विचार रहता है। वे शायद सोचते हैं कि मैं इस संशोधन द्वारा तीन भाषिक गणराज्य स्थापित करने की कोशिश कर रहा हूं। महोदय, ऐसी कोई बात नहीं है। संथाली को लीजिए। यदि मेरा संशोधन स्वीकार हो जाता है तो उसका प्रभाव पश्चिम बंगाल, असम, निःसंदेह बिहार और उड़ीसा पर पड़ेगा। गोंडी को लीजिए। गोंडी मुख्यतः मध्य प्रांत में बोली जाती है लेकिन इसका विस्तार हैदराबाद तक है, थोड़ी सी मद्रास में और जरा सी बंबई में भी है। इनमें से कोई भी इलाका अलग-थलग नहीं है। वे दूरस्थ प्रांतों तक फैले हुए हैं। कुल मिलाकर मैं केवल यही कहना चाहता हूं कि इन भाषाओं को प्रोत्साहित और विकसित किया जाए जिससे कि वे स्वयं उन्नत बनें और अपनी उन्नति से वे देश की राष्ट्रभाषा को भी उन्नत बना सकें। मैं नहीं चाहता कि हम भाषाई साम्राज्यवाद के शिकार हो जाएं। मैं जहां भी गया, वहां की भाषा को सीखने में मुझे आनंद आया। 
जहां तक लिपि का प्रश्न है, मेरे बहुत स्पष्ट विचार हैं और उनके कारण भी हैं। मुझे लगता है कि हम देवनागरी को स्वीकार करके गलत कर रहे हैं। मैं उस विचार का समर्थक हूं, पिछले तीस वर्षों से डाॅ. सुनीति कुमार चटर्जी जिसकी वकालत कर रहे हैं कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय ध्वनि-प्रणाली होनी चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय ध्वनि-प्रणाली का अर्थ यह है कि मैं तमिल वैसे ही बोल सकता हूं जैसे कोई तमिलभाषी बोलता है। मैं कन्नड़ भी वैसे ही उच्चारित कर सकता हूं जैसे कोई कन्नड़भाषी उच्चारित करता है। किसी भाषा को जाने बिना ही मैं उसे पढ़ सकता हूं और उसका वैसा ही उच्चारण कर सकता हूं जैसा उस भाषा वाला करता है। लेकिन मैं जानता हूं कि सदन इसे स्वीकार नहीं करेगा। जब तक मेरे मित्रों में भय-बोध है, मुझे डर है कि उनसे ऐसी लिपि स्वीकार करने का अनुरोध करना बेकार है जो दूसरों को सिखाने के लिए ही नहीं, खुद सीखने के लिए भी व्यावहारिक हो। 
इसका वाणिज्यिक पहलू भी है। यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि देवनागरी लिपि छपाई मशीन से जुड़े लोगों के लिए एक सरदर्द रही है। जितने समय में आप अंग्रेजी में पंद्रह-बीस हजार प्रतियां छाप सकते हैं उतने समय में आप देवनागरी में इसका दसवां हिस्सा भी नहीं छाप सकते। यह इस मामले का वाणिज्यिक और व्यावहारिक पहलू है। मैं भावुकता की बात नहीं कर रहा। मेरे विचार से देश के लिए ऐसी कोई बात करना समझदारी नहीं है जो इसकी प्रगति में बाधक हो। देवनागरी स्वीकार करके हम अपना रास्ता खुद रोक रहे हैं; हम तब तक तेज गति से आगे नहीं बढ़ सकेंगे जब तक कि मेरे मित्र ऐसी मशीनें नहीं बना लें जो अंतर्राष्ट्रीय वर्णमाला के जैसे तेज गति से चले या उससे जरा ही कम गति से चले।
महोदय, ज्यादा कुछ नहीं कहना है। मुझे बस यही अनुरोध करना है कि देश के प्राचीनतम लोगों की भाषाओं को इस अनुसूची में सम्मानित स्थान मिले। मुझे ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। मैं दोनों ओर के सदस्यों को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मैं इस भाषा और लिपि के झगड़े में नहीं पड़ना चाहता। सदन जो भी स्वीकार करेगा, मैं और मेरे लोग उसे अपना लेंगे, और इसी भावना से मैं सदन से कहता हूं कि मेरे संशोधन को स्वीकार कर सहिष्णुता दिखाए।

'पूस की एक और रात' : प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली कहानी

प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली कहानी
रमेश उपाध्‍याय

अद्भुत संयोग है कि हाल ही में ‘पूस की एक और रात’ शीर्षक से हिंदी में दो कहानियाँ लिखी गयी हैं। एक लक्ष्मी शर्मा की, जो पिछले दिनों ‘कथादेश’ में आयी थी और दूसरी गंगा सहाय मीणा की, जो ‘परिकथा’ के प्रस्तुत नवलेखन अंक में प्रकाशित हुई है। यद्यपि दोनों कहानियों के विषय भिन्न हैं और शीर्षक के सिवा कोई और समानता उनमें नहीं है, तथापि एक ही समय में एक ही शीर्षक से दो कहानियों का लिखा जाना सिर्फ संयोग नहीं, बल्कि हिंदी कहानी में एक नये विकास तथा प्रेमचंद की यथार्थवादी कथा-परंपरा को एक बार फिर दृढ़तापूर्वक अपनाकर आगे बढ़ाने के नये संकल्प की सूचना है। यहाँ दोनों कहानियों को साथ रखकर उन पर विचार करने का अवकाश नहीं है, इसलिए मैं गंगा सहाय मीणा की कहानी पर ही बात करूँगा।

यह कहानी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ की याद दिलाती है, लेकिन यह उससे भिन्न बिलकुल आज के (इक्कीसवीं सदी के) भारत के ग्रामीण यथार्थ और किसान जीवन की और विशेष रूप से खेती-किसानी करने वाली स्त्रियों के कठिन जीवन की कहानी है। यह राजस्थान के एक जनजाति बहुल गाँव के जनजातीय किसान परिवार की कहानी है, जिसमें पिता की मृत्यु हो चुकी है, विधवा माँ बूढ़ी है, जिसके दो बेटों में से बड़ा हरकेश गाँव से दो सौ किलोमीटर दूर एक स्कूल में ‘शिक्षामित्र’ के रूप में काम करता है और उसका छोटा भाई बी.ए. करने के बाद जयपुर में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा है। हरकेश की युवा पत्नी भूरी तथा बूढ़ी माँ गाँव में खेती-बाड़ी सँभालती हैं। पहले खेतों की सिंचाई गाँव के तालाब और कुओं से होती थी और किसी किसान को पानी की किल्लत नहीं होती थी। लेकिन वर्तमान पूँजीवादी प्रपंच के चलते गाँव की परस्पर सहयोग वाली सामाजिक संरचना ध्वस्त हो गयी है, स्वार्थपरता पनप गयी है, जिसके कारण प्रकृति और पर्यावरण की भारी क्षति हुई है। तालाब का भरना बंद हो गया है, कुएँ सूख गये हैं और जमीन के अंदर गहराई तक बोरिंग करके निकाले गये पानी से खेतों को सींचने का नया चलन चल निकला है।

भारतीय कृषि व्यवस्था में पूँजीवाद के प्रसार ने प्रेमचंद के समय के भारतीय गाँवों को बिलकुल बदल दिया है। जब गाँवों में हमेशा भरे रहने वाले कुएँ हमेशा के लिए सूख गये, तो ‘‘बड़े किसानों ने बोरिंग करना शुरू किया। बोरिंग से सिंचाई महँगी हुई और मुश्किल भी। एक बोर करने में तीन-चार लाख तक का खर्च सामान्य था। उस पर बोर फेल होने का खतरा अलग। परिणाम यह हुआ कि बोर मालिकों ने दूसरे किसानों के खेतों में सिंचाई कर इस खर्च को निकालना शुरू कर दिया। गाँव में कुल मिलाकर आधा दर्जन ही बोर थे, इसलिए किसानों की भी मजबूरी थी उनसे महँगी रेट पर पानी लेने की। बोर मालिक दिन में अपने खेतों को भराते थे और रात में दूसरे किसानों को पानी देते।’’

कहानी यों है कि पूस का महीना है, जब हड्डियों तक को कँपा देने वाला जाड़ा पड़ता है। हरकेश गाँव से दो सौ किलोमीटर दूर अपनी नौकरी पर है और गाँव में उसके सरसों के खेत की भराई (सिंचाई) होनी है। उसकी पत्नी भूरी हफ्ते भर से कोशिश कर रही है कि बोर का मालिक रामजीलाल पटेल, जिसके साथ चार सौ रुपये प्रति घंटे की दर से पानी लेने का सौदा तय हो चुका है, उसके खेत के लिए पानी दे दे। आखिरकार भूरी की सरसों भराने की बारी आ जाती है और रामजीलाल मोबाइल पर ‘‘मिस कॉल करके’’ हरकेश मास्टर को बताता है कि आज रात आठ बजे उसका नंबर है। हरकेश मोबाइल पर गाँव में अपनी पत्नी और माँ से बात करता है कि सरसों आज ही भरा ली जाये। सास बूढ़ी है और भूरी अकेली यह काम कर नहीं सकती, इसलिए तीन सौ रुपये में आधी रात के लिए एक मजूर तय कर लेती है। आठ बजे से पहले वह अपने दोनों बच्चों को खाना खिलाकर सुला देती है और सास तथा मजूर के साथ एक टॉर्च और गैस लेकर खेत पर चली जाती है। भयंकर शीत की रात में वह अपने खेत की सिंचाई करती है। बोर से खेत तक आने वाले पानी के पाइप के टूट जाने पर वह अपने ओढ़े हुए शॉल को ही टूटे हुए पाइप में बाँधकर उसकी मरम्मत करती है। इस प्रक्रिया में वह शीत की रात में पानी की बौछारों में भीग भी जाती है। फिर भी वह पूरे धीरज और परिश्रम के साथ अपना काम पूरा करती है।

गंगा सहाय मीणा अगर चाहते, तो विगत बीसेक वर्षों से हिंदी कहानी में चल रही चीजों की तर्ज पर इस कहानी को एक जनजाति से संबंधित और पति से दूर गाँव में अकेली रहने वाली स्त्री की कहानी के रूप में लिखकर मजे में जातिवादी या देहवादी किस्म की कहानी बना सकते थे, लेकिन उन्होंने इसे परिवार और खेती को अकेले अपने दम पर सँभालने वाली एक किसान स्त्री की कहानी के रूप में लिखकर सचेत रूप से प्रेमचंद की यथार्थवादी कथा-परंपरा को आगे बढ़ाने का नया प्रयास किया है। कहानी का शीर्षक प्रेमचंद के समय के किसान जीवन के यथार्थ की याद दिलाता है, लेकिन वे कहानी के पहले ही वाक्य में कहानी का ‘काल’ स्पष्ट रूप से बताकर (कि यह ‘‘इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत जाने के बाद के एक बरस के पूस के महीने’’ की कहानी है) पाठक को सचेत कर देते हैं कि यह हमारे बिलकुल आज के समय के यथार्थ की कहानी है। यह समय निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण का समय है, जिसमें गाँव का और किसान जीवन का यथार्थ बिलकुल बदल गया है।

यह एक नया यथार्थ है। ग्रामीण जीवन और कृषि कर्म में कई नयी चीजें आ गयी हैं। जनजाति बहुल गाँव के लड़के खेती-किसानी पर निर्भर न रहकर पढ़-लिख रहे हैं और पढ़ा भी रहे हैं। वे गाँव से दूर जाकर नौकरियाँ कर रहे हैं, उच्च शिक्षा पाकर परीक्षाएँ दे रहे हैं और ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच रहे हैं। गाँव में पीछे छूटा उनका परिवार भी अब ज्यादा दिन वहाँ नहीं रहने वाला है, क्योंकि देहाती जीवन और कृषि कर्म में उच्च तकनीक वाली बड़ी पूँजी के प्रवेश ने छोटे किसानों का खेती पर निर्भर रहना मुश्किल कर दिया है। पूँजी ने देहाती लोगों को स्वार्थी बना दिया है, जिससे प्रकृति और पर्यावरण का नाश हो गया है। प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट हो जाने से किसान नयी तकनीक से खेती करने को विवश है और नयी तकनीक के तार बड़ी भूमंडलीय पूँजी से जुड़े हैं। एक छोटे-से खेत को सींचने के लिए चार सौ रुपये प्रति घंटे की दर से पानी लेना पड़ता है और तीन सौ रुपये में आधी रात के लिए मजदूर करना पड़ता है। कहानी में मोबाइल फोन की भूमिका और ‘‘मिस कॉल’’ वाला व्यंग्य भी गौर करने लायक है। इतनी महँगी खेती के लिए जरूरी है कि किसान अपने लिए अन्न पैदा करने के बजाय बाजार के लिए नकदी फसलें उगाये। (कहानी में भूरी का खेत भी नकदी फसल सरसों का खेत है।) लेकिन जाहिर है कि यह पूँजीवादी विकास ‘सस्टेनेबल’ (टिकाऊ) नहीं है और इसमें छोटे किसान को बर्बाद होना ही है, चाहे वह कर्जदार होकर आत्महत्या करे या खेती और गाँव छोड़कर कहीं और चला जाये, कोई और पेशा अपनाये।

यह कहानी आज के इसी बदले हुए यथार्थ को सामने लाती है। लेकिन इस बदले हुए यथार्थ के दो पहलू हैं--किसानों के कष्टों और आत्महत्या के प्रयासों वाला निराशाजनक पहलू और गैर-टिकाऊ खेती से जुड़ा ग्रामीण जीवन जीते रहने के बजाय शिक्षित होकर कोई वैकल्पिक और बेहतर जीवन जीने के प्रयासों वाला आशाजनक पहलू। इस कहानी में बदलते हुए यथार्थ के आशाजनक पहलू को सामने लाया गया है। भूरी का जीवन हमेशा ऐसा ही रहने वाला नहीं है। उसका पति पढ़-लिखकर पढ़ाने लगा है, उसका देवर ऊँचे पद पर पहुँचने के लिए तैयारी कर रहा है, उसके बच्चे भी पढ़-लिख जायेंगे, तो गाँव में न रहकर बाहर चले जायेंगे। यह भी हो सकता है कि वे ‘लोकल’ न रहकर ‘ग्लोबल’ हो जायें।

इस प्रकार यह कहानी ठेठ भारतीय यथार्थ की कहानी होते हुए भी आज के भूमंडलीय यथार्थ की कहानी है और इसका यथार्थवाद प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को आगे बढ़ाने वाला भूमंडलीय यथार्थवाद है। 

साभार : http://behtarduniyakitalaash.blogspot.in/
(परिकथा, मार्च-अप्रैल 2015)

पूस की एक और रात (कहानी)


पूस की एक और रात
(कहानी)
गंगा सहाय मीणा

21वीं सदी का पहला दशक बीत जाने के बाद के एक बरस का पूस का महीना।

हफ्तेभर की कोशिश के बाद आखिरकार भूरी की सरसों भराने की बारी आ गई। रामजीलाल पटेल ने मिस कॉल करके हरकेश मास्टर को बताया, ‘माड़साब, आज रात आठ बजे से तमारो नंबरअ!

शिक्षामित्र के रूप में हरकेश जिस गाँव में काम कर रहा था, वह गंगापुर से दो सौ किलोमीटर से ज्यादा ही होगा। वह हर शनिवार शाम अपने गाँव आ जाता था और सोमवार सुबह पाँच बजे वाली बस से चला जाता था। अर्धवार्षिक परिक्षाओं की वजह से न इतनी आसानी से छुट्टी मिल सकती थी और न ही इतनी जल्दी गाँव पहुॅंचा जा सकता था। समझ नहीं पाया, हां करे या ना! दस दिन बाद सर्दी की छुट्टियों में तो गाँव जाना ही था लेकिन तब तक देर हो जाएगी।

उसने भूरी को पड़ौसी के मोबाइल पर फोन मिलाकर राय ली तो भूरी ने थोड़े संकोच के साथ हांकर दिया। हरकेश ने अपनी जीजी  से भी बात की और इस बिंदु पर सहमति बनी कि सरसों आज ही भराएँगे लेकिन कूड मोड़ने  के लिए एक मजूर भी कर लेंगे।

भूरी मजूर कर आई। तीन सौ रुपये में मजूर हुआ। आधी रात के लिए।

भूरी ने दोनों बच्चों को खाना खिलाकर सुलाया। भैंस और पडिया को साँदी-पाणी दिया। दोनों, सास-बहू, ने खाना खाया। इतने में रमेश बैरवा भी आ पहुँचा। भूरी ने एक शॉल और उसकी सास ने एक पुराना कंबल लिया जो हरकेश के पिताजी कुंभ के मेले से लाये थे। एक टॉर्च और गैस लेकर तीनों बगीचे वाले खेत की ओर चले।

चार-पाँच साल पहले तक बगीचे वाले कुएँ में काम लायक पाणी हो जाता था। दस-बारह साल पहले तो यहां पाणी की कोई कमी नहीं थी। सवाई माधोपुर-करौली जिले राजस्थान में भले ही आते हों, लेकिन यहां पाणी की किल्लत नहीं रही। पाँचना बाँध से कई नहरें निकल रही थीं। ज्यादातर गाँवों में बड़े तालाब थे जो लगभग हर साल भर जाया करते थे। गंगापुर से करौली जाने वाली सड़क पर बसे, सरसों के बीज के लिए प्रसिद्ध, मीणा पहाड़ी गाँव में उन दिनों दस से पंद्रह हाथ पर कुओं में पाणी था। सब लोग लेज -बाल्टी लेकर कुओं पर नहाने जाते थे। अब गाँव में नल लग गए और कुंडे खुद गए। सब घर पर ही नहाते हैं। पूरा गाँव कीचड़भरी नाली में तब्दील हो गया है। गाँव के मुख्य रास्तों पर सीमेंट की सड़क तो बन गई लेकिन नालियां नहीं बनाई गईं। सड़क पर बढ़ रहे कीचड़ ने शहरों के बाशिंदे विभिन्न प्रजातियों के मच्छरों को न्योता दिया और लुभाया है। वैसे भी अब शहरों में मच्छरों का गुजारा इतना आसान नहीं रहा।

जब कुओं में पाणी था तो गाँव में सिंचाई भी काफी आसान थी। हर कुटुंब के हर इलाके के खेतों के साथ कुएँ हैं। बुजुर्गों ने इन कुओं को खुद ही खोदा और बाँधा था। पानी कम होने पर वे खुद ही बल्ली लगा लेते थे। बगीचे वाले कुएँ को खोदने और बाँधने में हरकेश के पिताजी ने सबसे ज्यादा काम किया था। खुद महीनेभर तक कुएँ में उतरे रहे। कुओं में ऊपर पानी होने का फायदा यह था कि साधारण इंजनों द्वारा आसानी से सिंचाई हो जाती थी जिसमें प्रतिघंटे औसतन एक लीटर डीजल जलता था। यानी किफायती और आसान। सरसों को चाहिए भी कितने पानी- एक या दो। इंजनों से पहले नाव चलाकर सिंचाई की जाती थी जो काफी मुश्किल थी। उसमें लगी मेहनत को याद कर बड़े-बूढ़े आज भी सिहर उठते हैं।

मीणा पहाड़ी के दक्षिण पूर्व में एक पहाड़ी थी और उसके थोड़ा आगे लंबा डूँगर। डूँगर, गाँव और खेतों से निकलने वाले बारिश के पानी के सारे रास्ते आपस में मिलते हुए तालाब पर पहुँचते थे। इससे लगभग एक किलोमीटर लंबा-चैड़ा तालाब हर साल भर जाता था। एक बार तो तालाब टूटने की नौबत आ गई। आधी रात को जाकर गाँव वालों ने समय रहते कोने वाली मोरी खोल दी और तालाब टूटने से बचा लिया।

धीरे-धीरे इस जनजाति बहुल गाँव में भी लोगों में स्वार्थपरता घर करती गई और उन्होंने अपने खेत के पास से गुजरने वाले बरसाती नाले की तरफ अपने-अपने खेतों को बढ़ाना शुरू किया, अपने खेतों का पानी मजबूत डौड़ बनाकर अपने खेतों में ही रोक लिया तथा जिन लोगों के खेतों में होकर पानी बड़े तालाब तक पहुँचता था, उन्होंने भी डौड़ कर दी। फलस्वरूप तालाब का भरना बंद हो गया। जिससे पूरे गाँव में जलस्तर नीचे जाता रहा और एक दशक से भी कम समय में भरे रहने वाले कुएँ हमेशा के लिए सूख गए।

इसके बाद गाँव के बड़े किसानों ने बोरिंग करना शुरू किया। बोरिंग से सिंचाई महँगी हुई और मुश्किल भी। एक बोर करने में तीन-चार लाख तक का खर्च सामान्य था। उस पर बोर फेल होने का खतरा अलग।

परिणाम यह हुआ कि बोर मालिकों ने दूसरे किसानों के खेतों में सिंचाई कर इस खर्च को निकालना शुरू कर दिया। गाँव में कुल मिलाकर आधा दर्जन ही बोर थे इसलिए किसानों की भी मजबूरी थी उनसे महॅंगी रेट पर पाणी लेने की। बोर मालिक दिन में अपने खेतों को भराते थे और रात में दूसरे किसानों को पाणी देते। हरकेश और रामजीलाल के बीच चार सौ रुपये प्रतिघंटे की रेट तय हुई थी।

हरकेश के पिताजी को गुजरे 15 साल हो गए थे। पिताजी के जाने के बाद जीजी भी तेजी से बूढ़ी हुई। उनके पास कुल साढ़े पाँच बीघा जमीन थी। बहन की शादी करने में चार लाख से ऊपर कर्ज हो गया था। दो रुपया सैंकड़ा की कटतीमिती  की ब्याज दर ने पूरे परिवार का हाजमा खराब कर रखा था। जमीन में गुजारा संभव नहीं था, इसलिए पहले हरकेश की जीजी और अब भूरी मिस्टाॅल  पर काम करती थी। दोनों ने मजूरी भी खूब की है। जीजी का शरीर अब मजूरी करने लायक नहीं रहा। वह थोड़ा-बहुत बच्चों और घर का काम देख लेती थी। छोटे भाई को हरकेश ने बी.ए. के बाद जयपुर तैयारी करने भेज दिया। घर में आदमी कम होने की वजह से बीच-बीच में हरकेश के परिवार को भी मजूर की जरूरत पड़ जाती थी। खासतौर पर लावणी के दिनों में।

बगीचे वाला खेत एक बीघा से कुछ कम ही था। हरकेश सबको पौण बीघा बताता। नाप के हिसाब से यह सौलह बिसवा था।

भूरी पहुँचते ही झम्मन को पाणी चालू करने के लिए कह आई। रामजीलाल पटेल ने बोर पर झम्मन को रखा हुआ था। झम्मन के पिताजी ने रामजीलाल पटेल से बेटी की शादी और छोटे बेटे को बी. एड. कराने के लिए कर्ज लिया था, जो वह अभी तक चुका नहीं पाया था।

भूरी की सास खेत किनारे बगीचे की डौड़ पर कंबल ओढ़कर बैठ गई। साढे नौ बजे बोर चालू हुआ। भूरी ने गैस क्यारी के पास वाली डौड़ पर रख दिया। भूरी और रमेश सरसों के खेत में कूड मोड़ने लगे।

उतरते पूस की काली रात थी। थोड़ा कोहरा भी था। ठंड जोरों पर थी। शाम से पर्वाई पौन चल रही थी। भूरी पानी में उतरी हुई थी। उसकी सास बीच-बीच में मठार  देती थी। भूरी रमेश से कहती, ‘रमेश, देखतो रह्ज्यो। हड़ाई भर जाय तो बता दीज्यौ। मैं पाणी दूसरी हड़ाई में मोड़ दूंगी।

दो घंटे में लगभग आधा खेत भर गया। रमेश बीच-बीच में बीड़ी जलाकर सर्दी से टक्कर ले रहा था। भूरी सलवार कुर्ते में थी जो उसने हरकेश के साथ नौकरी पर जाने के लिए सिलवाये थे। उसकी सलवार घुटने से थोड़ा ऊपर तक भीगी हुई थी। उसने टाॅर्च गले में लटका रखी थी।

सहसा भूरी को महसूस हुआ कि ये वाली क्यारी भरने में कुछ ज्यादा वक्त लग रहा है। उसने रमेश से कहा कि देख कहीं पाणी फूट्यो तो नीय’? रमेश ने हर तरफ देखा लेकिन कहीं पाणी फूटा नहीं मिला।

भूरी रमेश के जवाब से संतुष्ट नहीं हुई। टाॅर्च से उसने खुद जाँच की। पाणी कहीं फूटा नहीं था। उसने गौर से बरे का भी निरीक्षण किया। वह भी नहीं फूटा था। फिर उसने पाइप के मुँह पर टाॅर्च डालकर देखा। वह देखकर सन्न रह गई। उसने देखा कि पानी की चाल आधी से कम हो गई है। उसे ये झम्मन की शरारत महसूस हुई। वह पाणी पर रमेश को लगाकर सीधे रास्ते से दौड़ती हुई बोर पर गई। देखा, झम्मन कमरेनुमा तिवारे में सो रहा था और बोर में पानी पूरा आ रहा था।

भूरी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था और कुल पलों तक वह किंकर्तव्‍यविमूढ़ होकर खड़ी रही। अचानक उसके दिमाग में कुछ कौंधा। उसने पाइप के साथ-साथ खेत की ओर चलना शुरू किया। बोर से खेत की दूरी एक किलोमीटर से ऊपर ही थी। भूरी पाइप के किनारे-किनारे चलती गई और बीच-बीच में पाइप को छूकर देखती रही। पानी पूरा आ रहा था।

भूरी ने जर्सी पहनी हुई थी और शाॅल लपेटा हुआ था लेकिन ठिठुरनभरी हवा ने उसे कँपकँपाना शुरू कर दिया। घुटने से ऊपर तक भीगी सलवार पर लग रही हवा शीत का क्षेत्र विस्तार कर रही थी। वह खेत के एकदम करीब पहुंच गई लेकिन उसे पाइप में कोई दिक्कत नहीं मिली।

छपाककी आवाज के साथ अचानक उसका पाँव पाणी में पड़ा। वह रुकी। उसने टाॅर्च जलाकर देखा। भैरो के खेत में पाणी भरा हुआ था। उसको समझते देर नहीं लगी। थोड़ी आगे पाइप फटा हुआ था। भूरी समझ नहीं पाई कि पाइप कैसे फटा होगा और कैसे बहते पाणी को रोके! एक बार तो उसने सोचा वापस जाकर झम्मन को जगाए और पाणी बंद करने के लिए कहे। लेकिन अगले ही पल उसे खयाल आया कि पाणी बंद करवा दिया तो उनका खेत कैसे भरेगा! और पता चला फिर नंबर ही न आए!

उसने सिर और कानों को ढककर ओढ़ा हुआ शाॅल उतारा और टूटा पाइप बांधने में जुट गई। बाँधने की प्रक्रिया में पाणी की पिचकारियाँ उसको भिगो रही थी। उसने कुछ मिनटों की मशक्कत के बाद टूटे हुए पाइप को कुछ इस तरह से बाँध दिया कि उसमें से पानी बहना लगभग बंद हो गया। बस शाॅल में से रिस-रिसकर थोड़ा पानी निकल रहा था।

जब पाइप की मरम्मत हो गई तो भूरी को अहसास हुआ, वह पूरी तरह भीग चुकी थी। वह ज्यों-ज्यों खेत की तरफ बढ़ रही थी, पर्वाई पौन उसकी हड्डियों तक पहुँचती चली जा रही थी। जर्सी भीग चुकी थी और बालों में भी पाणी पहुँच चुका था। उसने खेत में पहुँचकर देखा, पाणी की चाल ठीक थी।

भूरी की बूढ़ी सास खुद को जगाए रखने के लिए आग जलाकर बैठी थी और कोई मीणावाटी गीत गुनगुना रही थी। रमेश बीड़ी पी रहा था। उसे रमेश पर गुस्सा आया कि पैसे तो पूरे ले लेगा लेकिन ठीक से कूड नहीं मोड़ रहा।
आधी से ज्यादा रात जा चुकी थी। जब भूरी को असहनीय ठंड महसूस हुई तो वह अपनी सास के पास आग तापने पहुंच गई। अब खेत थोड़ा ही बचा था। लेकिन शीत खाल, माँस और हड्डियों को चीरता हुआ बदन के आर-पार हो रहा था। सास के पास सुलगती आग में उसे सुकून महसूस होने लगा। उसे याद आई वे तमाम रातें जो उसने और हरकेश ने खेतों पर कूड मोड़ते हुए बिताई थी, दोनों ने एक-दूसरे को गरम किया था और सुबह संतुष्ट होकर घर लौटे थे।

आग के पास बैठने से भूरी को थोड़ी राहत जरूर मिली लेकिन इससे उसके शरीर में आलस छाने लगा। उसकी हाथों और पाँवों की अंगुलियाँ सूज गई थी। उनमें खून जम गया। उसने आग में अपने हाथ-पाँव इतने करीब से सेंके कि ऊपर से खाल जलने को हो गई और अंदर खून बर्फ बना हुआ था, जैसे गीले आटे की रोटी को तेज आँच पर सेंकने पर होता है।

उसका दोबारा पानी में उतरने का साहस नहीं हो रहा था लेकिन जैसे ही उसे चार सौ रुपये घंटे का अहसास हुआ, वह पानी में उतर गई और किसी युद्ध में अपने पक्ष के बचे आखिरी योद्धा की भाँति तब तक कूड मोड़ती रही जब तक खेत भर नहीं गया।

लगभग तीन बजे थे। उसकी बूढ़ी सास बुझ चुके अलाव के पास आम के पेड़ से पीठ लगाकर ऊँघ रही थी। रमेश ने घर लौटने की तैयारी के रूप में आखिरी बीड़ी जला ली थी। भूरी भीगे कपड़ों में पाणी बंद कराने के लिए बोर की तरफ बढ़ी चली जा रही थी।

(साभार- परिकथा (नवलेखन अंक) जनवरी-फरवरी 2015)
 
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